हाल में स्वीडन के गोथनबर्ग शहर में स्थित नगरपालिका
रिटायरमेण्ट होम के कर्मचारियों पर एक अभिनव प्रयोग किया गया. अब तक आठ घण्टे
प्रतिदिन काम करने वाले इन कर्मचारियों के काम के घण्टों में कटौती कर इनसे पूरे
दो बरस तक प्रतिदिन छह घण्टे काम लिया गया, और काम के घण्टों की इस कटौती का कोई प्रभाव इनके
वेतन पर नहीं पड़ा. सिर्फ इतना ही नहीं, इन कर्मचारियों द्वारा किये जाने
वाले काम में कटौती की क्षति पूर्ति के लिए सत्रह नए कर्मचारी नियुक्त किये गए जिन
पर सालाना सात लाख यूरो का खर्चा आया. एक देश के लिहाज़ से यह प्रयोग भले ही आकार
में बहुत बड़ा नहीं था, लेकिन इसने एक व्यापक बहस के सिलसिले
की शुरुआत कर दी है, जिसका
असर काम की भावी नीतियों पर पड़ना अवश्यम्भावी है. इस प्रयोग के बाद इस बात
पर बहुत गम्भीरता से विचार किया जाने लगा है कि कर्मचारियों को उनके काम और उनके
जीवन के बीच बेहतर संतुलन सुलभ कराने की कितनी अहमियत है, और
कर्मचारियों को निचोड़ लेने की बनिस्पत उनसे बेहतर सुलूक करते हुए उनसे काम लेने की
नीति कम्पनियों और अर्थ व्यवस्था के लिए कितनी लाभप्रद साबित हो सकती है. इस
प्रयोग के बाद गोथनबर्ग सिटी काउंसिल में वाम दल के नेता डेनियल बर्नमार ने कहा कि
कि इस परीक्षण से यह बात साबित हो गई है कि कर्मचारियों के काम के घण्टे कम होने
के बहुत सारे फायदे हैं. इनमें स्टाफ का
स्वास्थ्य, बेहतर काम का माहौल और अपेक्षाकृत कम बेरोज़गारी
शामिल हैं. यहीं यह भी बता देना ज़रूरी है
कि वाम दल ने ही इस प्रयोग के लिए सर्वाधिक आग्रह किया था. लेकिन जैसा सर्वत्र
होता है, स्वीडन की सरकार ने कुछ तो इसकी व्यवहारिकता को
लेकर राजनीतिक संदेहों की वजह से और कुछ इस तरह के प्रयासों पर होने वाले खर्च को
मद्दे नज़र रखते हुए इस प्रयोग को और बड़े
स्तर पर आज़माने में कोई उत्साह नहीं दिखाया है. यही कारण है कि डेनियल बर्नमार को
कहना पड़ा है कि सरकार तो इस मुद्दे पर बात ही नहीं करना चाह रही है. वह व्यापक परिप्रेक्ष्य में इस पर नज़र डालने में
कोई रुचि नहीं दिखा रही है.
यहीं यह भी याद दिलाया जा
सकता है कि बहुत सारे देश और कम्पनियां अपने कर्मचारियों की खुशियों में वृद्धि
करने के लिहाज़ से उनके काम के घण्टों में कटौती करने पर विचार तो करती रही हैं लेकिन इस विचार को व्यापक स्वीकृति कहीं
नहीं मिल पाई. फ्रांस में वहां की समाजवादी सरकार की पहल पर पिछले पंद्रह बरसों से
चले आ रहे पैंतीस घण्टों के कार्य सप्ताह
को अभी भी खासा विवादास्पद ही माना जाता है. अपने कर्मचारियों से बहुत ज़्यादा काम लेने के लिए कुख्यात अमेज़ॉन
तक ने पिछले बरस यह घोषणा की थी कि वह बतौर परीक्षण अपने कर्मचारियों के एक छोटे
समूह से सप्ताह में मात्र तीस घण्ट काम करवाएगी और उनके अन्य सारे लाभ बरक़रार रखते
हुए उन्हें वर्तमान वेतन का तीन चौथाई देगी. गूगल और डेलॉयट ने भी इसी तरह यह
प्रयोग किया कि चालीस घण्टों का काम चार
दिनों में करवा कर कर्मचारियों को तीन दिन का अवकाश दे दिया जाए. यानि इस तरह के
प्रयोग जगह-जगह किये जा रहे हैं. हालांकि यह भी सच है कि ये प्रयोग बहुत छोटे
पैमाने पर हो रहे हैं और इक्का दुक्का कस्बों तक सीमित हैं.
गोथनबर्ग वाले इस प्रयोग
में हालांकि लागत में बाईस प्रतिशत की वृद्धि हुई, लेकिन उसमें से दस प्रतिशत
को कम माना जा सकता है. इसलिए कि ऐसे कुछ लोग जिन्हें बेरोज़गारी भत्ता दिया जा रहा
था, वे काम पा गये और उन्हें दिया जाने वाला भत्ता बच गया.
इसके अलावा कर्मचारियों के स्वास्थ्य में महत्वपूर्ण सुधार पाया गया, उनके रक्तचाप में कमी देखी गई, और उनकी कार्यक्षमता
भी बढ़ी हुई पाई गई. लेकिन इसके बावज़ूद गोथनबर्ग में वहां की कंज़र्वेटिव विपक्षी
पार्टियों ने इस प्रयोग को कल्पना की उड़ान
करार देते हुए इसे खत्म कर देने का पुरज़ोर आग्रह किया. उनका कहना था कि एक तो इससे
बेवजह करदाताओं का करभार बढ़ेगा, और दूसरे यह कि
सरकार को कार्यस्थलों में बिना वजह अपनी नाक नहीं घुसेड़नी चाहिए. वहां की सरकार भी
इस प्रयोग की मुखालफत कर रही है.
लेकिन इस प्रयोग ने अंतत:
सारी दुनिया को यह सोचने को विवश किया है कि अब समय आ गया है कि कर्मचारियों की उत्पादकता
और उनकी सेहत और उनकी प्रसन्नता के बीच के अंत:सम्बंधों की गहराई से पड़ताल की जाए. यानि यह कि लोग काम
करने के लिए ज़िंदा रहें या ज़िंदा रहने के लिए काम करें! दुनिया के कुछ देशों जैसे
इटली, जापान और क़तर में ऐसा होने भी लगा है.
जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 24 जनवरी, 2017 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.
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