अकादमिक दुनिया में हर दिन नई शोध होती है
और बहुत दफा हम पाते हैं कि अब तक हमारा जो सोच था उसे नई शोध ने ग़लत साबित कर
दिया है. वैसे यह कोई नई बात भी नहीं है. बहुत पहले से ऐसा होता रहा है. यह बात
मानव की वैचारिक गतिशीलता को रेखांकित करती है. हमारी सबसे बड़ी ताकत ही यह है कि
हम नई जानकारियां मिलने या नए तथ्य सामने आने पर अपनी पहले बनी हुई धारणाओं को
बदलने को तैयार हो जाते हैं. बेशक जीवन के कुछ पक्षों और मानव जाति के कुछ पॉकेट्स
में भयंकर रूढिबद्धता भी है जहां न केवल किसी बदलाव की कल्पना तक दुश्वार है, उसकी
चर्चा तक का सामना भीषण आक्रामकता के साथ किया जाता है. लेकिन मोटे तौर पर मानवता बहुत खुले मन
से नए विचारों को स्वीकार करती है. बदलाव का यह सहज स्वीकार ही मानव जाति के
उत्थान का उत्प्रेरक भी है.
मनोविज्ञान की दुनिया में अब तक यह माना जाता रहा है कि अगर किसी व्यक्ति के मन
में सकारात्मक भाव (तकनीकी शब्दावली में पी.ए. पॉज़िटिव अफेक्ट) मौज़ूद हों तो उसकी सर्जनात्मता बढ़ जाती है. हम सब भी ऐसा ही
मानते रहे हैं. लेकिन अब न्यूज़ीलैण्ड के ओटागो
विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान विभाग के
शोधार्थियों ने तेरह दिन तक 658 विद्यार्थियों के क्रियाकलाप का गहन अध्ययन करने
के बाद यह कहा है कि अगर कोई व्यक्ति किसी दिन अधिक सर्जनात्मक गतिविधियों में रत
रहता है तो अगले दिन वह अन्य दिनों की तुलना में ज़्यादा उत्साह और अधिक प्रफुल्लता
का अनुभव करता है. इस शोध ने अब तक
प्रचलित धारणा को सर के बल खड़ा कर दिया है. डॉ तामलिन कॉनर के नेतृत्व में की
गई इस शोध को इसलिए महत्वपूर्ण माना जा
रहा है कि इसने सकारात्मक भाव से सर्जनात्मकता में वृद्धि के विचार के विपरीत जाकर
सर्जनात्मकता से सकारात्मकता की वृद्धि की अवधारणा को स्थापित किया है. अगर शांत मन से सोचें तो
यह निष्कर्ष सही भी प्रतीत होता है. जब हम खुद को किसी सर्जनात्मक कर्म में डुबो
लेते हैं तो न सिर्फ शांति का अनुभव करते हैं, उत्फुल्लित भी महसूस करते हैं. जब भी कोई इस तरह के किसी
काम में अपने आप को व्यस्त करता है, उसका तनाव
खुद-ब-खुद दूर हो जाता है, उसे अपने नकारात्मक विचारों से
मुक्ति मिल जाती है और वो मानसिक रूप से बेहतर अनुभव करने लग जाता है. यह हम सबके
साथ होता है. विश्वास न हो तो इसे आज़मा कर भी देख सकते हैं. तो ऐसे में यह मानना
उपयुक्त होगा कि डॉ तामलिन कॉनर अपने
शिधार्थियों के शोध के बाद जिस नतीज़े पर पहुंची हैं वो तर्कसंगत है.
ओटागो विश्वविद्यालय के इस
शोध कार्य में हालांकि शोधार्थियों ने उक्त 658 विद्यार्थियों से औपचारिक रूप से
तो यह नहीं पूछा था कि उन्होंने कौन-कौन-सी सर्जनात्मक गतिविधियों में भाग लिया, इससे पहले किए गए एक अध्ययन में अनौपचारिक रूप से यह जानने का प्रयास किया
गया था कि लोग क्या-क्या सर्जनात्मक काम करते हैं. उसी अध्ययन में यह बात पता चली
थी कि गाने लिखना, कविता कहानी जैसा सर्जनात्मक लेखन करना
सर्वाधिक लोकप्रिय है. सर्जनात्मक काम के कुछ अन्य उदाहरण हैं किसी भी तरह की
चित्रकला या कलाकृति का निर्माण जैसे रेखांकन, तस्वीर बनाना,
यहां तक कि ग्राफिक या डिजिटल कला में रत होना, सांगीतिक कला में निमग्न होना अर्थात गाना या बजाना, और अगर उदार होकर सोचें तो कलाकारी का क्षेत्र इनसे भी काफी आगे तक बढ़
जाएगा, मसलन रसोई घर में जाकर कोई नई पाक विधि आज़माना या कोई
उम्दा डिश बनाना, स्वेटर बुनना, कशीदाकारी
करना या क्रोशिए का काम करना आदि.
ओटागो विश्वविद्यालय का यह
शोध-अध्ययन एक प्रतिष्ठित पत्रिका ‘द जर्नल ऑफ
पॉज़िटिव साइकोलॉजी’ में प्रकाशित हुआ है और इसके साथ दी गई
टिप्पणी में सही ही कहा गया है कि “कुल मिलाकर इस अध्ययन से सकारात्मक मनोवैज्ञानिक क्रियाकलापों के उन्नयन
के लिए रोज़मर्रा के सर्जनात्मक कर्म के निरंतर बढ़ते जा रहे स्वीकरण की पुष्टि ही
होती है.” यहीं यह याद कर लेना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि अपने देश में भी शिक्षण
संस्थाओं में सांस्कृतिक कार्यकर्मों के प्रोत्साहन के मूल में यही भाव विद्यमान
रहा है, हालांकि धीरे-धीरे सांस्कृतिक कार्यक्रम एक रस्म
अदायगी बन कर रह गए या उनके स्वरूप में बहुत सारी विकृतियां आ गईं. यह बात भी याद
की जानी चाहिए कि देश के श्रेष्ठतम शिक्षण संस्थानों जैसे आई आई टी वगैरह में
बाकायदा सर्जनात्मक लेखन विभाग होते हैं और स्पिक मैके जैसी संस्थाएं शिक्षण
संस्थाओं में शास्त्रीय संगीत की प्रस्तुतियां करवाती हैं. इन सबसे भी इस शोध कार्य
के निष्कर्षों की पुष्टि ही होती है.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 06 दिसम्बर, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.