कुछ बातें असल में उतनी अजीब और चौंकाने
वाली होती नहीं हैं, जितनी वे पहली नज़र में
प्रतीत होती हैं. अब इसी वृत्तांत को लीजिए जिसके लिए मेरा विश्वास है कि शीर्षक
पढ़ते ही आप चौंक गए होंगे! भला ऐसा कैसे हो सकता है कि कोई पुरुष महिलाओं की
प्रतिस्पर्धा में विजयी हो जाए? लेकिन
हुआ तो है ही. हां, यह
ज़रूर है कि जब आप पूरी बात जान लेंगे तो आपका आश्चर्य उतना नहीं रह जाएगा, जितना इस वृत्तांत को पढ़ना शुरु करते समय था. आपके धैर्य की अधिक परीक्षा
लेने से बचते हुए मैं सीधे इस घटना पर ही
आ जाता हूं.
घटना यह है कि अमरीका में
जिलियन बियर्डन नामक एक छत्तीस वर्षीय जन्मना पुरुष ने महिलाओं की एक बड़ी साइक्लिंग प्रतिस्पर्धा में
जीत हासिल कर ली है. उन्होंने अपनी निकटतम
महिला प्रतिस्पर्धी अन्ना स्पार्क्स से महज़ एक सेकण्ड के अंतराल से यह
प्रतिस्पर्धा जीती है. तीसरे स्थान पर रहने वाली सुज़ैन सोन्ये इनसे पूरे बाईस
मिनिट पीछे रही. यह प्रतिस्पर्धा थी एरिज़ोना में आयोजित हुई 106 मील वाली एल टुअर
डी टस्कन. इस प्रतिस्पर्धा में बियर्डन ने 4 घण्टे 36 मिनिट का समय लगाया. इसी
मुकाबले में पुरुषों के वर्ग में जीत हासिल करने वाले मेक्सिको के ओलम्पिक साइक्लिस्ट
ह्युगो रेंजल ने यह दूरी उनसे 25 मिनिट कम समय
में तै की.
अब आप इससे आगे की बात भी
जान लें. इन जिलियन बियर्डन का जन्म तो एक पुरुष के रूप में हुआ था लेकिन वे खुद
को एक ट्रांसजेण्डर स्त्री ही मानते थे. इस मामले में बहुत बड़ी बात यह रही कि बग़ैर
वह शल्य क्रिया (सेक्स रिअसाइनमेण्ट
सर्जरी) करवाये जिसके द्वारा उनके
यौनांगों को स्त्री स्वरूप प्रदान किया जाता, उन्होंने इस मुकाबले में एक स्त्री
के रूप में हिस्सा लिया और जीत हासिल की. यह करिश्मा सम्भव हुआ इण्टरनेशनल ओलम्पिक
काउंसिल के एक ताज़ा तरीन फैसले के कारण. काउंसिल ने अपने इस फैसले में यह व्यवस्था
दी थी कि नेशनल फेडरेशन सभी ट्रांसजेण्डर एथलीटों को इस बात की अनुमति प्रदान करेगा
कि वे बगैर सेक्स रिअसाइनमेण्ट सर्जरी
करवाये ही ओलम्पिक और अंतर्राष्ट्रीय मुकाबलों में अपने चाहे गए वर्ग (पुरुष या
स्त्री) में हिस्सेदारी कर सकेंगे. इस फैसले में यह व्यवस्था की गई कि वे एथलीट
जिनका जन्म स्त्री के रूप में हुआ है लेकिन जो खुद को पुरुष मानते हैं वे बिना किसी अवरोध के पुरुषों की
प्रतिस्पर्धाओं में भागीदारी कर सकेंगे. और इसी तरह वे ट्रांसजेण्डर एथलीट जिनका जन्म पुरुष
के रूप में हुआ लेकिन जो स्वयं को स्त्री मानते हैं वे स्त्रियों वाली
प्रतिस्पर्धाओं में भाग ले सकेंगी. लेकिन इसके साथ एक शर्त भी रख दी गई. शर्त यह
कि ऐसे प्रतिस्पर्धियों को सम्बद्ध मुकाबले से पहले एक बरस तक निर्धारित टेस्टास्टरोन का निर्वहन करना होगा, यानि वे उस स्पर्धा में तभी हिस्सा
ले सकेंगी जब उक्त अवधि में उनका टेस्टास्टरोन स्तर मानक से नीचे रहेगा.
इसी नए नियम के कारण जिलियन बियर्डन यह करिश्मा कर सकीं.
यहीं यह भी जान लेना
उपयुक्त होगा कि इण्टरनेशनल ओलम्पिक काउंसिल के इस नए फैसले से पहले तक 2003 में
ज़ारी गई गाइडलाइन्स प्रभावी थीं जिनके अनुसार किसी भी ट्रांसजेण्डर एथलीट के लिए
अपने जन्म से भिन्न लिंग वाली स्पर्धा में भाग लेने के लिए सेक्स रिअसाइनमेंट सर्जरी करवाना ज़रूरी था.
लेकिन अब इण्टरनेशनल ओलम्पिक काउंसिल ने यह कहते हुए कि ट्रांसजेण्डर एथलीट्स को
उनके मनचीते वर्ग की स्पर्धाओं में भाग लेने से वंचित नहीं रखा जा सकता, वाज़िब
प्रतिस्पर्धा सुनिश्चित करने के लिए यह नई व्यवस्था लागू की है. अपनी बात को और
अधिक स्पष्ट करते हुए काउंसिल ने कहा है कि वाज़िब प्रतिस्पर्धा के लिहाज़ से यह
उचित नहीं लगता कि एथलीटों पर सर्जिकल एनाटॉमिकल बदलावों की पूर्व शर्त लादी जाए.
विकासमान कानूनों और मानवाधिकारों की अवधारणा के लिहाज़ से भी ऐसा करना अनुचित
होगा.
ज़ाहिर है कि इण्टरनेशनल ओलम्पिक
काउंसिल का यह फैसला ट्रांसजेण्डर लोगों के प्रति तेज़ी से बदलते जा रहे
सामाजिक और विधिक सोच की परिणति है. सारी दुनिया में बहुत तेज़ी से
ट्रांसजेण्डर जन के प्रति सहानुभूति और सद्भाव की जो बयार बह रही है, इस फैसले
को उसी के संदर्भ में देखा जाना
चाहिए. खुद जिलियन बियर्डन जो कि
ट्रांसजेण्डर अधिकारों के लिए संघर्ष करने वालों में अग्रणी हैं और जिन्होंने
दुनिया के पहले ट्रांसजेण्डर साइक्लिंग समूह की स्थापना भी की है, ने भी इस नई व्यवस्था और इसके तहत
हुई अपनी जीत का स्वागत करते हुए यह उम्मीद ज़ाहिर की है कि स्त्री वर्ग में हुई
उनकी इस जीत से अन्य ट्रांसजेण्डर्स एथलीटों को भरपूर प्रोत्साहन मिलेगा. भले ही
इण्टरनेशनल ओलम्पिक काउंसिल का यह फैसला अनिवार्यत: मान्य नियम न होकर राष्ट्रीय
और खेल विषयक संस्थाओं के लिए अनुशंसा मात्र है, फिर भी इसके
दूरगामी परिणामों से इंकार नहीं किया जा सकता.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 10 जनवरी, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.
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