Tuesday, February 28, 2017

जिसे आप देखते हैं वो भी आपको देख सकता है!



भारत में टेलीविज़न कार्यक्रमों के संदर्भ में प्राय: टीआरपी की चर्चा होती है. कार्यक्रम प्रसारित करने वाले चैनल और उन कार्यक्रमों के बीच अपने उत्पादों के विज्ञापन दिखाने वालों के लिए इस टीआरपी की अहमियत से हम सब भली भांति परिचित हैं. लेकिन अमरीका में बात इससे काफी आगे निकल चुकी है, और ज़ाहिर है कि आज जो वहां हो रहा है वो देर-सबेर अपने यहां भी हो ही जाएगा. वहां ऐसी बहुत सारी कम्पनियां सक्रिय हैं जो आपके टीवी देखने के तौर तरीकों का बहुत ज़्यादा बारीकी से अध्ययन करती हैं.

ऐसी ही एक कम्पनी टीविज़न है जिसने बोस्टन, शिकागो और डलास क्षेत्र में दो हज़ार घरों के करीब साढ़े सात हज़ार टीवी दर्शकों की टीवी  देखने की आदतों का सूक्ष्म अध्ययन करने के लिए इन घरों में टीवी सेट्स के ऊपर एक छोटा-सा  उपकरण रख दिया है और इस उपकरण के माध्यम से वे लोग यहां तक लक्ष्य करते हैं कि घर का कौन-सा  सदस्य किस प्रोग्राम को देखते हुए कितनी बार आपनी आंखें उस प्रोग्राम से हटाता है, कितनी बार वो अपने फोन को देखता है और कितनी बार मुस्कुराता या नाक भौं सिकोड़ता है. यह उपकरण टीवी देखने वालों की आंखों का सूक्ष्म अध्ययन  करता है. इन सारी जानकारियों के विश्लेषण से यह पता लगाया जाता है कि कौन-सा प्रोग्राम या कौन-सा कमर्शियल अधिक गहन दर्शक जुटा पा रहा है.  यानि यह जानने का प्रयास किया जाता है कि जो लोग किसी ख़ास समय में एक चैनल को ट्यून करके एक ख़ास  प्रोग्राम चला रहे हैं, वे उस प्रोग्राम  को कितनी तल्लीनता से देख रहे हैं.  कम्पनी इस प्रोग्राम में सहभागिता के लिए सहमत होने वालों को कुछ धनराशि भी प्रदान करती है. और साथ ही वह यह आश्वासन भी देती है कि भाग लेने वालों की पहचान सार्वजनिक नहीं की जाएगी. रिकॉर्ड मात्र यह होता है कि अमुक समय में टीवी देखते हुए घर क्रमांक पंद्रह के दर्शक क्रमांक एक सौ बीस  का बर्ताव यह था.

अमरीका जैसे देश में इस तरह के अध्ययनों की महत्त इसलिए और बढ़ जाती है कि एक मोटे अनुमान के अनुसार वहां कम्पनियां टीवी पर विज्ञापनों पर  हर बरस सत्तर बिलियन डॉलर की बहुत बड़ी राशि  खर्च करती है और उनके लिए यह जानना बेहद ज़रूरी होता है कि लोग उनके कमर्शियल वाकई देख भी रहे हैं या नहीं. यहीं यह भी बताता चलूं कि इस नई व्यवस्था से पहले अमरीका में यह काम करने में नील्सन कम्पनी अग्रणी मानी जाती थी जो सिर्फ़ यह पता करती थी कि किसी प्रोग्राम को कितने लोग देख रहे हैं. यह कम्पनी अपने 42,500 परिवारों से प्राप्त जो आंकड़े जुटाती थी उनके आधार पर अमरीकी कम्पनियां यह तै करती रही हैं कि वे अपने विज्ञापन का बजट कहां-कहां खर्च करें. लेकिन अब क्योंकि दुनिया बहुत जटिल होती जा रही है दर्शकों की रुचियों के अध्ययन  के तौर तरीके भी बदल रहे हैं. एक तो यही बात कि आज का दर्शक एक ही समय में अनेक काम (मल्टीटास्किंग) करता रहता है.  

टीविज़न की ही तरह एक और कम्पनी है सिम्फ़नी एडवांस्ड मीडिया जिसने अमरीका के साढे- सत्रह हज़ार लोगों के एण्ड्रॉयड मोबाइल  फोनों पर एक एप स्थापित किया है, जो यह रिकॉर्ड  करेगा कि वे अपने फोन पर क्या-क्या देखते हैं. इतना ही नहीं, इस एप में यह भी अंकित किया जाएगा कि सम्बद्ध व्यक्ति जो देख रहा है वह कहां पर, मसलन घर पर, बस में या किसी बार में, देख रहा है. कम्पनी इसके लिए हर माह पांच से बारह डॉलर तक उस व्यक्ति को देगी. इसी तरह एक और कम्पनी है रियलिटी माइन जिसने पांच हज़ार लोगों लगभग नब्बे डॉलर प्रति वर्ष देकर उनके इण्टरनेट कनेक्शन की जासूसी करने की अनुमति हासिल की है.

इन सारी कोशिशों का मकसद यह जानना है कि आज का उपभोक्ता अपने मीडिया को किस तरह बरत रहा है. कहना अनावश्यक है कि इस तरह प्राप्त की गई जानकारी का प्रयोग कार्यक्रमों को बेहतर बनाने और विज्ञापनों की पहुंच तथा प्रभाव को को और प्रभावशाली बनाने के लिए किया जाना है. लेकिन इस पूरे किस्से का एक और पहलू है जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता और वह है उपभोक्ता की निजता के हनन का. कहा जा सकता है कि जो किया जा रहा है वह उपभोक्ता की अनुमति और  सहमति से किया जा रहा है, लेकिन ज़िंदगी के और क्षेत्रों की तरह ही यहां भी काफी  कुछ ऐसा हो रहा है जो अनुचित है. हाल में यह बात भी सामने आई है कि अमरीका की ही इंटरनेट से जुड़े टीवी प्रसारण वाली सबसे बड़ी कम्पनी ने इस आरोप से मुक्ति  पाने के लिए कि वो  लाखों स्मार्ट टीवी उपभोक्ता के टीवी देखने के  आंकड़े बग़ैर उनकी इजाज़त और जानकारी के इकट्ठा करती और बेचती रही है सवा दो मिलियन डॉलर देने की पेशकश की है.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 28 फरवरी, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. ,

Tuesday, February 21, 2017

उसने जान लिया है कि जीवन में धन ही सब कुछ नहीं है

सामान्यत: हम सोचते हैं कि अगर हमें खूब सारा  धन मिल जाए तो हमारे  सारे कष्ट दूर और सारे सपने साकार हो जाएंगे. निश्चय ही ब्रिटेन  की सुश्री जेन पार्क ने भी सन 2013 में अपनी ज़िंदगी का पहला लॉटरी टिकिट खरीदते वक़्त ऐसा ही सोचा होगा. लेकिन देश  की सबसे कम उम्र यूरोमिलियन्स विजेता बनने के बाद महज़ तीन-चार बरसों में उनकी सोच इतनी बदल चुकी है कि अब तो वे उस लॉटरी कम्पनी पर कानूनी  कार्यवाही तक करने के बारे में सोच रही हैं जिसने उन्हें रातों रात इतना अमीर बना दिया. जेन पार्क को इस लॉटरी में एक लाख मिलियन पाउण्ड यानि भारतीय मुद्रा में  क़रीब साढ़े आठ करोड़ रुपये मिले थे. स्वभावत: इन पैसों से उन्होंने प्रॉपर्टी खरीदी, अपनी खूबसूरती बढ़ाने पर खासा खर्चा किया, एक महंगी गाड़ी खरीदी और जमकर सैर सपाटा किया. कल तक जो चैरिटी वर्कर थी, वह अपने आप को डेवलपर कहने लगीं. उनके जीवन में भौतिक साधनों की इफ़रात हो गई. लोग उन्हें देखते तो ठण्डी आहें भरते और कहते कि काश! हमारे पास भी उतना पैसा हो जितना इस लड़की के पास है. लेकिन खुद जेन पार्क बहुत जल्दी इस वैभव से इतनी त्रस्त हो गईं कि उन्हें लगने लगा कि भले ही  उनके पास भौतिक साधनों की भरमार हो, उनका जीवन तो एकदम रिक्त है. इस वैभव से दुखी होकर वे तो यहां तक कह बैठीं कि “मेरा खयाल था कि यह राशि मिल जाने से मेरी ज़िंदगी दस गुना बेहतर हो जाएगी, लेकिन हक़ीक़त यह है कि यह दस गुना बदतर हो गई है. कितना अच्छा होता कि मैंने यह लॉटरी जीती ही ना होती और मेरी जेब एकदम खाली होती!”

जेन ने जब यह लॉटरी जीती तब उनकी उम्र सत्रह बरस थी. अब इक्कीस बरस की हो चुकने और ऐसी अमीरी से उपजे खूब सारे तनाव झेल चुकने के बाद उन्हें लगता है कि ब्रिटेन में लॉटरी का टिकिट खरीदने के लिए न्यूनतम उम्र सोलह बरस है और यह बहुत कम है. इसे कम से कम अठारह बरस तो होना ही चाहिए. लेकिन यह  निर्णय तो वहां की संसद करती है. जेन पार्क ने सन 2015 में अपने बॉय फ्रैण्ड मार्क स्केल्स को स्नेककहते हुए त्याग दिया. वजह यह रही कि उनके दोस्तों ने उन्हें बताया कि उसकी एकमात्र दिलचस्पी उनकी सम्पत्ति में थी. इसके बाद वे अपने एक और बॉय फ्रैण्ड कॉनोर जॉर्ज से भी अलग हो गईं. यह किस्सा खासा मनोरंजक किंतु त्रासद भी है. जब जॉर्ज इबिज़ा में किशोरों के एक हॉलिडे पर जाने लगा तो जेन ने उसे हिदायतों  की एक सूची थमाई जिसके अनुसार उसे हॉलिडे में किसी भी लड़की से बात नहीं करनी थी और उस द्वीप पर छुट्टियां मनाते हुए हर वक़्त जेन का डिज़ाइन किया हुआ वो टी शर्ट पहने रहना था जिस पर इस कन्या की तस्वीर बनी हुई थी. समझा जा सकता है कि ये बातें जेन के असुरक्षा  बोध की परिचायक थीं. अलगाव तो होना ही था.  उसके बाद से वे ऐसे बॉय फ्रैण्ड की तलाश में  ही हैं जिसकी दिलचस्पी उनके वैभव में न हो. डिज़ाइनर वस्तुओं को खरीदते-खरीदते वे ऊब चुकी हैं और अमरीका और  मालदीव जैसी चमक-दमक भरी जगहों और बेहद महंगे रिसोर्ट्स  में छुट्टियां बिताने से अब वे इतनी तंग आ चुकी हैं कि साधारण और सस्ती जगहों पर छुट्टियां मनाने के लिए तरसने लगी  हैं.

इस सारे किस्से का एक किरदार वो लॉटरी कम्पनी भी है जिसने जेन पार्क के जीवन में इतनी उथल-पुथल पैदा की है. इस प्रसंग में केमलोट समूह नामक इस लॉटरी कम्पनी के एक प्रतिनिधि का बयान भी ध्यान  देने योग्य है. अपनी सफाई पेश करते हुए उन्होंने कहा है कि सुश्री जेन पार्क के इनाम जीतने के फौरन बाद कम्पनी ने एक स्वतंत्र वित्तीय और विधिक पैनल का गठन किया और जेन का सम्पर्क उन्हीं के आयु वर्ग के अन्य इनाम विजेताओं से करवाने और पारस्परिक अनुभवों के आदान-प्रदान का प्रबंध किया. कम्पनी की तरफ़ से यह भी बताया गया कि जेन के विजेता बनने के बाद से कम्पनी लगातार उनसे सम्पर्क बनाए हुए है और उन्हें अपना संबल प्रदान करने के लिए तत्पर है. लेकिन इस बात का फैसला तो अंतत: विजेता को ही करना होता है कि उन्हें कोई सहयोग लेना है या नहीं लेना है. बावज़ूद इस बात के कम्पनी उन्हें सहयोग देने को सदैव प्रस्तुत रहेगी. लॉटरी के औचित्य अनौचित्य पर तमाम  बातों से हटकर कम्पनी के इस सोच की तो प्रशंसा की ही जानी चाहिए.

सुश्री जेन पार्क का यह वृत्तांत  उन लोगों के लिए आंखें खोल देने वाला हो सकता है जो मान बैठे हैं कि जीवन की सारी समस्याओं का एकमात्र हल पैसा है.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर  अंतर्गत मंगलवार, 21 फरवरी, 2017 को  प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, February 14, 2017

बहुत सारे विकल्प मौज़ूद हैं वैलेण्टाइन डे के

मनुष्य का स्वभाव भी क्या शै है! अपनी नापसंदगी का इज़हार करने के लिए भी यह कैसे-कैसे तरीके इज़ाद कर लेता है! अब देखिये ना, अगर एक पड़ोसी देश अपनी हरकतों की वजह से हमें नापसंद है तो हम किसी पर अपना गुस्सा निकालने के लिए कह देते हैं कि तुम वहां चले जाओ, या हम तुम्हें वहां भेज देंगे. इस अभिव्यक्ति में अज़ीब बात यह है कि सामान्यत: विदेश जाकर लोग खुश होते हैं, और अगर कोई और उन्हें भेज रहा हो तो कहना ही क्या! लेकिन विदेश यात्रा का यह प्रस्ताव एक अलग ही धुन सुनाता है. यह बात मुझे इससे मिलते-जुलते एक संदर्भ में अनायास याद आ  गई. आज वैलेण्टाइन डे है. यानि प्रेम का दिन. हमारे उत्सवों की सूची में हाल में जुड़ा एक नाम. भले ही देश के अधिसंख्य युवाओं का यह सर्वाधिक लाड़ला उत्सव हो, बहुत हैं जो इस दिन का नाम आते ही व्यथित, कुपित, आक्रोशित वगैरह हो जाते हैं. उन्हें लगता है कि यह उत्सव नहीं, पश्चिम से आया एक ख़तरनाक वायरस है. बहुतों को यह बाज़ार की नागवार हरकत लगता है. बहुतों को लगता है कि इस विदेशी बीमारी ने हमारी युवा पीढ़ी को पथभ्रष्ट कर दिया है. आदि-आदि. अगर आप भी इन बहुतों में से एक हैं, तो आगे की बातें विशेष रूप से आपको ही सम्बोधित हैं. और अगर आप इन बहुतों में से एक नहीं हैं, तो भी कोई बात नहीं. अपना सामान्य ज्ञान बढ़ा लेने में भी कोई हर्ज़  नहीं है.

यह जो 14 फरवरी का दिन है, इसे दुनिया के बहुत सारे देशों में अलग-अलग नामों से मनाया जाता है. अंकल सैम के देश यानि अमरीका में यह  दिन सिंगल्स अवेयरनेस डे के रूप में मनाया जाता है. इस दिन के आद्याक्षरों को जोड़ने से बनता है अंग्रेज़ी शब्द सैड, और अगर आप भी वैलेण्टाइन डे को नापसंद करने वालों में से हैं तो स्वाभाविक ही है कि आपको इस दिन का सैड होना बहुत अच्छा लगेगा. अमरीका में इस दिन अकेले लोग अपने अकेलेपन का उत्सव मनाते हैं और सोशल  मीडिया पर अपने जैसों को शुभ कामनाएं देते हैं या उनका हौंसला बढ़ाते हैं. अगर अमरीकियों की यह सात्विक नापसंदगी आपको अपर्याप्त लगे तो ज़रा कोरिया के बारे में जान लीजिए. वहां यह दिन ब्लैक डे यानि स्याह दिवस के रूप में मनाया जाता है. वजह वही है, यानि अकेलापन. इस दिन वहां के साथी विहीन लोग रेस्तराओं में एकत्रित होते हैं और अपना तमाम रंज-ओ-ग़म एक ख़ास किस्म की सस्ती लेकिन स्वादिष्ट  चीनी-कोरियाई डिश में डुबो देते हैं. इस डिश में  ब्लैक बीन की सॉस में नूडल्स परोसे जाते हैं, जिन पर पोर्क और सब्ज़ियां सजी होती हैं. काले रंग की सॉस वाले नूडल्स के चटकारे लेकर ग़म ग़लत करने का यह उत्सव कोरिया में पिछले दस बरसों में काफी लोकप्रिय हुआ है. अमरीका और कोरिया की ही तरह चीन में भी एक दिन सिंगल्स डे के रूप में मनाया जाता है. हालांकि वहां यह सिंगल्स डे ग्यारह नवम्बर को मनाया जाता है, मैं यहां इसका ज़िक्र इसलिए करना उचित समझ रहा हूं कि वहां नब्बे के दशक में यह दिन वैलेण्टाइन डे के प्रति विरोध स्वरूप मनाया जाने लगा था. मज़ेदार बात यह कि चीन में इस दिन एकल जन अपने लिए खरीददारी करते हैं. इस दिन उनकी सक्रियता का आलम यह है कि सन 2013 में चीन की सबसे बड़ी ऑनलाइन शॉपिंग कम्पनी ने अकेले इस दिन पौने छह बिलियन अमरीकी डॉलर बटोरे. इस राशि की विशालता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि यह सारे अमरीकी खुदरा व्यापारियों की एक दिन की कमाई की  ढाई गुना है.

लेकिन ऐसा भी नहीं है कि सारी दुनिया तैयब अली (यानि प्यार की दुश्मन) है! फिनलैण्ड ने इस दिन को फ्रैण्डशिप डे का नाम देकर  एक सात्विक रंगत प्रदान कर दी है, हालांकि वहां भी इसे दोस्तों और प्रेमियों के दिन के रूप में ही मनाया जाता है. लेकिन इन सबसे अलहदा और दिलचस्प है चार महाद्वीपों के  करीब चालीस देशों में सन 2003 से मनाया जा रहा क्वर्कीअलोन डे. इस दिन को मनाने के विचार का मूल है साशा कागन की किताब क्वर्कीअलोन: मेनिफेस्टो फॉर अनकम्प्रोमाइज़िंग रोमाण्टिक्स.  इस दिन को मनाने वालों का यह स्पष्ट दावा है कि उनकी अवधारणा वैलेण्टाइन डे के विरोध में नहीं है. वे तो बस रोमांस, दोस्ती और स्वतंत्र भाव का उत्सव मनाना चाहते हैं. वे हर तरह के प्रेम का समर्थन करते हैं, चाहे वह रोमाण्टिक हो, प्लैटोनिक हो, पारिवारिक हो, या अपने आप से हो. उनकी असहमति वैलेण्टाइन डे के बाज़ारीकरण से है और वे चाहते हैं  कि लोग खुलकर खुशियां मनायें, भले ही वे अकेले  हों. अब, यह तो एक ऐसा विचार है जिससे शायद ही किसी को कोई असहमति हो!
तो आप भी सोच लीजिए, कि आज आपको कौन-सा डे मनाना है?

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में पेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 14 फरवरी,  2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, February 7, 2017

सबसे अच्छा लेख लिखकर बनें एक खूबसूरत घर के मालिक !

न्यूयॉर्क से कोई दो घण्टे की दूरी पर स्थित एक छोटे-से कस्बे बेथेल में साढ़े पाँच एकड़ ज़मीन पर बने हुए अपने दो बेडरूम के घर  को बेचने के लिए बयालीस वर्षीय एण्ड्र्यू बेयर्स और उनकी सत्तावन वर्षीया पत्नी केली ने इस बार एक नया और चौंकाने वाला तरीका आज़माना चाहा है. इस बार की बात यों कि पिछले चार बरसों में वे दो दफ़ा इसे बेचने का असफल प्रयास कर चुके  हैं. उन्होंने एक निबंध प्रतियोगिता का आयोजन किया है जिसमें कोई भी अमरीकी हिस्सा ले सकता है. प्रतियोगी को सिर्फ़ दो सौ शब्दों का एक लेख लिखकर इस सवाल का जवाब देना होगा कि इस घर का स्वामी बनने से उसका जीवन किस तरह बदल जाएगा! और यह तो मैं बताना भूल ही गया कि अपनी प्रविष्टि के साथ उसे एक छोटी-सी फीस भी जमा करानी होगी. मात्र एक सौ उनचास अमरीकी डॉलर की. आप यह भी जान लें कि श्री बेयर्स ने सन 2007 में, जबकि केली से उनकी मुलाकात भी नहीं हुई थी,  यह ज़मीन साढे सात लाख डॉलर में खरीदी थी. और फिर इस ज़मीन पर यह घर बनवाने में उन्होंने साढे तीन लाख डॉलर और खर्च किए थे. अब इतनी कीमती प्रॉपर्टी के लिए भला कौन मात्र एक सौ उनचास डॉलर खर्च कर अपनी कलम का जौहर आजमाना नहीं चाहेगा?

बेयर्स आश्वस्त हैं. उन्हें लगता है कि उनका यह प्रयोग कामयाब रहेगा और उनके मकान के लिए कोई सही ग्राहक मिल ही जाएगा. अगर ऐसा हुआ तो वे इस प्रयोग को बाकायदा एक व्यवसाय में तबदील करना चाहेंगे. इस प्रयोग के लिए जुटाए गए अपने अनुभव और अपनी विशेषज्ञता का प्रयोग करते हुए वे इसी तरह अन्य लोगों के मकान बेचने का धंधा ही शुरु कर देंगे. और करें भी क्यों नहीं? इस प्रयोग के लिए उन्होंने कम पापड़ थोड़े ही बेले हैं. करीब चालीस हज़ार डॉलर तो वे अपनी जेब से खर्च कर ही चुके हैं. अपनी इस  प्रतियोगिता के नियम वगैरह बनाने के लिए उन्होंने वकीलों के सेवाएं ली हैं, आने वाली प्रविष्टियों का मूल्यांकन करने के लिए निर्णायक नियुक्त किये हैं और अपने इस प्रयास का प्रचार करने के लिए बाकायदा प्रचारकों की सेवाएं ली हैं. इसके अलावा उन्होंने अपनी इस सम्पदा का एक खूबसूरत वीडियो भी बनवाया है ताकि भावी ग्राहक इसकी तरफ आकर्षित हों. लेकिन इतना सब कर चुकने के बाद भी बेयर्स की राह आसान नहीं है. लोग सवाल उठा रहे हैं कि जिस सम्पदा को वे सन 2015 में सवा आठ लाख डॉलर्स में भी नहीं बेच सके थे उसके लिए भला साढे पाँच हज़ार लोग अब क्यों लालायित हो जाएंगे?

अरे हां, यह साढ़े ‌ पाँच हज़ार लोगों वाली बात तो मैं आपको बताना भूल ही गया. दरअसल श्री बेयर्स ने यह बात स्पष्ट कर दी है कि निबंध प्रतियोगिता का विजेता तभी घोषित होगा जब  उन्हें इस प्रतियोगिता के लिए साढ़े पाँच हज़ार प्रविष्टियां मिल जाएंगी. अब सारा खेल आप भी समझ गए होंगे. बेयर्स दम्पती प्रवेश शुल्क के रूप में प्रतियोगियों से कुल 819,500 डॉलर जुटा लेंगे.  विजेता तो उनमें से एक ही होगा. वैसे उन्होंने यह प्रावधान भी रखा है कि अगर इतने प्रतियोगी न जुटे तो वे सारे प्रतियोगियों को उनका प्रवेश शुल्क लौटा देंगे - प्रति प्रविष्टि उनचास डॉलर प्रशासकीय शुल्क काट कर.

इस प्रतियोगिता का  एक और मज़ेदार पहलू है. इसे अदृश्य फाइन प्रिण्ट भी कह सकते हैं. भले ही बेयर्स लोग विजेता को मात्र एक सौ उनचास डॉलर में यह सम्पदा देने का वादा कर रहे हैं, विजेता को कुल मिलाकर जो वित्तीय भार वहन करना होगा वह खासा बड़ा होगा. सबसे पहले तो उसे मकान की वर्तमान की कीमत के अनुरूप आयकर देना होगा, क्योंकि इनाम को आय ही माना जाता है. फिर इस सम्पदा पर उसे प्रॉपर्टी टैक्स भी अदा करना होगा जो करीब ग्यारह हज़ार डॉलर सालाना होता है. यानि एक सौ उनचास डॉलर का मकान वास्तव में जितने में पड़ने वाला है वह अगर सबको मालूम हो जाए तो बहुत सम्भव है कि लोग किस्मत आजमाने का अपना इरादा ही बदल लें. यही वजह है कि जहां अमरीकी प्रॉपर्टी बाज़ार में इस प्रयास की काफी चर्चा है वहीं गम्भीर प्रॉपर्टी व्यवसायी इसे वास्तविक प्रतियोगिता मान ही नहीं रहे हैं. वे तो इसे एक शोशेबाजी ही कह रहे हैं. आशंका  यह भी है कि बेयर्स दम्पती का यह प्रयास कानूनी उलझनों में भी फंस सकता है क्योंकि अमरीका में इस तरह की प्रतियोगिताओं के लिए अलग-अलग राज्यों में कानूनों में काफी भिन्नताएं हैं.

लेकिन जो हो, बेयर्स लोगों के इस प्रयास ने न सिर्फ भारी दिलचस्पी  पैदा की है, अगर यह कामयाब रहा तो इससे व्यापार का एक नया मॉडल भी चलन में आ सकता है.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 07 फरवरी, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.