Tuesday, October 31, 2017

जनसंख्या की कमी से जूझ रहा है इटली

जब भी अपने देश की समस्याओं की चर्चा होती है, बात घूम फिरकर इस बिंदु पर आ टिकती है कि हमारे देश की आधारभूत समस्या इसकी विशाल जनसंख्या है. आज़ादी के बाद अनेक प्रकार से जनसंख्या को नियंत्रित करने का प्रयास हुए हैं और उन प्रयासों को कामयाबी भी मिली है लेकिन देश के संसाधनों के अनुपात में जनसंख्या इतनी अधिक है कि वे प्रयास ऊंट के मुंह में जीरे वाली कहावत को चरितार्थ करने से आगे नहीं बढ़ पाते हैं. इस बात का उल्लेख करते हुए अगर मैं आपसे कहूं कि एक देश ऐसा भी है जो हमसे एकदम उलट समस्या से जूझ रहा है, तो क्या आप मेरी बात पर विश्वास करेंगे? इटली का नाम तो आपने सुना ही है.  पिछले कई दशकों से यह देश निरंतर घटती हुई जनसंख्या से त्रस्त है. इस देश में और विशेष रूप से इसके ऐतिहासिक महत्व के छोटे शहरों में जनसंख्या इतनी कम होती जा रही है कि वहां के प्रशासकों को अनेक अजीबोगरीब नुस्खे आजमाने पड़ रहे हैं! इटली की सरकार ने अपने मुल्क के बहुत सारे छोटे लेकिन खूबसूरत शहरों को सप्ताहांत  के आमोद-प्रमोद के लिए आदर्श ठिकानों के रूप में प्रचारित करना शुरु किया है. मात्र बारह स्थायी निवासियों वाला लाज़ियो ऐसा ही एक शहर है.  प्रचार का सुपरिणाम यह हुआ है कि पहले जहां इस शहर को देखने मात्र चालीस हज़ार लोग आते थे, अब उनकी संख्या बढ़कर आठ लाख प्रतिवर्ष हो गई है. कुछ शहरों के पुराने घरों  को होटलों में तब्दील कर पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र बनाया जा रहा है. कुछ शहर ऐसे भी हैं जो विज्ञापन देकर शरणार्थियों को अपने यहां बुला  रहे हैं. कैलाब्रिया नामक एक शहर ने तो बाकायदा यह घोषित कर दिया है कि शरणार्थी ही इटली की अर्थव्यवस्था का भविष्य हैं. यानि मंज़र कुछ-कुछ वैसा ही है जैसा हम लोग अपने देश में कस्बों के बस स्टैण्डों पर देखते हैं जहां टैक्सी वाले यात्रियों को खींच खांचकर अपनी गाड़ियों में ठूंसने की कोशिश में लगे रहते हैं.

इसी इटली का एक बहुत छोटा लेकिन बेहद खूबसूरत शहर है कैण्डेला. अपनी दिलकश इमारतों और ऐतिहासिक किलों के लिए सुविख्यात इस शहर को पर्यटक और स्थानीय निवासी लिटिल नेपल्स कहकर गर्वित हुआ करते थे. यह याद दिलाने की ज़रूरत नहीं है कि नेपल्स जिसे इतालवी में नेपोलि बोला जाता है इटली का तीसरा सबसे बड़ा शहर है और दक्षिण-पश्चिमी तट पर बसा है.  यह एक यूनानी उपनिवेश हुआ करता था जो ईसा पूर्व चौथी सदी में रोमन साम्राज्य  का अंग बन गया था. फिर यह  रोमनों के पतन के बाद जर्मन और इसके बाद सोलहवीं सदी में स्पेन के शासनाधीन रहा. इस शहर की ख्याति इसके भव्य स्थापत्य  और कलात्मक वैभव के लिए रही है.  यूनेस्को ने इसे विश्व विरासत स्थल के रूप में मान्यता दे रखी है. तो, नब्बे के दशक में इस कैण्डेला शहर की आबादी लगभग आठ हज़ार थी लेकिन निरंतर गिरती जा रही अर्थ व्यवस्था और घटते जा रहे नौकरी के अवसरों के कारण ज़्यादातर युवा इस शहर को छोड़कर अन्यत्र जा बसे  और शहर की आबादी घटकर मात्र दो हज़ार सात सौ रह गई है. इस आबादी में वृद्धजन ज़्यादा हैं. जनसंख्या की इस कमी का असर शहर की अर्थव्यवस्था और समग्र परिवेश पर भी पड़ा है. और इसी से चिंतित होकर कैण्डेला के मेयर ने एक ऐसी घोषणा की है जो कम से कम हमारे लिए तो बेहद चौंकाने वाली है. मेयर निकोला गट्टा ने दूसरी जगहों  से आकर इस शहर में बसने वालों के लिए नकद प्रोत्साहन राशि  देने की घोषणा की है. उनकी घोषणा के अनुसार सिंगल्स को इस शहर में आकर रहने पर 800 यूरो (भारतीय मुद्रा में लगभग  61 हज़ार रुपये), कपल्स को 1200 यूरो (92 हज़ार रुपये) और परिवार के साथ आने वालों को 2000 यूरो (करीब डेढ़ लाख रुपये) दिये जाएंगे. वैसे कैण्डेला  के मेयर ने हाल में  जैसी घोषणा की है वैसी घोषणा बोर्मिडा के मेयर पहले ही कर चुके हैं. उन्होंने अपने शहर में आ बसने वालों को दो हज़ार यूरो देने की घोषणा की थी, लेकिन उस घोषणा पर लोग इतनी  भारी संख्या में टूट पड़े कि मेयर महोदय को अपनी घोषणा वापस लेनी पड़ी. शायद इस प्रकरण से सबक लेते हुए कैण्डेला के मेयर महोदय ने अपनी घोषणा के साथ ये शर्तें भी जोड़ दी हैं कि ये लाभ तभी देय होंगे जब कोई इस शहर का स्थायी बाशिंदा बनने के लिए वचनबद्ध होगा, यहां एक मकान किराये पर लेगा और उसकी सालाना आमदनी कम से कम साढे सात  हज़ार यूरो होगी. इस प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए छह परिवार अब तक यहां आ चुके हैं और पांच अन्य परिवार आने की प्रक्रिया में हैं. उम्मीद और कामना की जानी चाहिए कि कैण्डेला शहर अपना खोया वैभव फिर से प्राप्त कर लेगा.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 31 अक्टोबर, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, October 24, 2017

किस्सा विकट संगीत प्रेमियों और उनसे त्रस्त नागरिकों का

क्या किसी संगीत-प्रेमी युगल का अपनी मोटर कार में स्टीरियो बजाना इतना बड़ा मुद्दा है कि अदालत को अपना कीमती वक़्त खर्च करते हुए उससे जिरह करनी पड़े और आखिरकार हस्तक्षेप करने को बाध्य होना पड़े? हाल में कनाडा के एक  शहर में जो कुछ घटित हुआ उससे तो यही लगता है कि यह मामला बहुत साधारण और नज़र अंदाज़ करने काबिल नहीं है. इस शहर में रहता है एक चौबीस वर्षीय युवा जिसका नाम है डस्टिन हैमिल्टन. डस्टिन न केवल संगीत प्रेमी है ध्वनि तकनीक का भी विशेषज्ञ है. उसने संगीत का बेहतरीन लुत्फ़  लेने के लिए अपनी क्रूज़र गाड़ी को आधुनिकतम ध्वनि उपकरणों से सज्जित कर रखा है. इस तकनीक में उसकी विशेषज्ञता का आलम यह है कि एक ऑटो साउण्ड प्रतियोगिता में उसे स्वर्ण  पदक तक मिल चुका है.  हैमिल्टन एक ख़ास किस्म के हड्डियों के रोग से ग्रस्त है जिसकी वजह से उसकी रीढ़ की हड्डी को गहरी क्षति पहुंची है. लेकिन यह पदक उसे इतना धिक प्रिय है कि तमाम असुविधाओं के बावज़ूद वो हमेशा इस पदक को अपने गले में लटकाए रहता है. डस्टिन वैंकूवर के सेण्ट्रल सानिच शहर में रहता है. उसकी गर्लफ्रैण्ड कैटरीना भी उसके साथ रहती है और संगीत से उसे भी बहुत गहरा लगाव है.

दरअसल डस्टिन और कैटरीना को बहुत ऊंची आवाज़ में संगीत सुनने का शौक है. कहा जाता है कि जब वे अपनी गाड़ी लेकर  निकलते हैं तो उससे निकलने वाली संगीत की ध्वनियां  इतनी ज़बर्दस्त होती हैं कि आस-पास के घरों के फर्श थरथराने लगते हैं, घरों की दीवारों पर लटकी तस्वीरें कांपने लगती हैं, टेबल पर रखे कॉफी मग नीचे गिर पड़ते हैं और घरों में रह रहे पालतू जानवर भयभीत हो उठते हैं. अगर रात का वक़्त हो तो डर के मारे गहरी नींद में डूबे बच्चों की चीखें निकल पड़ती हैं. और यह सब रोज़मर्रा की बातें होती हैं. स्वाभविक ही है कि इससे उस शहर के बाशिंदे परेशान हैं. हैमिल्टन  के घर से उनके दफ्तर के बीच रहने वाले नागरिक पिछले कुछ ही समय में उनके खिलाफ कम से कम सत्रह शिकायतें पुलिस में दर्ज़ करवा चुके हैं. इन शिकायतों पर गौर करते हुए स्थानीय पुलिस ने दो बार इस युगल को चेतावनी भी दी कि वे अपनी गाड़ी के साउड सिस्टम का वॉल्यूम धीमा रखा करें, लेकिन जब इन चेतावनियों का उन पर कोई असर नहीं हुआ तो पुलिस को उन्हें पाबंद करना पड़ा कि वे अपनी गाड़ी में स्टीरियो बजाएं ही नहीं. हैमिल्टन इस आदेश से सहमत नहीं था इसलिए वो अदालत में पेश हुआ और जब उससे पूछा गया कि उसे अदालती आदेश मानने में क्या दिक्कत है तो उसका कहना था कि संगीत से उसे बेपनाह मुहब्बत है, वो जो कुछ भी करता है संगीत के लिए ही करता है. असल में संगीत ही उसका जीवन है. उसने अदालत को यह भी बताया कि सैंकड़ों घण्टों की मेहनत से उसने अपनी गाड़ी में यह साउण्ड सिस्टम  फिट किया है और इस सिस्टम को खरीदने के लिए उसे अपनी गर्लफ्रैण्ड की सारी जमा पूंजी भी खपा देनी पड़ी है. ऐसे में संगीत न सुनने का आदेश भला वो कैसे मान सकता है? अदालत ने उससे यह भी अनुरोध किया कि वो दफ़्तर जाने का अपना रास्ता बदल ले ताकि उस इलाके के बाशिंदों  की शिकायत दूर हो सके. यहीं यह भी याद दिलाता चलूं कि इसी सोच के तहत उसकी गर्लफ्रैण्ड अपनी एक नौकरी छोड़ कर दूसरी नौकरी करने लगी है ताकि वह हैमिल्टन के साथ ही काम पर  जा सके.

पुलिस ने हैमिल्टन और कैटरीना के इस विकट संगीत प्रेम पर रोक लगाने के लिए अदालत के सामने एक और तर्क रखा है  जो खासा वज़नदार है.  पुलिस का कहना है कि इन लोगों की गाड़ी से निकलने वाले संगीत की तेज़ आवाज़ से वहां के बाशिंदे इतने ज़्यादा त्रस्त हैं कि वे लोग अब इनकी गाड़ी का पीछा तक करने लगे हैं. पुलिस को डर है कि कहीं ऐसा न हो कि हैमिल्टन और कैटरीना उन लोगों के हत्थे चढ़ जाए और वे लोग इन्हें कोई गम्भीर शारीरिक क्षति पहुंचा दें. यानि पुलिस ने इन लोगों की सुरक्षा का तर्क देते हुए भी इनके संगीत प्रेम पर नियंत्रण लगाने का अनुरोध किया है.

अब देखना है कि अगली पेशी पर अदालत किसके हक़ में फैसला सुनाती है! फिलहाल हैमिल्टन और कैटरीना अपने संगीत प्रेम पर अटल और अविचलित हैं. कैटरीना कहना है कि वो दस बरस से इस इलाके में रह रही है और उसे तेज़ आवाज़ में ही संगीत सुनने का आदत है, जबकि हैमिल्टन इस सारे विवाद को  बेहूदा करार देते हैं और अपनी कार को उस इलाके की सबसे उम्दा सांगीतिक कार बताते हुए कहते हैं कि इससे निकलने वाला संगीत उन्हें किसी सिम्फ़नी जैसा लगता है!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 24 अक्टोबर, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, October 10, 2017

जब बाज़ार में आने को थी बच्चे पालने वाली मशीन

कुछ माह पहले जानी-मानी खिलौना निर्माता कम्पनी मैटल ने घोषणा की थी कि वो बहुत जल्दी एक बेबी सिटर किस्म का उपकरण ज़ारी करेगी जो कृत्रिम बुद्धि (आर्टिफिशयल इण्टेलीजेंस- एआई) पर आधारित होगा. कम्पनी के अनुसार एरिस्टोटल (अरस्तू) नामक यह उपकरण ध्वनि नियंत्रित एक स्मार्ट शिशु मॉनिटर के रूप में डिज़ाइन किया जा रहा था. इस उपकरण का घोषित मकसद था माता-पिताओं को शिशुओं के संरक्षण, सुरक्षा और लालन पालन में मदद करना. लेकिन कम्पनी इस उपकरण को ज़ारी कर पाती उससे पहले ही अमरीका में बहुत सारे स्वैच्छिक संगठन और राजनेता इस उपकरण के विरोध में एकजुट हो गए और उनका दबाव इतना प्रबल रहा कि अंतत: कम्पनी को यह घोषणा करनी पड़ी कि वो इस उपकरण को बाज़ार में उतारने का अपना इरादा छोड़ चुकी है.

प्रारम्भ में कम्पनी ने कहा था कि यह उपकरण शिशुओं को बाल कथाएं और लोरियां सुनाएगा और ज़रूरत पड़ी तो उन्हें वर्णमाला भी सिखाएगा. इतना ही नहीं, अगर शिशु रात को रोया तो उसे चुप भी कराएगा. स्वाभाविक रूप से उपकरण के ये उपयोग आकर्षक थे.  लेकिन बाद में यह बात मालूम पड़ी कि इसमें बेबी मॉनिटर के रूप में एक कैमरा लगा होगा जो शिशु की गतिविधियों और उसके परिवेश को रिकॉर्ड करेगा. इतना ही नहीं यह बात भी सामने आई कि इन सबके आधार पर यह उपकरण बच्चों के काम आने वाली उपभोक्ता सामग्री जैसे मिल्क पाउडर, डायपर वगैरह के लिए उपलब्ध डील्स और कूपन्स की जानकारी प्रदान करने के साथ चेतावनी भी देगा कि घर में शिशु के काम की अमुक सामग्री का स्टॉक चुकने को है. शायद यही व्यावसायिक पहलू था जिसने अमरीका स्थित निजता के लिए चिंतित एक्टिविस्टों और विशेष रूप से एक अलाभकारी संगठन कमर्शियल फ्री चाइल्डहुड के कान खड़े किए. अपनी पड़ताल के बाद उन्होंने  इस उपकरण के विरोध में पंद्रह हज़ार लोगों के हस्ताक्षर जुटाये और  दो-टूक लहज़े में कहा कि “यह एरिस्टोटल कोई नैनी नहीं बल्कि एक घुसपैठिया है. हम चाहते हैं कि शिशुओं के कमरे कॉर्पोरेट जासूसी से बचे रहें”. इस संगठन की आपत्ति को ही आगे बढ़ाते हुए सीनेटर एडवर्ड जे मारके और रिप्रेजेण्टेटिव जोए बार्टन सहित अमरीका के बहुत सारे राजनीतिज्ञों ने भी इस बात पर सवाल खड़े किए कि यह  उपकरण जो डेटा एकत्रित करेगा उसका इस्तेमाल किस तरह किया जाएगा और उसे किस तरह सुरक्षित रखा जाएगा?

एरिस्टोटल के इस विरोध के अलावा भी दुनिया के बहुत सारे देशों में समझदार लोग बाज़ार में उतारी जाने वाली स्मार्ट डिवाइसेज़ के बच्चों  पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों को लेकर चिंतित  हैं. उनका सोच है कि इस तरह के उपकरण बच्चों के भावनात्मक विकास में रुकावट डालते हैं. कुछ और लोगों की आपत्ति यह भी है कि इस तरह के  उपकरण बच्चों के अपने अभिभावकों से मानवीय सम्बंधों को विस्थापित कर उसकी जगह तकनीक से उनका रिश्ता कायम करने का ख़तरनाक काम करते हैं. इसी आपत्ति को एक जाने-माने शिशु रोग विशेषज्ञ ज़ेनिफर राडेस्की ने अपने एक लेख में यह कहते हुए बल प्रदान किया कि “इस तकनीक के बारे में निजता के महत्वपूर्ण मुद्दे के अलावा मेरी मुख्य चिंता इस बात को लेकर है कि जब कोई शिशु रोएगा, खेलना या कुछ सीखना चाहेगा  तो तकनीक का एक टुकड़ा उसकी आवाज़ सुनने वाला घर का सबसे ज़िम्मेदार और उत्तरदायी सदस्य बनकर उभरेगा.यंत्र द्वारा मनुष्य को विस्थापित कर देने के इस ख़तरे को कम करके नहीं देखा जाना चाहिए.

इसी के साथ यह याद कर लेना भी उपयुक्त होगा वॉइस एक्टिवेटेड इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के दुष्प्रभाव सारी दुनिया में चिंता का कारण बनते जा रहे हैं. बहुत सारे अध्ययन हुए हैं जो बताते हैं कि अब तो बच्चे रोबोट्स को दिमागी समझ रखने वाला  सामाजिक प्राणी तक मानने लगे हैं और उनसे ऐसा बर्ताव करने लगे हैं जैसे वे मानवीय प्राणी हों. बहुत सारे मां-बाप यह भी चिंता करने लगे हैं कि नए ज़माने के स्मार्टफोन्स और टेबलेट्स आवाज़ के निर्देश पर काम करने की अपनी तकनीक की वजह से उनके बच्चों के साथ बहुत कम उम्र में ही घनिष्ट रिश्ता कायम करने लगे हैं. एक बड़ी कम्पनी द्वारा बाज़ार में उतारे गए आवाज़ के निर्देशों पर संचालित होने वाले एलेक्सा नामक उपकरण के उपयोग के प्रभावों का अध्ययन करने वालों ने यह पाया कि इस उपकरण का प्रयोग करने वाले बच्चे प्लीज़ और थैंक यू जैसी अभिव्यक्तियों को भूलते जा रहे हैं और अशालीन होते जा रहे हैं. यह सारा प्रसंग हम सबको भी यह सोचने के लिए बाध्य करता है कि हमारे जीवन में तकनीक की बढ़ती जा रही घुसपैठ हमारे लिए किस सीमा तक स्वीकार्य होनी चाहिए. ऐसा न हो कि जिस चीज़ को आज हम सुविधा के तौर पर इस्तेमाल करना शुरु कर रहे हैं कल को वही हमारे विनाश का सबब बन जाए!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 10 अक्टोबर, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, October 3, 2017

सपनों का राही चला जाए सपनों के आगे कहां

1971 में बनी और बाद में राष्ट्रीय एवम एकाधिक फिल्मफेयर पुरस्कारों से नवाज़ी गई फ़िल्म आनंदमें गीतकार योगेश का लिखा एक अदभुत गीत था:  “ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय/ कभी तो हंसाये, कभी ये रुलाये”. गीतकार ने इसी गीत में आगे लिखा था, “कभी देखो मन नही जागे/ पीछे पीछे सपनों के भागे/ एक दिन सपनों का राही/ चला जाए सपनों  के आगे कहां” और इसी भाव का विस्तार हुआ था आगे के बंद में: “जिन्होंने सजाये यहां  मेले/ सुख दुख संग संग झेले/ वही चुनकर खामोशी/ यूँ चले जाये अकेले कहां”. अच्छे कवि की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि वह बड़े सरल शब्दों में ऐसी बात कह जाता है जो देश-काल की सीमाओं का अतिक्रमण कर जाती है. अब देखिये ना, हाल में सात समुद्र पार अमरीका में एक साधारण परिवार पर जो बीती उसे यह गीत किस कुशलता से घटना के करीब पांच दशक पहले व्यक्त कर गया था!

पश्चिमी  मिशिगन राज्य के  एक सामान्य  परिवार की असामान्य कथा है यह. बात मार्च माह की है. निक डेक्लेन की सैंतीस वर्षीया पत्नी केरी डेक्लेन की तबीयत कुछ ख़राब रहने लगी थी. डॉक्टर की सलाह पर कुछ परीक्षण करवाए गए तो एक बहुत बड़ा आघात उनकी प्रतीक्षा में था. केरी को ग्लियोब्लास्टोमा नामक एक भयंकर आक्रामक किस्म का दिमाग़ी कैंसर था. भयंकर इसलिए कि इसे करीब-करीब लाइलाज़ माना जाता है और अगर समुचित इलाज़ किया जा सके तो भी मरीज़ औसतन एक से डेढ़ साल जीवित रह पाता  है. लेकिन इलाज़ तो करवाना ही था. एक शल्य क्रिया द्वारा अप्रेल में केरी के दिमाग का ट्यूमर निकाल दिया गया. मुश्क़िल से दो माह बीते थे कि इस युगल को दो और ख़बरें मिलीं! पहली तो यह कि केरी का ट्यूमर फिर उभर आया था, और दूसरी यह कि उसे आठ सप्ताह का गर्भ था! स्वाभाविक है कि ट्यूमर के उपचार के लिए कीमोथैरेपी का सहारा लिया जाता. लेकिन इसमें एक पेंच था. कीमोथैरेपी से गर्भस्थ शिशु को नुकसान पहुंचता है इसलिए इस उपचार से पहले गर्भपात करवाने का फैसला करना था.  इस युगल के सामने एक दोराहा था:  या तो मां केरी के हित में अजन्मे शिशु की बलि दी जाए, या अजन्मे शिशु के पक्ष में केरी अपने मृत्यु पत्र पर हस्ताक्षर करे! जैसे ही यह ख़बर समाचार माध्यमों में आई, पूरे अमरीका में इस पर बहसें होने लगीं. लेकिन फैसला तो इस युगल को ही करना था! क्योंकि केरी अपनी धार्मिक आस्थाओं की वजह से गर्भपात विरोधी विचार रखती थी, यही तै किया गया कि अजन्मे शिशु को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया जाए! यह भी जान लें कि डेक्लेन  दम्पती के पांच संतानें पहले से हैं जिनकी आयु क्रमश: 18, 16, 11, 4 और 2 बरस है.

फैसला हो गया तो बेहतर का इंतज़ार करना था. लेकिन जुलाई मध्य में केरी की तबीयत फिर खराब हुई और उसे अस्पताल ले जाना पड़ा. वो दर्द से तड़प रही थी. बताया गया कि उसे एक ज़ोरदार दौरा पड़ा है. तब उसका गर्भ उन्नीस सप्ताह का हो चुका था. केरी अस्पताल के पलंग पर लेटी थी और एक नली और सांस लेने में मददगार मशीन की सहायता से बेहोशी के बावज़ूद ज़िंदा रखी जा रही थी. उसके दिमाग को गम्भीर क्षति पहुंच चुकी थी और इस बात की उम्मीद बहुत कम थी कि ठीक होकर भी वह किसी को पहचान  सकेगी. कुछ समय बाद उसे एक और दौरा पड़ा. तब उसका गर्भ 22 सप्ताह का हो चुका था और चिंता की बात यह थी की शिशु का वज़न मात्र 378 ग्राम था जबकि उसे कम से कम 500 ग्राम होना चाहिए था. डॉक्टर अपना प्रयास ज़ारी रखे थे. दो सप्ताह और बीते, और एक अच्छी ख़बर आई कि शिशु  का वज़न बढ़कर 625 ग्राम हो गया है. लेकिन इसी के साथ एक चिंता पैदा करने वाली खबर भी थी, कि शिशु तनिक भी हिल-डुल नहीं रहा है. डॉक्टरों के पास एक ही विकल्प था कि सिज़ेरियन ऑपरेशन से शिशु को दुनिया में लाया जाए! यही किया गया और छह सितम्बर को इस दुनिया में एक और बेटी अवतरित हुई, जिसका नाम उसके  मां-बाप की इच्छानुसार रखा गया: लाइफ़. मात्र छह दिन बाद केरी ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया!

लेकिन जीवन की असल विडम्बना तो सामने तब आई जब मात्र 14 दिन यह दुनिया देखकर लाइफ़ ने भी आंखें मूंद लीं! इन आघातों से टूटे-बिखरे पिता निक ने अपनी प्यारी पत्नी केरी की कब्र खुदवाई ताकि बेटी को भी मां के पास ही आश्रय मिल सके. निक का कहना है कि उसे समझ में नहीं आता कि ईश्वर ऐसे अजीबो-ग़रीब काम क्यों करता है! वह कहता है कि जब भी उसे मौका मिलेगा, वो ईश्वर से इस सवाल का जवाब मांगेगा. और तब तक वो अपने बच्चों को पालता पोसता  रहेगा.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 03 अक्टोबर, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.