मृत्यु कवियों-शायरों का प्रिय विषय रहा
है. हरेक ने इसे अपनी तरह से समझने और व्याख्यायित करने का प्रयत्न किया है. हरेक
का अपना लहज़ा और अपना रंग. कुछ ने तो मृत्यु का इतना दिलकश चित्रण किया है कि पढ़ते
हुए आपको ज़िन्दगी से मौत बेहतर लगने लगती है, तो कुछ मौत के बाद की परेशानियों का
ज़िक्र कर आपको और ज़्यादा डराने से भी बाज़ नहीं आते हैं. अब हज़रत शेख
इब्राहिम ज़ौक़ साहब को ही लीजिए. फरमाते हैं, “अब तो घबरा के ये कहते हैं कि
मर जाएंगे/ मर कर भी चैन न पाया तो किधर जाएंगे.”
गोया मौत न हुई, गर्मी की छुट्टियों
की यात्रा हो गई, कि अगर शिमला ठण्डा न लगा तो नैनीताल चले जाएंगे! वैसे
हक़ीक़त तो यह है कि न मरना अपने बस में है न ज़िन्दा रहना. ख़ुद इन्हीं ज़ौक़ साहब ने
यह भी तो कहा था कि “लाई हयात आए कज़ा ले चली चले/ अपनी ख़ुशी न आए न अपनी ख़ुशी
चले.” मुझे तो मिर्ज़ा ग़ालिब भी बहुत अच्छे लगते हैं, जब वे आश्वस्त करते हुए कहते
हैं, “मौत का एक दिन मुअय्यन है/ नींद क्यों रात भर नहीं आती.” मरने के बाद क्या
होता है और हम कहां जाते हैं, इसकी भी चिंता बहुत सारे कवियों-शायरों ने की है और
बहुत खूबसूरती से की है. हिज़्र नाज़िम अली ख़ान जब कहते हैं कि “ऐ हिज़्र वक़्त टल
नहीं सकता है मौत का/ लेकिन ये देखना है कि मिट्टी कहां की है.” तो वे जैसे इसी
बात की फ़िक्र करते हैं कि मौत के बाद कहां जाना होगा. उन्हीं की बात का एक दूसरा
सिरा हमें मिलता है हिन्दी कवि राजकुमार कुम्भज के यहां जब वे कहते हैं कि “मुझे मेरी मृत्यु से
डर कैसा?/मृत्यु तो मेरा एक और नया घर होगा भाई/ आओ अभी थोड़ा आराम करें
यहीं इसी घर में/ फिर चलेंगे उधर कुछ देर बाद मिलने उस मिट्टी से.”
क्या पता उन्हें राजकुमार कुम्भज की इन
पक्तियों से ही प्रेरणा मिली हो, इधर हमारे पड़ोसी मुल्क़ पाकिस्तान में एक नया खूबसूरत
और वैभव पूर्ण नया ‘घर’ बनाया गया है. हाल ही में पाकिस्तान सरकार ने वहां के सबसे
अमीर और ग्यारह मिलियन की आबादी वाले शहर लाहोर के बाशिन्दों के जीवनोत्तर जीवन के
लिए शहर से थोड़ा दूर एक आलीशान ठिकाना तैयार किया है जिसे हम अपनी भाषा में आदर्श
कब्रस्तान कह सकते हैं. शहर-ए-खामोशां नामक इस कब्रस्तान में जर्मनी से आयातित फ्रीज़र लगवाए गए हैं और यहां स्थापित किये गए
बाईस वीडियो दूर-दराज़ के इलाकों में रह रहे रिश्तेदारों को भी अपने निकट
सम्बन्धियों के अंतिम संस्कार में मौज़ूद रहने का अनुभव प्रदान कर सकेंगे.
शहर-ए-खामोशां में किसी के अंतिम संस्कार में आए शोकाकुलों की सुविधा का भी पूरा
खयाल रखते हुए उनके लिए खूब सारे पंखों का इंतज़ाम किया गया है ताकि उन्हें शोक की
घड़ी में भी गर्मी से न जूझना पड़े. कब्रस्तान के भीतर उम्दा फुटपाथों वाली खूब चौड़ी
सड़कें हैं और उनके किनारों पर भरपूर और सुकून देने वाली हरियाली है. बुज़ुर्गों के
आवागमन के लिए गोल्फ कार्ट्स की व्यवस्था है और कब्र खोदने का कष्टसाध्य काम करने
के लिए यांत्रिक संसाधन जुटा दिये गए हैं. पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त में ऐसे ही तीन कब्रस्तान और बनाए जा रहे हैं
और इस परियोजना के निदेशक ने देश के अन्य प्रांतों के अधिकारियों को भी सलाह दी है कि वे अपने यहां भी ऐसे ही मॉडल
कब्रस्तान बनवाएं.
लाहोर के इस आदर्श कब्रस्तान की बात करते
हुए यह बात भी याद कर ली जानी चाहिए कि पाकिस्तान के अधिकांश कब्रस्तान जगह के संकट से जूझ रहे हैं. अब तक तो यह होता
रहा है कि जिन कब्रों पर लम्बे अर्से तक कोई गतिविधि नहीं होती थी उन्हें नवागतों को आबंटित कर दिया जाता था लेकिन
इधर जब से कब्र पर कीमती पत्थरों पर उत्कीर्ण महंगे स्मृति लेखों का चलन बढ़ा है,
कब्रस्तानों के प्रबन्धकों का दायित्व
निर्वहन कठिन होता जा रहा है. पाकिस्तान के सबसे अधिक आबादी वाले शहर कराची में तो
लम्बे समय से अधिकांश सार्वजनिक कब्रस्तानों में दफ़नाने की मनाही है. फिर भी, अतिरिक्त धन के लालच में
वहां के कारिन्दे इस मुमानियत का उल्लंघन भी कर जाते हैं. बहुत रोचक बात है कि इस तरह के
लालची कर्मचारियों को पकड़ने के लिए वहां
की पुलिस ताबूतों में छिपकर उन पर निगाह रखती है.
ऐसे हालात में, समझदार लोगों का इस तरह के वैभवपूर्ण और खूब जगह घेरने वाले
वी आई पी कब्रस्तानों को आदर्श मानने पर सवाल उठाना तर्क संगत लगता है. अगर
सुमित्रानंदन पंत आज होते तो शायद वे दुबारा लिखते:
“हाय! मृत्यु का ऐसा
अमर, अपार्थिव पूजन?
जब विषण्ण, निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन!
संग-सौध में हो शृंगार मरण का शोभन,
नग्न, क्षुधातुर, वास-विहीन रहें जीवित जन?”
जब विषण्ण, निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन!
संग-सौध में हो शृंगार मरण का शोभन,
नग्न, क्षुधातुर, वास-विहीन रहें जीवित जन?”
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 29 अगस्त, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.