अमरीका के क्लीवलैण्ड की
अदालत ने एविन किंग नामक एक उनसठ वर्षीय व्यक्ति को बाइज़्ज़त बरी कर दिया है. एविन
अपनी गर्ल फ्रैण्ड क्रिस्टल हडसन की हत्या के इलज़ाम में तेईस बरसों से जेल में था. क्रिस्टल का शव जून 1994 में उनके अपार्टमेण्ट
की एक अलमारी में पाया गया था. अदालत के
दस्तावेज़ों के अनुसार जब क्रिस्टल का शव वहां पाया गया तब एविन किंग भी वहीं मौज़ूद
थे और उनका एक जैकेट उसी अलमारी में शव के पास मिला था. क्रिस्टल की मृत्यु पीटने
और गला दबाने से हुई थी. उनके साथ दुराचार किये जाने के प्रमाण भी मिले थे. क्रिस्टल हडसन के शव पर
वीर्य और उनकी उंगलियों के नाखूनों में किसी अन्य व्यक्ति की त्वचा की कोशिकाएं
पाई गई थीं. उस समय अदालत ने वैज्ञानिक सबूतों, अपार्टमेण्ट में एविन किंग
की मौज़ूदगी और उनके बयानों की असंगतता इन सबको
अपने फैसले का आधार बनाया. कुल मिलाकर यह कहानी बनाई गई कि क्रिस्टल ने
किसी अन्य व्यक्ति से दैहिक सम्बंध बनाए थे और एविन किंग ने उनकी हत्या की थी. इस
कथा का आधार यह बात थी कि पाए गए वीर्य का मिलान एविन से नहीं हुआ और त्वचा की
कोशिकाओं की जांच की कोई तकनीक तब उपलब्ध नहीं थी. एविन किंग को आजन्म कारावास की
सज़ा सुना दी गई.
इसके बावज़ूद एविन किंग
बार-बार कहता रहा कि वह बेगुनाह है. उसकी गुहार अदालत ने तो नहीं सुनी, लेकिन लेकिन
सन 2003 में शुरु हुए ओहियो इन्नोसेंस प्रोजेक्ट के लोग उसकी मदद के लिए आगे आए.
प्रोजेक्ट के लोगों का मानना है कि
फोरेंसिक साइंस का असंगत इस्तेमाल ग़लत
फैसलों का दूसरा सबसे बड़ा कारण है. उनकी दलील थी कि डीएनए टेस्टिंग के क्षेत्र में
हुई प्रगति की वजह से इस फैसले पर पुनर्विचार करना आवश्यक हो गया है. इन्हीं
आधारों पर इन्नोसेंस प्रोजेक्ट वाले पूरे देश में कोई साढ़े तीन सौ मामलों में
पुनर्विचार की गुहार लगा रहे हैं. प्रोजेक्ट के लोगों के सतत प्रयासों की वजह से
2009 में प्रमाणों की फिर से डीएनए टेस्टिंग की गई और उसमें यह पाया गया कि वीर्य
और त्वचा कोशिकाएं एक ही व्यक्ति की थीं और वह व्यक्ति एविन किंग नहीं था. लेकिन
जांच के इस परिणाम को भी आसानी से स्वीकार नहीं किया गया. अभियोग पक्ष एविन किंग
की सज़ा को ज़ारी रखने की ज़िद करता रहा और एक काउण्टी जज महोदय ने नई सुनवाई की
अनुमति देने तक से इंकार कर दिया. लेकिन, जैसा प्राय: कहा
जाता है, आखिरकार सच की जीत हुई. ओहियो इन्नोसेंस प्रोजेक्ट
अब तक पच्चीस लोगों को इस तरह का न्याय दिला पाने में कामयाब रहा है.
लेकिन सवाल यह है कि क्या
एविन किंग को वास्तव में न्याय मिला है? उसने पूरे तेईस बरस जेल की सलाखों
के पीछे काटे हैं. उसने कहा भी है कि जब आप सलाखों के पीछे होते हैं तो मरे जैसे
ही होते हैं. इन तेईस बरसों में एविन की मां अपने बेटे की रिहाई का ख़्वाब आंखों
में पाले ही इस दुनिया को अलविदा कह गई.
जिस दिन उसे जेल भेजा गया तब उसकी बेटी
तेरह बरस की और बेटा ग्यारह बरस का था. इन 23 मनहूस बरसों में उसने अपने
बच्चों को बढ़ता हुआ नहीं देखा. खुद वह खासा बूढ़ा होकर जेल से बाहर आएगा. ओहियो
प्रोजेक्ट ने जो कुछ किया वह बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन जो त्रास
बेगुनाह एविन किंग ने भुगता है और जो इस बीच उसने खोया है वह सब उसे कोई नहीं लौटा
सकता है.
एविन किंग की यह व्यथा कथा
पढ़ते हुए मुझे बेसाख़्ता प्रख्यात हिंदी कथाकार मन्नू भण्डारी की एक कहानी याद आ रही है. कहानी का शीर्षक है ‘सज़ा’. इस
कहानी में किसी और की बेईमानी की सज़ा एक निर्दोष व्यक्ति को दे दी जाती है. मुकदमा
चलता है और खूब लम्बा खिंचता है. अंत में उसकी निर्दोषिता प्रमाणित होती है और वह
रिहा कर दिया जाता है, लेकिन इस बीच उसका पूरा परिवार उसकी
सज़ा का दंश झेलता है. यहां कहानीकार जैसे कहती हैं कि जो व्यक्ति अपराधी था ही
नहीं, उसके इस तथाकथित अपराध की सज़ा तो पूरे परिवार ने भुगत
ली. ज़ाहिर है कि सवाल यही है कि क्या वाकई
कोई न्याय हुआ है? यही सवाल एविन किंग की इस कथा को पढ़ते हुए
हम सबके मन में उठना चाहिए. आखिर ऐसा क्या हो कि अदालतें ग़लत फैसले न करें,
और यदि कभी कर भी दें तो उनमें जल्दी से जल्दी संशोधन कैसे हो,
ताकि जो दोषी नहीं है उसे बेवजह
सज़ा न भुगतनी पड़े. इस तरह के प्रसंग हमारी चिंतन प्रक्रिया को धार देते हैं,
इन्हें जानने-पढ़ने की यही सबसे बड़ी सार्थकता है.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक स्तम्भ कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 02 मई, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पठ.
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