हाल में दिल्ली के विख्यात लोधी गार्डन
में सुबह की सैर कर रहे लोगों का ध्यान कुछ अन्य सैर करने वालों की एक अजीबो-गरीब
हरक़त की तरफ आकृष्ट हुआ. रविवार का दिन था और अपनी सेहत के प्रति जागरूक नज़र आ रहे
बीस-पच्चीस लोगों का एक समूह जॉगिंग तो कर
ही रहा था लेकिन उन्होंने अपने हाथों में दस्ताने भी पहन रखे थे और वे लोग जॉगिंग
करते हुए वहां बिखरा हुआ कचरा भी अपने हाथों
में लिये हुए प्लास्टिक बैग्ज़ में इकट्ठा
जा रहे थे. वहां घूमने वाले अगर दुनिया के अन्य देशों में इन दिनों चल रहे
एक आंदोलन से थोड़ा भी परिचित होते तो उन्हें इन लोगों की यह हरक़त अजीब नहीं लगती.
असल में स्वीडन में सन 2016 से एक नई
गतिविधि शुरु हुई है जिसका नाम है प्लॉगिंग. यह प्लॉगिंग शब्द स्वीडिश भाषा
के दो शब्दों से मिलकर बना है जिनका काम चलाऊ अंग्रेज़ी अनुवाद होगा पिकिंग
और जॉगिंग, यानि (कचरा) बीनना
और जॉगिंग करना. ऐसा माना जाता है कि सत्तावन वर्षीय स्वीडिश नागरिक एरिक
एहल्स्ट्रोम इस गतिविधि के जनक हैं. वे उत्तरी स्वीडन में रहते थे लेकिन जब वहां से स्टॉकहोम आए तो
उन्हें यह देखकर बड़ा कष्ट हुआ कि स्टॉकहोम
की सड़कों पर पहले से ज़्यादा कचरा फैला हुआ है. और उन्होंने सोचा कि क्यों न
जॉगिंग करते हुए कचरा भी बीन लिया जाए! बस, फिर क्या था! लोग साथ आते
गए और कारवां बनता गया. बहुत जल्दी इस गतिविधि के लिए लाइफसम नामक एक एप भी
बन गया और इस एप ने लोगों को प्लॉगिंग के फायदों से भी परिचित करा दिया. अगर इस एप
के आंकड़ों को सही मानें तो जहां सामान्य जॉगिंग करने से हम एक घण्टे में मात्र 235
कैलोरी खर्च कर पाते हैं, प्लॉगिंग करने से 288 कैलोरी खर्च कर देते हैं. और
हां,
अगर
आप सिर्फ तेज़ तेज़ चलते हैं तो महज़ 120 कैलोरी ही खर्च कर पाते हैं.
अब प्लॉगिंग स्वीडन में तो
बाकायदा एक आंदोलन का रूप ले चुका है. लोग महसूस करने लगे हैं कि यह कम केवल सेहत
के लिए ही लाभप्रद नहीं है, पर्यावरण के भी हित में है. वहां सोशल मीडिया आदि
के माध्यम से सूचनाएं प्रसारित कर प्लॉगिंग ईवेण्ट्स आयोजित किये जाते हैं जिनमें
लोग एक दो घण्टा प्लॉगिंग करते हैं और फिर गपशप, कैंप फायर वगैरह कर घर
लौट आते हैं. ऐसे ही आयोजन नियमित रूप से
करने वाली एक नर्स टेश का कहना है कि जब भी मैं अपने आस-पास कचरा बिखरा हुआ देखती
हूं,
मुझे
एक साथ अफसोस और गुस्से का अनुभव होता है. इनसे निज़ात पाने के लिए प्लॉगिंग से
बेहतर और कुछ नहीं हो सकता है. छत्तीस वर्षीय लिण्डबर्ग का कहना है कि उन्हें इस
बात का अफसोस है कि वे इतने बरसों सिर्फ दौड़ती ही रही. काश! यह सब पहले करने लग गई होतीं. अब वे जब भी
जॉगिंग के लिए जाती हैं, सबसे पहले घूम-घूमकर यह जायज़ा लेती हैं कि उन्हें कहां कहां से कचरा उठाना है
और फिर जॉगिंग के साथ झुक झुक कर कचरा उठाती और अपने बैग्ज़ में इकट्ठा कर लेती
हैं. उनका कहना है कि अपने आस-पास को देखकर दुखी होने से ज़्यादा अच्छा यह है कि हम
खुद उसे बेहतर बनाने के लिए कुछ करें. स्वीडन की ही एक संगीतकार लेखिका का कहना है
कि यह काम तो वह पहले से कर रही थी लेकिन अब उसके देश ने इसे एक नाम भी दे दिया
है. उसे इस बात की खुशी है कि वह जो कर रही है उससे केवल उसकी सेहत को ही नहीं
परिवेश को भी लाभ पहुंच रहा है. मज़ाक के लहज़े में वो कहती है कि पहले उसकी कमर में
पैण्ट फंसती थी, लेकिन अब बार-बार झुकने के
कारण वही पैण्ट उसे ढीली लगने लगी है.
बहुत आह्लादक बात यह है कि
स्वीडन से शुरु हुआ यह अभियान अब आहिस्ता-आहिस्ता पूरी दुनिया में फैलता जा रहा
है. पहले यह यूरोप में लोकप्रिय हुआ और अब जर्मनी, फ्रांस, अमरीका, कनाडा, मलेशिया और थाइलैण्ड में भी लोग जॉगिंग की बजाय प्लॉगिंग
को महत्व देने लगे हैं. हाल में द गार्डियन अखबार ने लिखा कि अब वक़्त आ गया है कि हम सब जॉगिंग करते समय
कचरा बीनने के स्कैण्डिनेवियन मॉडल का अनुसरण करें. हर देश में प्लॉगिंग करने
वालों के समूह बनने लगे हैं और लोग बढ़ चढ़कर उनमें हिस्सेदारी कर रहे हैं.
हमारे लिए तो यह बात और भी
ज़्यादा खुशी की है कि सफाई के जुनून में अपने घर का कचरा पड़ोसी के घर के आगे खिसका
देने में माहिर हम भारतीय भी इस प्लॉगिंग को अपनाने में दुनिया के और देशों से
पीछे नहीं हैं. ज़रूरत इस बात की है कि हम सब मिलकर इस अभियान को और अधिक लोकप्रिय
बनाएं ताकि हम भी स्वच्छ भारत के निवासी होने का सुख पा सकें!
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 24 अप्रैल, 2018 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.
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