Tuesday, March 21, 2017

पुरुषों की तुलना में स्त्रियों को ज़्यादा होता है तनाव

हाल में हुई  एक  शोध से यह पता चला है कि जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं का बुरा असर   पुरुषों की बजाय स्त्रियों पर ज़्यादा पड़ता है. ब्रिटेन की फिज़ीयोलॉजिकल सोसाइटी के माध्यम से लगभग दो हज़ार वयस्कों पर करवाई गई इस शोध के माध्यम से यह जानने का प्रयास किया गया था कि जीवन में घटित होने वाली महत्वपूर्ण घटनाएं पुरुषों को अधिक प्रभावित करती हैं या महिलाओं को. हालांकि उक्त सोसाइटी ने यह शोध एक भिन्न उद्देश्य से कराई थी,  इसके निष्कर्षों को अनेक तरह से समझा जा सकता है. सोसाइटी ने यह शोध लोगों में इस बात की जागरूकता के प्रसार  के लिए कराई थी कि शरीर की कार्यप्रणाली पर   तनावों का बहुत गहरा असर पड़ता है इसलिए लोगों को यथासंभव तनावों से बचना चाहिए. सोसाइटी का मानना है कि तनाव के दौरान उनका सामना करने के लिए हमारी देह जो हॉर्मोन्स  रिलीज़ करती है वे रक्त प्रवाह में घुल मिल जाते हैं, और इसका कुप्रभाव हमारे हृदय, पाचन तंत्र और रोग निरोधक तंत्र पर पड़ता है. यही नहीं, बार-बार पैदा होने वाले और लम्बे समय तक बने रहने  वाले तनावों की वजह से दीर्घकालीन शारीरिक समस्याएं भी पैदा हो सकती हैं. यही वजह है कि फिज़ीयोलॉजिकल सोसाइटी ने एक पूरे साल के कार्यक्रम तनावों को समझने-समझने को समर्पित किये हैं और इस शृंखला  के  अंतर्गत सार्वजनिक व्याख्यान और सेमिनार आयोजित किये जाएंगे. 

जिस रिपोर्ट की हम यहां चर्चा कर रहे हैं उसे ज़ारी करते हुए फिज़ीयोलॉजिकल सोसाइटी की नीति और  संचार समिति की अध्यक्षा ने एक बहुत अर्थपूर्ण बात कही है. उनका कहना है आधुनिक विश्व अपने साथ जिस तरह के तनाव ला रहा है, पचास बरस पहले उनकी कल्पना तक नामुमकिन थी. अपनी बात को स्पष्ट करते हुए उन्होंने तनाव उपजाने और बढ़ाने वाली  दो चीज़ों के नाम लिये हैं: सोशल मीडिया और स्मार्ट फोन्स.

सोसाइटी की यह शोध 1967 में की गई बहुत विख्यात होम्स और राहे के  तनाव विषयक अध्ययन की ही अगली कड़ी है. जहां इस 1967 वाले अध्ययन में जीवन की कुल 43 महत्वपूर्ण घटनाओं के आधार पर तनाव का आकलन किया गया था, वर्तमान अध्ययन में घटनाओं की संख्या को घटाकर मात्र अठारह कर दिया गया है. यह माना गया है कि बहुत सारी घटनाएं या तो एक दूसरे में समायोजित हो जाती हैं या अब उतनी महत्वपूर्ण नहीं रह गई हैं. इस बार के अध्ययन में जिन अठारह घटनाओं को आधार बनाया गया है वे ये हैं: जीवन साथी का निधन, कारावास, बाढ़ या आग के कारण घर का नुकसान, गम्भीर बीमारी, काम से निकाल दिया जाना, दीर्घकालीन सम्बंध का टूट जाना, पहचान की चोरी, आर्थिक समस्या, नई नौकरी की शुरुआत, शादी की तैयारियां, पहले बच्चे का जन्म, आने जाने में नष्ट होने वाला समय, आतंकवादी ख़तरे, स्मार्टफोन का खो जाना,  छोटे से बड़े घर में जाना, ब्रेक्सिट, छुट्टियां मनाने जाना, अपने काम में कामयाबी या पदोन्नति.

इस अध्ययन में इन अठारह महत्वपूर्ण घटनाओं के संदर्भ में यह पड़ताल की गई है कि इनमें से किन के कारण पुरुषों को और किन के कारण स्त्रियों को ज़्यादा तनाव होता है,  और सबसे ज़्यादा चौंकाने वाली बात यही है कि सारी की सारी अठारह घटनाओं की वजह से पुरुषों की तुलना में स्त्रियों को अधिक तनाव होता है. तनाव का आकलन दस के पैमाने पर किया गया है, और उदाहरणार्थ यह पाया गया है कि जीवन साथी की मृत्य की वजह से पुरुषों को 9.13 और स्त्रियों को 9.7 तनाव होता है. इसके बाद पुरुषों और स्त्रियों में होने वाले तनाव का अंतर भी अंकों  में प्रदर्शित किया गया है. इस तालिका के अनुसार स्त्री पुरुष में सर्वाधिक यानि 1.25 का अंतर आतंकवादी खतरे के मामले में पाया गया है. पुरुष इससे 5.19 और स्त्रियां 6.44 तनाव महसूस करती हैं. इससे कुछ कम यानि 0.74 तनाव अंतर गम्भीर रोग के मामले में और उससे कुछ और कम यानि 0.71 अंतर आर्थिक मामलों अथवा बड़े घर में जाने के मामले में पाया गया है. मज़े की बात यह कि स्त्री और पुरुषों के तनावों में सबसे कम यानि 0.19 का अंतर पहली संतान के जन्म को लेकर है. एक रोचक बात यह भी है कि ज़्यादा से कम तनाव का क्रम स्त्री और पुरुष में एक-जैसा है लेकिन अलग-अलग घटनाओं में वह तनाव का अंतर घटता बढ़ता रहता है. इस अध्ययन में यह भी पाया गया कि जहां बीमारी के मामले में उम्र बढ़ने के साथ तनाव की तीव्रता बढ़ती है वहीं स्मार्टफोन्स न्स  के मामले में इसका उलट होता है, यानि इस वजह से युवा पीढ़ी अधिक तनावग्रस्त होती है. 

अंतर चाहे जितना हो, इस अध्ययन से यह तो पता चल ही गया है कि विभिन्न घटनाओं का असर पुरुषों की तुलना में स्त्रियों पर ज़्यादा होता है.  स्वाभाविक ही है कि यह बात उनके लिए एक चेतावनी भी है.

●●●
जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 21 मार्च, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, March 14, 2017

ऐसा पुरस्कार जिसे पाकर कोई खुश नहीं हो सकता!

पुरस्कार पाकर हर कोई खुश होता है. अपने प्रयास और काम की सराहना तथा स्वीकृति भला किसे नापसंद होगी?  लेकिन हाल में सुदूर जापान में घोषित किये गए एक पुरस्कार ने हमें यह कहने को मज़बूर कर दिया है कि हर पुरस्कार के बारे में यह बात कहना उचित नहीं है. कुछ पुरस्कार ऐसे भी हो सकते हैं जिन्हें पाकर पाने वाला सम्मानित नहीं लज्जित महसूस करता है. पिछले दिनों जापान की एक प्रमुख विज्ञापन एजेंसी देंत्सु इंकॉर्पोरेटेड के साथ ऐसा ही हुआ है. जापान के पत्रकारों और नागरिक अधिकारों के रक्षकों के एक समूह ने इस विज्ञापन एजेंसी को मोस्ट ईविल कॉर्पोरेशन ऑफ द ईयर अवार्ड से नवाज़ा है. अब भला कौन कम्पनी होगी जो यह खिताब पाकर खुश हो!

अब यह भी जान लिया जाए कि इस कम्पनी को यह खिताब क्यों दिया गया है? पुरस्कार देने वाले संगठन की चयन समिति के एक सदस्य, जापान के जाने-माने फिल्म निदेशक तोकाची सुचिया के कम्पनी  नाम भेजे संदेश से इस सवाल का आंशिक जवाब मिल जाता है. उन्होंने लिखा है: “डियर देंत्सु इंकॉर्पोरेटेड, आपकी एक नई कर्मचारी, 24 वर्षीया मात्सुरी ताकाहाशी ने 25 दिसम्बर, 2015 को आत्म हत्या कर ली. उसको 105 घण्टे ओवरटाइम करना पड़ा था,  जो बहुत ज़्यादा था. इसके अलावा वो अपने बॉस लोगों द्वारा सताए जाने से त्रस्त थी और मानसिक रूप से दबाव में भी थी.” ताकाहाशी की इस आत्महत्या से पहले इस संस्थान का एक और कर्मचारी, वह भी  24 वर्षीय ही था, 1991 में अपनी जान गंवा चुका था. इनके अलावा, सन 2013 में हुई एक तीस वर्षीय कर्मचारी की मृत्यु को भी उससे बहुत ज़्यादा काम करवाने का परिणाम माना जा रहा है.

दुनिया के विभिन्न देशों में जहां ज़्यादातर कामकाज निजी क्षेत्र में केंद्रित है, नियोक्ता अपने कर्मचारियों से ज़्यादा से ज़्यादा काम लेने की कोशिश करते हैं, और ऐसा करते हुए वे उनकी सेहत और क्षमता की भी प्राय: अनदेखी कर जाते हैं. कर्मचारी की यह विवशता होती है कि अपनी नौकरी बनाए रखने के लिए वो अपनी सेहत और जान पर खेल कर भी नियोक्ता के आदेश का बढ़ चढ़  कर पालन करे. संस्थानों के लिए कोई नया कर्मचारी नियुक्त करने की बजाय पहले से कार्यरत कर्मचारी को ओवरटाइम राशि का भुगतान कर काम लेना अधिक लाभप्रद होता है. शायद यही सोच रहा होगा जब उक्त देंत्सु कम्पनी ने मात्सुरी ताकाहाशी पर काम का इतना बोझ लाद दिया था कि वह हर रोज़ बमुश्क़िल दो घण्टे की नींद ले पाती  थी.

ज़्यादा पड़ताल करने पर यह बात भी सामने आई है कि यह कम्पनी अपने कर्मचारियों  से आग्रह करती रही है कि वे देंत्सु के दस नियमोंकी पालना करें. ये दस नियम किस तरह के होंगे यह जानने के लिए मात्र एक नियम को देख लेना पर्याप्त होगा. इस नियम में कर्मचारियों से कहा गया है कि “अपने काम को पूरा करने से पहले कभी भी, किसी  भी हाल में छोड़ें नहीं. यहां तक कि अगर आप मर जाएं तो भी उसे न छोड़ें.” स्वाभाविक ही है कि इस नियम पर लोगों की तीखी प्रतिक्रियाएं हुई हैं और मात्सुरी ताकाहाशीके परिवार जन और उनके वकीलों के अनुरोधों के बाद अब देंत्सु के प्रबंधन ने कहा है कि अब कर्मचारियों को जो निर्देश पुस्तिकाएं दी जाएंगी, उनमें से इन नियमों को हटा दिया जाएगा.

एक तरफ जहां अपने मुनाफ़े के लिए कर्मचारियों का शारीरिक और मानसिक शोषण करने वाली अनगिनत और बेहद ताकतवर कम्पनियां हैं वहीं ऐसे छोटे-छोटे संगठन भी हैं जो अपनी-अपनी तरह से इस तरह के अमानवीय शोषण के खिलाफ़ आवाज़ उठा रहे हैं. जापान में जिस संगठन ने यह पुरस्कारप्रदान किया है, वह भी कोई बहुत बड़ा संगठन नहीं है. लेकिन इसके बावज़ूद यह उसके अस्तित्व का पांचवां बरस है.  यह संगठन कुटिल और दुष्ट कम्पनियों  द्वारा अपने कर्मचारियों से लिये जाने वाले ज़्यादा काम, उनको सेक्सुअल एवम अन्य तरीकों से सताए जाने, उन्हें परेशान करने, कम तनख्वाह देने, और अस्थायी कर्मचारियों के साथ भेदभाव बरतने जैसे विभिन्न अन्यायों की पड़ताल करता  है. अपने काम और प्रयासों की जानकारी देते हुए इस संगठन के एक महत्वपूर्ण सदस्य, जो इसकी चयन समिति के भी सदस्य हैं, ने एक बेहद महत्वपूर्ण बात कही है. उनका कहना है कि “यह पुरस्कार किसी को बदनाम करने के लिए नहीं दिया जाता है. इसका मकसद तो यह चेतना पैदा करना है कि हमारे समाज में इस तरह की कम्पनियों के बने रहने का कोई औचित्य नहीं है.” वे अपने प्रयासों की अपर्याप्तता से भली भांति परिचित हैं, तभी तो कहते हैं कि “वक़्त  बीतने के साथ इन कम्पनियों के बारे में समाचारों को भी भुला  दिया जाएगा. लेकिन यह पुरस्कार देते हुए हम हरेक से यह उम्मीद करते हैं कि वो यह बात याद रखे कि ऐसी खराब कम्पनियां अभी भी मौज़ूद हैं.”

●●●
जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 14 मार्च,  2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, March 7, 2017

बहुत कुछ सकारात्मक और शिक्षाप्रद भी है वीडियो गेम्स में

जब भी आज के बच्चों और किशोरों की चर्चा होती है, वह घूम फिर कर उन बहुत सारी चीज़ों के इलाके में प्रवेश कर जाती है जो इनकी मानसिकता को दूषित या विकृत कर रहे हैं. और इस इलाके में जो  नाम आते हैं उनमें बहुत महत्वपूर्ण होता है वीडियो गेम्स का नाम. अगर आप अपने घर-परिवार या जान-पहचान वालों के बच्चों और किशोरों से उनके प्रिय वीडियो गेम्स के नाम और उनकी विषय वस्तु के बारे में पड़ताल करें तो पाएंगे कि उनमें से ज़्यादातर को बंदूकों और मार-धाड़  वाले गेम्स बेहद पसंद हैं. स्वाभविक ही है कि दुनिया भर के सोचने-समझने वाले लोग यह मानते हैं कि इस तरह के वीडियो गेम्स बच्चों किशोरों और युवाओं की मानसिकता पर बहुत बुरा असर डाल रहे हैं. लेकिन इन खेलों का आकर्षण इतना प्रबल है कि इन चिंतकों और इनकी बात से सहमत अभिभावकों के सारे प्रयासों के बावज़ूद इनकी लोकप्रियता घट नहीं रही है.

लेकिन इधर एक नई बात सामने आई हैं जो चौंकाने के साथ-साथ प्रसन्न भी करती है. वीडियो खेलों के जानकारों ने बताया है कि सारे के सारे वीडियो गेम्स हिंसक और क्रूर नहीं हैं. उनमें से बहुत सारे खेल सदाचरण भी सिखाते हैं और सादगी एवम पवित्रता से परिपूर्ण ग्राम्य जीवन की तरफ भी ले जाते हैं. असल में खेलों की इस दुनिया में बहुत विविधता है और जिनके कारण इस दुनिया को बुरी निगाहों से देखा जाता है उन खेलों के अलावा अनगिनत खेल ऐसे भी मौज़ूद हैं जो आपको जीवन के सकारात्मक पक्षों की तरफ ले जाते हैं. और जैसे इतना ही पर्याप्त न हो, हिंसा प्रधान खेलों में भी ऐसे बहुत सारे खेल हैं जो हिंसा के बहाने उसके कारणों पर सोचने को मज़बूर कर अंतत: आपको हिंसा से दूर ले जाते हैं. इस तरह के खेलों को इनके विशेषज्ञ अध्येताओं ने गम्भीरया सहानुभूति परक खेलों का नाम दिया है. 

इन खेलों की तरफ पूरी दुनिया का ध्यान इस वजह से भी गया है कि हाल में संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी इनका नोटिस लिया है. यूनेस्को की एक इकाई महात्मा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ एज्यूकेशन फॉर पीस (UNESCO-MGIEP) ने हाल में टोरण्टो के एक शोधार्थी को यह दायित्व सौंपा है कि वो इस तरह के खेलों का गम्भीर और विशद अध्ययन कर एक रिपोर्ट तैयार करे. टोरण्टो के रॉयल सेण्ट जॉर्ज  कॉलेज के इस शिक्षक पॉल दरवासी का स्पष्ट मत है कि अगर ठीक से इनका प्रयोग किया जाए तो वीडियो गेम्स सम्वेदनाओं के प्रेरक बनने के मामले में फिल्म और किताबों जैसे पारम्परिक माध्यमों की तुलना में अधिक प्रभावशाली साबित हो सकते हैं. अपनी बात को और स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि इन वीडियो खेलों की ख़ास बात यह है कि जब आप इन्हें खेलते हैं तो आप खुद निर्णय भी करते और उन निर्णयों के परिणामों से भी दो-चार होते हैं. और इस सबके कारण  आप स्थितियों के यथार्थ के और अधिक निकट जा पहुंचते हैं. पॉल दरवासी का मत है कि इन खेलों में भिन्न-भिन्न  नज़रिये और जीवनानुभव वाले लोगों के बीच अधिक गहरी समझ विकसित करने की अपार सम्भावनाएं छिपी हुई हैं. उन  के मत की पुष्टि ऊपर उल्लिखित इंस्टीट्यूट के डाइरेक्टर अनंता दुरैप्पा ने भी यह कहते हुए की है कि वीडियो खेल पारम्परिक कक्षा अध्यापन से अधिक प्रभावी हैं. 

इन गंभीर अथवा सहानुभूतिपरक खेलों में से बहुत सारे ऐसे हैं जो हाल की त्रासदियों या चर्चित घटनाओं जैसे ईरानी  क्रांति, बोस्नियाई युद्ध के दौरान साराजेवो के घेराव, 1994 के रवाण्डा के नरसंहार आदि पर आधारित हैं. लेकिन  इन सारे खेलों की ख़ासियत यह है कि जब आप इन्हें खेलते हैं तो आप शक्तिशाली न होकर अरक्षितता की अवस्था में होते हैं. आप जो भी कदम उठाते हैं वह खुद बंदूक उठाने जितना ही रोमांचक होता है, लेकिन इन खेलों का नियोजन कुछ इस तरह से किया गया है कि इन्हें खेलते हुए आप खबरों को नई निगाह से देखने, दूसरों के साथ बर्ताव के नए तौर–तरीकों और अपने मत का अधिक विवेक सम्मत प्रयोग करने के लिए प्रशिक्षित होते हैं.

इन सब बातों के कारण सामाजिक न्याय की शिक्षा के क्षेत्र में इस तरह के खेलों की उपादेयता से यूनेस्को इतना प्रभावित हुआ है कि खुद उसने भी अपने स्तर पर दो खेल लॉंच करने का निर्णय कर लिया है. ऐसा एक खेल  है वर्ल्ड रेस्क्यू जो बस रिलीज़ होने ही वाला है और इसमें खिलाड़ियों से चाहा गया है कि वे रोग, वनोन्मूलन और सूखे जैसी वैश्विक समस्याओं के समाधान तलाश करें. दूसरा खेल जो अब तक अनाम है, उसमें खिलाड़ियों के सामने यह चुनौती रखी जाएगी कि वे अल्प कालीन सम्पदा सृजन और दीर्घ कालीन संवहनीयता के बीच संतुलन कैसे साधें.

उम्मीद करनी चाहिए कि वीडियो गेम्स के इस सकारात्मक पहलू से हमारी दुनिया को बेहतर बनाने में कुछ मदद मिलेगी.


●●●
जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 07 मार्च, 2017 को 'बहुत कुछ शिक्षाप्रद भी है वीडियो गेम्स में' शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.