1971 में बनी और बाद में राष्ट्रीय एवम
एकाधिक फिल्मफेयर पुरस्कारों से नवाज़ी गई फ़िल्म ‘आनंद’ में गीतकार योगेश का लिखा एक अदभुत गीत था: “ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय/ कभी
तो हंसाये, कभी ये रुलाये”. गीतकार ने इसी गीत में आगे लिखा
था, “कभी देखो मन नही जागे/ पीछे पीछे सपनों
के भागे/ एक दिन सपनों का राही/ चला जाए सपनों के आगे कहां” और इसी भाव का विस्तार हुआ था आगे
के बंद में: “जिन्होंने सजाये यहां मेले/
सुख दुख संग संग झेले/ वही चुनकर खामोशी/ यूँ चले जाये अकेले कहां”. अच्छे कवि की
सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि वह बड़े सरल शब्दों में ऐसी बात कह जाता है जो
देश-काल की सीमाओं का अतिक्रमण कर जाती है. अब देखिये ना, हाल में सात समुद्र पार अमरीका में एक साधारण परिवार पर जो बीती उसे यह गीत
किस कुशलता से घटना के करीब पांच दशक पहले व्यक्त कर गया था!
पश्चिमी मिशिगन राज्य के एक सामान्य
परिवार की असामान्य कथा है यह. बात मार्च माह की है. निक डेक्लेन की सैंतीस
वर्षीया पत्नी केरी डेक्लेन की तबीयत कुछ ख़राब रहने लगी थी. डॉक्टर की सलाह पर कुछ
परीक्षण करवाए गए तो एक बहुत बड़ा आघात उनकी प्रतीक्षा में था. केरी को
ग्लियोब्लास्टोमा नामक एक भयंकर आक्रामक किस्म का दिमाग़ी कैंसर था. भयंकर इसलिए कि
इसे करीब-करीब लाइलाज़ माना जाता है और अगर समुचित इलाज़ किया जा सके तो भी मरीज़
औसतन एक से डेढ़ साल जीवित रह पाता है. लेकिन
इलाज़ तो करवाना ही था. एक शल्य क्रिया द्वारा अप्रेल में केरी के दिमाग का ट्यूमर
निकाल दिया गया. मुश्क़िल से दो माह बीते थे कि इस युगल को दो और ख़बरें मिलीं! पहली
तो यह कि केरी का ट्यूमर फिर उभर आया था, और दूसरी यह कि उसे आठ
सप्ताह का गर्भ था! स्वाभाविक है कि ट्यूमर के उपचार के लिए कीमोथैरेपी का सहारा
लिया जाता. लेकिन इसमें एक पेंच था. कीमोथैरेपी से गर्भस्थ शिशु को नुकसान पहुंचता
है इसलिए इस उपचार से पहले गर्भपात करवाने का फैसला करना था. इस युगल के सामने एक दोराहा था: या तो मां केरी के हित में अजन्मे शिशु की बलि
दी जाए, या अजन्मे शिशु के पक्ष में केरी अपने मृत्यु पत्र
पर हस्ताक्षर करे! जैसे ही यह ख़बर समाचार माध्यमों में आई, पूरे
अमरीका में इस पर बहसें होने लगीं. लेकिन फैसला तो इस युगल को ही करना था! क्योंकि
केरी अपनी धार्मिक आस्थाओं की वजह से गर्भपात विरोधी विचार रखती थी, यही तै किया गया कि अजन्मे शिशु को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया जाए! यह भी
जान लें कि डेक्लेन दम्पती के पांच
संतानें पहले से हैं जिनकी आयु क्रमश: 18, 16, 11, 4 और 2
बरस है.
फैसला हो गया तो
बेहतर का इंतज़ार करना था. लेकिन जुलाई मध्य में केरी की तबीयत फिर खराब हुई और उसे
अस्पताल ले जाना पड़ा. वो दर्द से तड़प रही थी. बताया गया कि उसे एक ज़ोरदार दौरा पड़ा
है. तब उसका गर्भ उन्नीस सप्ताह का हो चुका था. केरी अस्पताल के पलंग पर लेटी थी
और एक नली और सांस लेने में मददगार मशीन की सहायता से बेहोशी के बावज़ूद ज़िंदा रखी
जा रही थी. उसके दिमाग को गम्भीर क्षति पहुंच चुकी थी और इस बात की उम्मीद बहुत कम
थी कि ठीक होकर भी वह किसी को पहचान
सकेगी. कुछ समय बाद उसे एक और दौरा पड़ा. तब उसका गर्भ 22 सप्ताह का हो चुका
था और चिंता की बात यह थी की शिशु का वज़न मात्र 378 ग्राम था जबकि उसे कम से कम
500 ग्राम होना चाहिए था. डॉक्टर अपना प्रयास ज़ारी रखे थे. दो सप्ताह और बीते, और एक अच्छी ख़बर आई कि शिशु का वज़न बढ़कर 625 ग्राम हो गया है. लेकिन इसी के
साथ एक चिंता पैदा करने वाली खबर भी थी, कि शिशु तनिक भी हिल-डुल
नहीं रहा है. डॉक्टरों के पास एक ही विकल्प था कि सिज़ेरियन ऑपरेशन से शिशु को
दुनिया में लाया जाए! यही किया गया और छह सितम्बर को इस दुनिया में एक और बेटी
अवतरित हुई, जिसका नाम उसके
मां-बाप की इच्छानुसार रखा गया: लाइफ़. मात्र छह दिन बाद केरी ने इस दुनिया
को अलविदा कह दिया!
लेकिन जीवन की असल
विडम्बना तो सामने तब आई जब मात्र 14 दिन यह दुनिया देखकर लाइफ़ ने भी आंखें मूंद
लीं! इन आघातों से टूटे-बिखरे पिता निक ने अपनी प्यारी पत्नी केरी की कब्र खुदवाई ताकि बेटी को भी मां के पास ही आश्रय मिल
सके. निक का कहना है कि उसे समझ में नहीं आता कि ईश्वर ऐसे अजीबो-ग़रीब काम क्यों
करता है! वह कहता है कि जब भी उसे मौका मिलेगा, वो ईश्वर से इस सवाल
का जवाब मांगेगा. और तब तक वो अपने बच्चों को पालता पोसता रहेगा.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 03 अक्टोबर, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.
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