Tuesday, June 6, 2017

खाइये मन भाता, पहनिए जग भाता

चाहता कोई नहीं है कि विवाद खड़ा हो, लेकिन अनायास ऐसा कुछ हो जाता है कि चाय  के प्याले में तूफ़ान आ जाता है. जो लोग राजनीति की दुनिया में हैं, हो  सकता है कि वे कभी-कभार जान-बूझकर भी विवादास्पद कुछ कह या कर देते हों, मुझे नहीं लगता कि संस्थान भी ऐसा ही करते होंगे. अब हाल का यह प्रसंग लीजिए जो घटित तो सुदूर बेल्जियम में हुआ है लेकिन जिसकी चर्चा सारी दुनिया में हो रही है. मुझे पूरा विश्वास है कि इस घटना का सूत्रपात जहां से हुआ वहां किसी की मंशा कोई विवाद खड़ा करने की नहीं रही होगी. आइये, पहले घटना जान लें.

बेल्जियम की ब्रसेल्स फ्री यूनिवर्सिटी के मेडिकल स्नातकों का दीक्षांत समारोह होने वाला था. सामान्यत: सारी दुनिया में दीक्षांत समारोह का कोई न कोई  ड्रेस कोड होता है, और उसे यथासुविधा बदला भी जाता है, जैसे अपने देश में कई जगहों पर काले गाउन की बजाय भारतीय वेशभूषा प्रचलन में आई है. लेकिन ब्रसेल्स  की इस यूनिवर्सिटी ने अपने नव स्नातकों को एक ई मेल भेजा जिसमें ऐसा कुछ कह दिया गया कि किसी ने क्षुब्ध होकर उस ई मेल को फेसबुक पर साझा कर दिया, और उसके बाद तो ऐसे मामलों में जो होना है वही हुआ. एक से एक तीखे बयान, उपहासात्मक टिप्पणियां, गुस्से की अभिव्यक्तियां वगैरह-वगैरह. ऐसा क्या था उस ई मेल में? उसमें जो कहा गया था उसका सरल-सा अनुवाद यह हो सकता है कि “सौंदर्यात्मक  दृष्टि से यह उपयुक्त होगा कि इस अवसर पर पुरुष एक उम्दा सूट पहन कर आएं, और युवतियां  स्कर्ट के साथ ऐसी ड्रेस पहनें जिसकी नेकलाइन नाइस रिवीलिंगहो.”  यह बात बहुत दिलचस्प लग सकती है कि भारत में जहां हम लोग आम तौर पर पश्चिमी दुनिया के देशों  को वेशभूषा के मामले में खासा उदार और उन्मुक्त मानते हैं, वहां भी इस मेल को सहजता से नहीं लिया गया. इतना ज़्यादा हो हल्ला मचा कि अंतत: इस मेल को भेजने वाली फैकल्टी ऑफ मेडिसिन को इस आशय का एक बयान ज़ारी कर कि इस मेल में युवा स्नातकों के लिए  वेशभूषा के जो निर्देश दिये गए हैं वे उन मूल्यों के विरुद्ध हैं जिनका निर्वहन इस  विश्वविद्यालय और फैकल्टी द्वारा किया जाता है, क्षमा याचना करनी पड़ी. वैसे  इस मेल में भी कह दिया गया था कि महिलाओं के लिए इस सलाह को मानना ज़रूरी नहीं है. एक बहुत रोचक बात बाद में उजागर हुई और वह यह कि यह मेल विश्वविद्यालय के उस सचिवालय द्वारा ज़ारी किया गया था जिसमें केवल महिलाएं काम करती हैं!

चलिये, इस विवाद का तो पटाक्षेप हो गया, लेकिन बात निकलती  है तो दूर तक जाए बग़ैर नहीं रहती है. इस विवाद की चर्चा करते हुए अनायास मुझे पैरिस में हुए एक ताज़ा सर्वे का ध्यान आ रहा है. फ्रांस की राजधानी में स्थित पैरिस-सॉर्बॉन यूनिवर्सिटी की एक शोधकर्ता डॉ सेवाग कर्टेशियन ने वहां होने वाली एक अंतर्राष्ट्रीय कॉन्फ्रेस में प्रस्तुत करने के लिए जो परिणाम जुटाये हैं वे खासे चौंकाने वाले हैं. उन्होंने कुछ महिलाओं को चुना और फिर उनमें से हरेक की दो तस्वीरें एक एक सौ भावी नियोक्ताओं को भेजीं. एक तस्वीर में उन्हें सामान्य वेशभूषा में दिखाया गया तो दूसरी में वैसी वेशभूषा में जिसका ज़िक्र बेल्जियम के इस विवाद के संदर्भ  में हो चुका है.  यह पाया गया कि बिक्री विभाग की नौकरियों के लिए सामान्य की तुलना में लो-कट ड्रेस वाली युवतियों को 62 इण्टरव्यू कॉल्स ज़्यादा मिले.  और अधिक चौंकाने वाली बात तो यह कि अकाउण्टेंसी विषयक कामकाज के लिए यह फासला 68 कॉल्स का रहा. यहीं यह भी बता दूं कि दोनों मामलों में युवतियों की योग्यता समान थी, यानि यह अंतर सिर्फ उनकी वेशभूषा के कारण आया. डॉ कर्टेशियन ने ठीक  ही कहा है कि काम चाहे जैसा हो, चाहे वो ग्राहकों के साथ सम्पर्क  कर बिक्री करने का हो या कार्यालय में बैठकर हिसाब-किताब करने का, उदार वेशभूषा वालों को अधिक सकारात्मक प्रतिक्रियाएं मिलती हैं. कर्टेशियन का कहना है कि ये परिणाम बहुत चौंकाने वाले और नकारात्मक भले  हों, आश्चर्यजनक तो फिर भी नहीं हैं. वे मानती हैं कि इस क्षेत्र में और अधिक रिसर्च की ज़रूरत है. और जिस कॉन्फ्रेस में प्रस्तुत करने के लिए  वे इन परिणामों तक पहुंची हैं उसमें भी विभिन्न विशेषज्ञ और नीति निर्माता यही विमर्श करने वाले हैं कि हम जैसे दिखाई देते हैं उसकी क्या-क्या परिणतियां होती हैं! 

अपने देश में प्राय: वेशभूषा को लेकर कोई न कोई विवाद होता रहता है. हाल में जब कुछ सरकारों ने अपने कर्मचारियों को यह निर्देश दिया कि वे कार्यालय में जी न्स और टी शर्ट जैसी अनौपचारिक  वेशभूषा में न आएं, तो बहुतों को यह बात नागवार गुज़री. ऊपर उल्लिखित दोनों प्रसंग यह बताने को पर्याप्त हैं कि पहनने-ओढ़ने को लेकर केवल हम ही संवेदनशील नहीं हैं!


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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 06 जून, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.