Tuesday, December 27, 2016

ज़रूरी है सोशल मीडिया पर सक्रियता की अति से बचना

सजीव सम्पर्कों में भरोसा रखने वाले भारतीय समाज के लिए आभासी जगत का सोशल मीडिया अपेक्षाकृत नई परिघटना है, फिर भी इस बात को स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि पारम्परिक भारतीय  समाज ने भी इसे बहुत तेज़ी से अपनाया है. जहां युवा पीढ़ी ने तकनीक पर अपनी अधिक पकड़ की वजह से इस मीडिया का अधिक प्रयोग किया है, गई पीढ़ी के लोग भी इसके प्रयोग में बहुत पीछे नहीं हैं. मेरे इस प्रयोग गई पीढ़ीको अन्यथा न लिया जाए, मैं खुद इसी पीढ़ी से ताल्लुक रखता हूं. यह प्रयोग केवल शरारतन किया गया है. सोशल मीडिया के तमाम मंचों पर भारतीय सक्रियता देखी जा सकती है. जहां इन मंचों पर सक्रिय लोग इनकी उपादेयता को लेकर आश्वस्त हैं, वहीं अनेक विचारशील लोग और वे लोग जो इनसे दूरी बनाए हुए हैं, न केवल इनकी उपादेयता पर सवाल उठाते हैं, इनके दुष्प्रभावों को लेकर भी चिंतित पाए जाते हैं. सोशल मीडिया को लेकर सबसे बड़ी शिकायत तो इसके आभासी चरित्र की वजह से ही की जाती है. यानि यहां जो होता है वो होकर भी नहीं होता. आपके सौ दौ सौ मित्र यहां होते हैं,लेकिन वे असल में मित्र होते  ही  नहीं. एक बहु प्रचलित लतीफे को याद किया जा सकता है कि एक ऐसा व्यक्ति जिसके फेसबुक पर चार हज़ार मित्र थे, जब अपनी अंतिम यात्रा पर निकला तो उसकी अर्थी उठाने वाले चार कंधे भी बड़ी मुश्क़िल से जुटाए जा सके.

इधर अपने देश में सोशल मीडिया पर सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता भी खूब देखी जाती है. लोग घर से निकले बग़ैर ही इस मीडिया के मंच पर भारी भारी क्रांतियां कर रहे हैं. अब तो विरोध-प्रदर्शन  और एकजुटता के दिखावे के लिए किसी सार्वजनिक जगह पर जाकर मोमबत्ती  जलाने की भी ज़रूरत नहीं रह गई है. तकनीक की मेहरबानी से आप अपने कम्प्यूटर, लैपटॉप, डेस्कटॉप या मोबाइल पर ही मोमबत्ती जला लेते हैं. इस मीडिया की महत्ता और ताकत को हमारे राजनीतिज्ञों और दलों ने भी समझा और इसका अपने-अपने हित में इस्तेमाल किया है. पिछले चुनाव के बाद देश के हर महत्वपूर्ण राजनीतिक दल ने सोशल मीडिया पर अपनी सक्रियता बढ़ाई है. सरकार ने भी जनता तक अपनी बात पहुंचाने के लिए इसका प्रयोग करना शुरु किया है. इन सकारात्मक बातों के साथ-साथ, कहा जाता है कि विभिन्न राजनीतिक दलों ने विरोध के स्वरों को कुचलने  के लिए छ्दम प्रयोक्ताओं (ट्रॉल्स) का भी प्रयोग करना शुरु किया है. सोशल  मीडिया पर सक्रिय इस प्रजाति  के प्राणी अपनी हिंसक, अभद्र, आक्रामक  और प्राय: अश्लील टिप्पणियों से शत्रुओंको क्षत-विक्षत करने का प्रयत्न करते पाए जाते हैं.

यानि सोशल मीडिया का एक हिस्सा है जो सोशल नहीं रह गया है. लेकिन बात सिर्फ इतनी ही नहीं है. भारत के बाहर दुनिया के अन्य देशों में भी सोशल मीडिया के दुष्प्रभावों  पर चिंता होने लगी है. हाल में अमरीका के पिट्सबर्ग  विश्वविद्यालय के सेण्टर फॉर रिसर्च ऑन मीडिया, टेक्नोलॉजी  एण्ड हेल्थ ने अपने एक अध्ययन में पाया है कि एकाधिक सोशल मीडिया मंचों पर सक्रिय रहने वालों के अवसाद  और चिंता ग्रस्त होने की आशंका अधिक रहती है. इस अध्ययन में यह बताया गया है कि जो लोग सात से दस तक सोशल मीडिया मंचों पर सक्रिय रहते हैं वे अधिकतम दो मंचों पर सक्रिय रहने वालों की तुलना में तीन गुना ज़्यादा अवसाद ग्रस्त या व्याकुल रहते हैं. अध्ययन में यह जानने का भी प्रयास किया गया कि ऐसा क्यों होता है. असल  में जब कोई अनेक मंचों पर सक्रिय होता है तो वह अपनी छवि को लेकर बहुत व्याकुल हो जाता है और उसका निर्वहन करने की फिक्र उसे अवसाद या व्याकुलता की तरफ ले जाती है. होता यह है कि आप अपने दिन का  प्रारंभ अन्य लोगों से अपनी तुलना करते हुए करते हैं  और महसूस करते हैं कि औरों की तुलना में आप पिछड़ गए हैं.  ऐसा ही हुआ सेन डियागो के एक 33 वर्षीय उद्यमी जैसन  ज़ुक के साथ. विभिन्न  मंचों पर उसने अपने तैंतीस हज़ार फॉलोअर्स तो जुटा लिये लेकिन उसके बाद उसे महसूस होने लगा कि वो इस डिजिटल विश्व में उन  फॉलोअर्स  की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पा रहा है. और यही बात उसके मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालने लगी. इन मंचों के प्रयोक्ता जानते हैं कि कम लाइक्स का मिलना किस तरह लोगों को चिंतित कर देता है. शायद इन्ही तमाम कारणों से पश्चिम  में तो लोगों को सलाह दी जाने लगी है कि वे तीन से ज़्यादा मंचों पर सक्रिय न रहें, और यह भी कि बीच-बीच में इन मंचों से पूरी तरह अनुपस्थित भी होते रहें. उक्त जैसन ज़ुक को दी गई तीस दिनों के सोशल मीडिया डीटॉक्स की सलाह को इसी संदर्भ में याद कर लेना उपयुक्त होगा.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अन्तर्गत मंगलवार, 27 दिसम्बर, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख  का मूल पाठ.