Wednesday, November 29, 2017

सेहत के लिए हानिकारक तो है, लेकिन.......

हो सकता है यह बात आपको अविश्वसनीय लगे, लेकिन है प्रामाणिक कि सिगरेट पीने से हर रोज़ कम से कम 1200 अमरीकी यह दुनिया छोड़ जाते हैं. यह संख्या हत्याओं, एड्स, आत्म हत्याओं, ड्रग्स, कार दुर्घटनाओं और शराब की वजह से होने वाली मौतों के योग से ज़्यादा है. लेकिन इसके बावज़ूद वहां सिगरेटों के विज्ञापन और उनकी बिक्री पर प्रभावशाली नियंत्रण नहीं हो पा रहा है. और इसके मूल में है अमरीकी सिगरेट लॉबी की सामर्थ्य. यह लॉबी बहुत महंगे और प्रभावशाली वकीलों की मदद से निरंतर कानूनी व्यवस्थाओं को ठेंगा दिखाने में कामयाब हो जाती है. पिछले बीस बरसों से यह लॉबी एक ही रणनीति पर काम करती है और वह है तीन मोर्चों पर अपना बचाव. ये तीन मोर्चे हैं कानूनी लड़ाई, राजनीति और जन भावनाएं. इस लॉबी के एक गोपनीय दस्तावेज़ से यह बात उजागर हुई है कि इनकी रणनीति यह है कि सिगरेट पर स्वास्थ्य विषयक जो दोषारोपण हों, उन्हें वास्तव में नकारने की बजाय उनके बारे में संदेह पैदा कर दिया जाए. और इस रणनीति में यह लॉबी अब तक कामयाब रही है.

अब से ग्यारह बरस पहले वॉशिंगटन की एक संघीय अदालत नौ माह तक सुनवाई करने के बाद इस नतीज़े पर पहुंची कि “अमरीका के सिगरेट निर्माता जनता को धूम्रपान के खतरों की जानकारी  देने के मामले में छल और धोखाधड़ी करते रहे हैं. वे लोग अपने आर्थिक  लाभ के लिए मानवीय त्रासदी की अनदेखी करते हुए अपने खतरनाक उत्पादों को पूरे जोशो-खरोश के साथ बेचते रहे हैं.” और इसलिए इस अदालत ने अमरीका के चार प्रमुख सिगरेट निर्माताओं को यह आदेश दिया कि वे एक  सुधारात्मक वक्तव्य ज़ारी कर इस बात को  सार्वजनिक रूप से स्वीकार करें कि वे अपने उत्पादों से होने वाली हानि के मामले में जनता को अब तक बेवक़ूफ बनाते रहे हैं और यह जानते हुए भी कि कम टार वाली या लाइट सिगरेटें भी उतनी ही नुकसानदायक हैं, जनता में उनके काल्पनिक लाभों का प्रचार करते रहे हैं. अदालत के आदेशानुसार एक निश्चित तिथि से प्रमुख अखबारों  और टेलीविज़न नेटवर्क्स पर  इस आशय का सुधारात्मक वक्तव्य प्रकाशित-प्रसारित किया जाना शुरु होना था.   यह वक्तव्य एक पूरे साल सप्ताह में पांच बार शाम सात से दस बजे के बीच प्रमुख नेटवर्क्स पर प्रसारित किया जाना था.  यही वक्तव्य पचास अग्रणी अखबारों में भी पूरे पन्ने के विज्ञापन के रूप में लगातार पांच रविवार प्रकाशित किया जाना था. अदालत ने यह भी आदेश दिया कि यह  सुधारात्मक वक्तव्य इस सूचना के साथ प्रकाशित प्रसारित किया जाए कि सिगरेट कम्पनियों ने जानबूझकर अमरीकी जनता को धूम्रपान के ख़तरों से अनभिज्ञ रखा. इस पूरे वक्तव्य के पहले अनिवार्यत: यह भी लिखा जाना था कि यह है सच्चाई!’.

लेकिन असल खेल इसके बाद शुरु हुआ. सिगरेट कम्पनियों ने  इस आदेश के खिलाफ़ अपील की और वे यह अनुमति पाने में कामयाब रहीं कि बजाय उक्त सूचना के वे यह लिखेंगी कि एक संघीय अदालत ने कम्पनियों को यह आदेश दिया है कि वे धूम्रपान के स्वास्थ्य विषयक प्रभावों के बारे में यह वक्तव्य ज़ारी करें. दोनों इबारतों को ध्यान से  पढ़ने पर उनसे मिलने वाले संदेश के अंतर को आसानी से समझा जा सकता है. खतरे को प्रभावमें बदल देने से सारी भयावह गम्भीरता धुंए में उड़ गई है. यही नहीं, अब इस इबारत में सिगरेट उद्योग के उस दीर्घकालीन छलपूर्ण अभियान का कोई ज़िक्र ही नहीं है जिसे माननीय अदालत ने सुधारना चाहा था. यानि अपने वकीलों की काबिलियत के बल पर अति समृद्ध अमरीकी सिगरेट उद्योग अमरीकी जनता की सेहत के साथ बरसों किए गए खिलवाड़ के बारे में न सिर्फ आत्म स्वीकृति करने से बच गया, उसने एक ऐसा नख दंत विहीन वक्तव्य देने की इजाज़त भी प्राप्त कर ली, जो जनता को धूम्रपान के ख़तरों के प्रति तनिक भी आगाह नहीं करता है. यानि कुल मिलाकर हुआ यह कि अदालत ने जो सही काम किया था, उसे यह लॉबी अपने धन बल के दम पर प्रभावहीन कर सकने में सफल हो गई.

वैसे सारी दुनिया के स्वास्थ्य कर्मी और स्वास्थ्य विशेषज्ञ अब करीब-करीब एकमत हैं कि धूम्रपान सेहत के लिए नुकसानदायक है. कहा तो यह जाता है कि खुद सिगरेट उद्योग भी न सिर्फ इस यथार्थ से परिचित है, अपनी गोपनीय बैठकों में वह इसे स्वीकार  भी करता है, लेकिन उनके व्यावसायिक हित इतने प्रबल हैं कि वह  तमाम तरह के भाषाई छल  छद्म का सहारा लेकर यथार्थ को कुछ इस अंदाज़ में प्रस्तुत करने की अनुमति हासिल कर लेता है कि वह यथार्थ यथार्थ न रहकर निरर्थक शब्दों का खूबसूरत लगने वाला कागज़ी गुलदस्ता मात्र रह जाता है. उनका एकमात्र सरोकार यह है कि धंधा चलता रहे और तिजोरियां भरती रहें.  

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत बुधवार, 29 नवम्बर, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, November 21, 2017

पश्चिम ने डिजिटल से किनारा करना शुरु किया

भारतीय टेलीविज़न के बहुत लोकप्रिय कार्यक्रमों में से एक कौन बनेगा करोड़पति के अंत में अमिताभ बच्चन कहते थे, यह डिजिटल का ज़माना है, और फिर वे अपने हाथ में लिये हुए टेबलेट के माध्यम से विजेता को आनन-फानन में उसकी जीती हुई धन राशि ट्रांसफर कर देते थे. भारत सरकार ने भी डिजिटलीकरण पर काफी ध्यान दिया है. और इतना ही  क्यों, हम सबकी ज़िंदगी में काफी कुछ डिजिटल हो गया है. पश्चिम से आई इस नई तकनीक ने शुरु-शुरु में अपने नएपन से हमें आकर्षित किया, हालांकि अनेक आशंकाएं भी इसने जगाईं, और फिर आहिस्ता-आहिस्ता इसकी सुगमता, तेज़ी और कम खर्च बालानशींपन ने हम सबको अपना मुरीद बना लिया. आज हालत यह है कि हमारी ज़िंदगी का शायद ही कोई पक्ष ऐसा बचा हो जिसमें डिजिटल का प्रवेश न हो चुका हो.

लेकिन बहुतों को शायद यह बात अविश्वसनीय भी लगे, लेकिन है सच, कि जिस पश्चिम से यह डिजिटल आंधी हमारी ज़िंदगी में आई है उसी पश्चिम ने अब डिजिटल से दूरी बनाना शुरु कर दिया है.  अमरीका में हाल में ऐसी अनेक किताबें बाज़ार में आई हैं जिनमें डिजिटल तकनीक के हानिप्रद प्रभावों पर सप्रमाण और विस्तार से चर्चा की गई है. इन किताबों में यह चर्चा भी है कि कैसे स्मार्टफोन्स हमारे बच्चों की मानसिकता को विकृत कर रहे हैं और सोशल मीडिया किस तरह हमारी प्रजातांत्रिक संस्थाओं को क्षति पहुंचा रहा है. वहां इस बात की भी चर्चाएं हैं कि डिजिटल तकनीक एकाधिकारवादी प्रवृत्तियों को पुष्ट करती हैं. हाल में अमरीका में हुए एक सर्वेक्षण में यह बात भी सामने आई है कि लगभग सत्तर प्रतिशत अमरीकी डिजिटलीकरण के कारण हुए कामकाज के यंत्रीकरण से रोज़गार के अवसरों पर पड़ने वाले प्रतिकूल असर से चिंतित हैं. मात्र इक्कीस प्रतिशत  अमरीकी फेसबुक को दी जाने वाली  अपनी व्यक्तिगत जानकारियों की गोपनीयता के प्रति आश्वस्त पाए गए और लगभग आधे उत्तरदाता यह मानते  पाए गए कि सोशल मीडिया हमारी मानसिक और शारीरिक सेहत पर बुरा असर डालता है. इस बात की पुष्टि अमरीकी साइकीऐट्रिक एसोसिएशन ने भी कर दी.

और बातें केवल फिक्र करने तक ही सीमित नहीं हैं.  अपने देश में जहां हम हर सम्भव प्रयास कर रहे हैं कि ई बुक्स का चलन बढ़े, अमरीकी प्रकाशकों के संघ के अनुसार यह लगातार तीसरा बरस है जब अमरीका में पारम्परिक मुद्रित किताबों की बिक्री में वृद्धि नोट की गई है. यही नहीं वहां किताबों की दुकानें भी पिछले कई सालों से बढ़ती जा रही हैं. और बात सिर्फ किताबों तक ही सीमित नहीं है. भारत में चलन से करीब-करीब बाहर हो चुकीं विनाइल वाली एलपी रिकॉर्ड्स का चलन वहां बढ़ता जा रहा है और बताया जाता है कि अकेले अमरीका में हर सप्ताह कोई दो लाख विनाइल रिकॉर्ड्स बिक रही हैं. फिल्म वाले कैमरे, कागज़ की बनी नोटबुक्स, बोर्ड गेम्स आदि भी पहले से ज़्यादा खरीदे जाने लगे हैं.

संशयालु लोग कह सकते हैं कि यह सब पुराने के प्रति मोह यानि नोस्टाल्जिया की वजह से हो रहा है. लेकिन यही सच नहीं है. सच यह भी है कि बावज़ूद इस बात के कि डिजिटल सामग्री बहुत सस्ती होती है, लोग किताबों की तरफ इसलिए लौट रहे हैं कि उन्हें लगने लगा है कि किताब हाथ  में लेकर उसके स्पर्श, उसकी गंध, उसकी ध्वनि आदि का जो मिला-जुला अनुभव  आप पाते हैं वह डिजिटल में मुमकिन ही नहीं है. किसी किताब  को आप खरीद, बेच और भेंट में दे सकते हैं, उसके बहाने दोस्ती कर सकते हैं, और अगर पुरानी हिंदी फिल्मों को याद करें तो किताबों में ख़तों का आदान-प्रदान कर मुहब्बत तक कर सकते हैं. यह सुख डिजिटल में कहां?  इतना ही नहीं, गूगल जैसी अग्रणी और भविष्यवादी कम्पनी में भी  पिछले कई बरसो से यह रिवायत है कि वेब डिज़ाइनर्स को अपने किसी भी नए प्रोजेक्ट की पहली योजना कागज़ पर कलम से ही बनानी होती है. कम्पनी का सोच यह है कि स्क्रीन पर काम करने की तुलना में इस तरह से अधिक और बेहतर नए विचार उपजते हैं.

पश्चिम में डिजिटल से पीछे हटने के पक्ष में कुछ और बातों पर भी ध्यान दिया जाने लगा है, जैसे यह कि इससे संचालित सोशल मीडिया में बुरी भाषा का जितना प्रयोग होने लगा है वैसा प्रयोग पारम्परिक माध्यमों में नहीं होता है. इस बात को तो अब पूरी तरह स्वीकार कर ही लिया गया है कि डिजिटल माध्यम मानवीय सम्पर्क के खिलाफ़ जाते हैं, जबकि हमारी बेहतरी के लिए मानवीय सम्पर्कों का होना बेहद ज़रूरी हैं. लेकिन इन तमाम बातों के बावजूद  यह बात सभी स्वीकार करते हैं कि डिजिटल का पूरी तरह त्याग मुमकिन नहीं है. इसलिए अब एक ही विकल्प बचा है और वह यह कि इसका इस्तेमाल विवेकपूर्वक किया जाय और इसके अतिप्रयोग  से बचा जाए. पश्चिमी देश इसी दिशा में  प्रयासरत हैं.


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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्ग्त मंगलवार, 21 नवम्बर, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, November 14, 2017

लाओ, तुम्हारा कचरा हम खरीद लेते हैं!

अगर मैं बग़ैर किसी भूमिका के आपसे यह कहूं कि दुनिया में कम से कम एक देश ऐसा है जिसका संकट हमारी कल्पना से भी परे है, तो निश्चय ही आप चौंक जाएंगे. मैं बात कर रहा हूं एक करोड़ से कम आबादी वाले स्कैण्डिनेवियाई देश स्वीडन की. यह देश आजकल एक बड़े संकट के दौर से गुज़र रहा है, और संकट यह है कि इसके पास कूड़े की इतनी भीषण कमी हो गई है कि इसे अपने पड़ोसी देशों की ओर याचना भरी निगाहों से देखना पड़ रहा है. लेकिन इस बात में एक पेच और है. स्वीडन के पास कूड़े की कमी है, लेकिन यह देश पड़ोसी देशों से कूड़ा खरीद नहीं रहा है. उल्टे वे देश अपना कूड़ा लेने के उपकार के बदले स्वीडन को भुगतान कर रहे हैं. है ना ताज्जुब की बात!

दरअसल स्वीडन ने अपने कूड़े को बरबाद न कर उसको जलाकर अपने रीसाइक्लिंग संयंत्रों को  धधकाए रखने का एक बेहद कामयाब और प्रभावशाली तंत्र विकसित कर लिया है और इस तंत्र के कारण देश की आधी ऊर्जा ज़रूरतें पूरी हो जाती हैं. यहीं यह भी जान लें कि स्वीडन के कचरे का महज़ एक प्रतिशत ही है जो अनुपयोगी रहकर अपशिष्ट भराव क्षेत्रों में डाला जाता है. पिछले कुछ बरसों में स्वीडन ने अपनी राष्ट्रीय रीसाइक्लिंग नीति को इतना मुकम्मल बना लिया है कि बहुत सारी निज़ी कम्पनियां अपशिष्ट पदार्थों का संग्रहण कर उसे जलाकर जो ऊर्जा उत्पन्न करती है वह एक केंद्रीय हीटिंग नेटवर्क के माध्यम से ठिठुरते हुए मुल्क को सुखद ऊष्मा प्रदान करती है. स्वीडन ने 1991 से ही  से जीवाश्म ईंधन पर भारी कर लगाकर उसके प्रयोग को हतोत्साहित करने की नीति लागू कर रखी है. वहां की सरकार ने लोगों को इस बात के लिए भी पूरी तरह शिक्षित और प्रशिक्षित कर दिया है कि वे किसी भी किस्म का कचरा बाहर फेंकने की बजाय उसे रीसाइक्लिंग के लिए दे दिया करें. न सिर्फ इतना, स्वीडन की नगरपालिकाओं ने कचरा संग्रहण का काम भी इतना व्यवस्थित और सुगम कर दिया है कि उसके लिए  कम से कम श्रम और  प्रयत्न करना होता है. वहां की  रिहायशी  इमारतों में स्वचालित वैक्यूम सिस्टम लगा दिये गए हैं जिसके कारण कचरे के संग्रहण और उसे एक से दूसरी जगह ले जाने पर होने वाले खर्च में भी भारी कमी आ गई है. अब हालत यह हो गई है कि स्वीडन का सारा कचरा ऊर्जा पैदा करने में प्रयुक्त हो जाता है लेकिन स्वीडन ने कचरा जलाने के जो संयंत्र अपने देश में लगाए हैं उनकी क्षमता  इतनी ज़्यादा है कि उन्हें चलाए रखने के लिए स्वीडन का अपना कचरा कम पड़ रहा है. 

ऐसे में कुछ पड़ोसी देशों, विशेषकर नॉर्वे और इंगलैण्ड  से  कचरा आयात करके इन संयंत्रों को कार्यरत रखना पड़  रहा है. विदेशों से स्वीडन जो कचरा आयात करता है उसकी मात्रा में लगातार वृद्धि होती जा रही है. सन 2005 से अब तक यह  वृद्धि चार गुना हो  चुकी है. माना जाता है कि अभी लगभग 900 ट्रक कूड़ा प्रतिदिन आयात किया जा रहा है.   लेकिन इसमें भी मज़ेदार बात यह है कि क्योंकि स्वीडन के आस-पास के यूरोपीय यूनियन के अधिकांश देशों में लोगों को अपने कचरे को घर से बाहर डालने पर भारी जुर्माना अदा करना होता है, अत: ये देश उससे कम राशि स्वीडन को चुका कर अपने कचरे से निजात पा रहे हैं. इस तरह उन देशों को तो अपने कचरे से मुक्ति मिल ही रही है, स्वीडन भी जलाने योग्य कचरे की कमी के अपने संकट से मुक्ति पाने के साथ-साथ  कमाई भी कर  रहा है. स्वीडन की यह रीसाइक्लिंग नीति उसके पड़ोसी देशों के लिए भी अनुकरणीय साबित हो रही है लेकिन वे अभी तक कामयाबी के उस मुकाम तक नहीं पहुंच पाये हैं जो स्वीडन हासिल कर चुका है. मसलन, ब्रिटेन ने एक रीसाइक्लिंग नीति तो बना ली है लेकिन वह इतनी जटिल है कि वहां के नागरिक हमेशा भ्रमित ही रहते हैं.

लेकिन इससे यह न समझ लिया जाए कि स्वीडन अपनी व्यवस्थाओं से पूरी तरह संतुष्ट है. अब वहां इस बात पर विमर्श चल  रहा है कि संग्रहीत कचरे को जलाने की बजाय उसकी ठीक से छंटाई  कर उसे समुचित तरह से  रीसाइकल किया जाए ताकि कार्बन डाई ऑक्साईड के उत्सर्जन में कमी लाई जा सके. उल्लेखनीय है कि अभी 85 से 90 प्रतिशत कचरे को ऊर्जा उत्पादन के लिए जलाया जाता है और इस प्रक्रिया में काफी सीओ2 उत्सर्जन होता है.  


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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, दिनांक 14 नवम्बर, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Friday, November 10, 2017

पेरू में सौंदर्य प्रतियोगिता में उठी स्त्री हक़ की आवाज़

लातिन अमरीकी देशों में पेरू का एक विशेष स्थान है. मात्र 31.77 मिलियन की आबादी वाले इस देश ने अपनी आर्थिक नीतियों के सफल क्रियान्वयन से पूरी दुनिया के सामने एक मिसाल पेश की है. पिछले एक दशक में इस देश ने अपनी गरीबी की दर को घटा कर आधा कर लिया  है और इससे यहां के सत्तर लाख लोग जो कि आबादी का 22 प्रतिशत हैं, गरीबी से उबर चुके हैं.  लेकिन हाल में इस देश का नाम एक और वजह से सुनने को मिला. यह प्रकरण भी मिसाल पेश करने का ही है. यहां एक सौंदर्य प्रतियोगिता आयोजित होती है जिसमें पेरू सुंदरी (मिस पेरू) का चयन किया जाता है.

दुनिया के और बहुत सारे देशों की ही तरह पेरू में भी सौंदर्य प्रतियोगिताओं का एक सुनिश्चित तौर-तरीका है. अन्य बहुत सारे चयन उपक्रमों से गुज़रने के बाद चुनिंदा सुंदरियों को एक कतार में खड़ा किया जाता है और फिर उनमें से एक-एक करके आगे आती है और अपनी  देह के माप (वक्ष-कटि,नितम्ब) के आंकड़े उपस्थित विशिष्ट दर्शक समुदाय के सामने प्रस्तुत करती हैं. पेरू का यह समारोह वहां के राष्ट्रीय टीवी नेटवर्क पर भी सजीव प्रसारित होता है और इस बार के प्रसारण के लिए कहा जाता है कि वह वहां के सर्वाधिक देखे जाने वाले कार्यक्रमों में से एक था.

सब कुछ बहुत व्यवस्थित तरीके से चल रहा था. दर्शक भी शाम का भरपूर आनंद ले रहे थे. तभी सुंदरियों के माइक पर आने की घोषणा हुई और पहली सुंदरी ने आकर कहा, “मेरा नाम है कैमिला केनिकोबा. मैं लीमा का प्रतिनिधित्व कर रही हूं. मुझे यह बताना है कि मेरे देश में पिछले नौ बरसों में भ्रूण हत्या के 2202 केस दर्ज़ हुए हैं.” जो लोग 32-26-33 जैसे आंकड़े सुनने की  उम्मीद कर रहे थे उन्हें एक झटका तो लगना ही था. वे इस झटके से उबर पाते उससे पहले दूसरी सुंदरी माइक पर आई, और बोली: “मेरा नाम है कारेन क्यूटो और मैं लीमा का प्रतिनिधित्व करती हूं. मुझे यह बताना है कि मेरे देश में इस बरस 82 भ्रूण हत्याएं हुई हैं और 156 भ्रूण हत्याओं के प्रयास हुए हैं.” और इसके बाद तो जैसे एक सिलसिला ही बन गया. “अलमेंन्द्रा मेरोक़ुइन के  अभिवादन स्वीकार कीजिए. मैं कैनेट से हूं और बताना चाहती हूं कि 25 प्रतिशत लड़कियों और किशोरियों के साथ उनके स्कूलों में बदसुलूकी होती है.” बेल्जिका गुएरा ने कहा, “मुझे यह बताना है कि विश्वविद्यालयों की 65 प्रतिशत युवतियों के साथ उनके साथी ही बदसुलूकी करते हैं.”  और फिर आई रोमिना लोज़ानो: “मेरा आंकड़ा यह है कि सन 2014 से अब तक 3114 स्त्रियां अनुचित  बर्ताव की शिकार हुई हैं.” रोमिना को इस प्रतियोगिता की विजेता घोषित किया गया और वे इसी माह लास वेगस में आयोजित होने वाले मिस यूनिवर्स पेजेण्ट में अपने देश की नुमाइंदगी करेंगी.

बेशक प्रतियोगी युवतियों का यह कदम आकस्मिक नहीं, पूर्व नियोजित था. इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि जब ये सुंदरियां अपने आंकड़े प्रस्तुत कर रही थीं तब नेपथ्य में एक स्क्रीन पर अखबारों में छपी इसी तरह की खबरों की कतरनें दिखाई जा रही थीं. ज़ाहिर है कि ऐसा बिना पूर्व तैयारी के मुमकिन नहीं था. बाद में यह बात सामने आ भी गई कि इन युवतियों ने आयोजकों की सहमति से ही यह किया था. वैसे, पेरू में स्त्रियों  के खिलाफ हिंसा एक विकट समस्या मानी जाती है, और पिछले अगस्त में राजधानी लीमा में इसके खिलाफ एक बड़ा प्रदर्शन भी  हो चुका है. असल में तब घरेलू हिंसा का एक हाई प्रोफाइल मामला खूब  चर्चित रहा था जिसमें  एक वकील को उसका पूर्व बॉय फ्रैण्ड होटल के रिसेप्शन पर बालों से खींचता हुआ दर्शाया गया था. यह प्रदर्शन इतना ज़ोरदार था कि टाइम पत्रिका ने इसे अपने चुनिंदा सौ की सूची में शामिल किया था. तब से अनेक बार पेरू में स्त्रियों पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ आवाज़ें उठती रही हैं.

इस प्रतियोगिता के समापन खण्ड में हर प्रतियोगी के सामने यह सवाल रखा गया कि वे अपने स्तर पर स्त्रियों के खिलाफ़ होने वाली हिंसा को रोकने के लिए क्या करना चाहेंगी. इस सवाल के जवाबों के दौरान जहां यह बात सामने आई कि हर प्रतियोगी स्त्री के खिलाफ बदसुलूकी को बहुत गम्भीरता से लेती है, अनेक मौलिक और उपयोगी सुझाव भी सामने आए. इस कार्यक्रम के दर्शकों का खयाल है कि भले ही सौंदर्य प्रतियोगिताएं स्त्री को एक वस्तु के रूप में पेश करती हैं और इनका अपना व्यावसायिक एजेण्डा  होता है, इन्हें बहुत बड़ा समुदाय रुचि पूर्वक देखता है और इसलिए इस मंच से स्त्री पर होने वाले अत्याचारों-अनाचारों  का मुखर विरोध जन चेतना जगाने के लिहाज़ से बहुत महत्व रखता है. सौंदर्य प्रतियोगिता में आयोजकों की सहमति से इस तरह का प्रतिरोध कर पेरू की सुंदरियों ने पूरी दुनिया के सामने एक मिसाल कायम की है, और इस मिसाल को  सर्वत्र सराहा जा रहा है.  

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत शुक्रवार, 10 नवम्बर, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.