Tuesday, November 8, 2016

ताकि स्कूल कल किसी और की बेटी का अपमान न करे!

अमरीका के मेरीलेण्ड राज्य के वाल्डोर्फ शहर के एक मिडिल स्कूल में जैसे ही श्रीमती एबॉनी बैंक्स की ग्यारह वर्षीया बेटी पहुंची, स्कूल प्रशासन ने उसे क्लास में बैठने की अनुमति देने से मना कर दिया, उसे एक अलग कमरे में बिठाया और कहा कि वो अपनी मां को फोन करे. बिटिया  ने मां से कहा कि वो उसके लिए एक जीन्स  लेकर फौरन स्कूल आ जाए. स्कूल प्रशासन का कहना  था कि वो लड़की जिस वेशभूषा में स्कूल आई थी उससे उनके ड्रेस कोड का उल्लंघन हो रहा था. लड़की ने काले रंग की लेगिंग्स पहनी थी और उस पर कमर तक पहुंच रहा काले रंग का छोटी आस्तीन वाला शर्ट और गुलाबी रंग का स्वेटर जैकेट पहना था. स्कूल की अपेक्षा थी कि जो लड़कियां लेगिंग्स पहनें वे पाँव की उंगलियों तक पहुंचने वाले शर्ट भी पहनें ताकि वे अपनी देह की तरफ़ अनावश्यक ध्यान आकृष्ट न कर सकें.

मेरीलेण्ड के ही विश्वविद्यालय की एक प्रोफेसर और जेण्डर एक्सप्रेशन की विशेषज्ञ  ड्रेस इतिहासकार जो पाओलेत्ती ने बहुत महत्वपूर्ण बात कही है. उन्होंने कहा है कि इस बात की परिभाषा सदा बदलती रहती है कि क्या अनुपयुक्त या सेक्सी है. अपनी बात को और खोलते हुए वे कहती हैं कि फैशन निरंतर नए आविष्कार करता रहता है और उन्हीं के पीछे चलते हुए ड्रेस कोड लेखकों को यह तै करना होता है कि क्या अनुपयुक्त है और किसे बैन किया जाना है. ड्रेस कोड का मसला स्कूलों  में विशेष अहमियत रखता है और वहां भी इसके घेरे में लड़कों की बजाय लड़कियां ज़्यादा आती हैं. अमरीका के विभिन्न राज्यों में, और अपने भारत में भी, स्कूलों में कौन क्या पहने और क्या न पहने इस पर प्राय: विवाद होते रहे हैं. बहुत सारे स्कूलों ने तो इस विवाद से निजात पाने का आसान तरीका यह तलाश किया है कि उन्होंने अपने यहां यूनीफॉर्म निर्धारित कर दी है. लेकिन जहां ऐसा नहीं हुआ है वहां विवाद भी अधिक हुए हैं.

यहां हमने जिन श्रीमती एबॉनी बैंक्स के ज़िक्र से अपनी बात शुरु की, वे अपनी बेटी के स्कूल के इस फैसले से बेहद नाराज़ हैं. इतनी कि उन्होंने स्कूल के सर्वोच्च  प्रशासन से शिकायत  करने के साथ-साथ संघीय अधिकारियों का दरवाज़ा भी खटखटाया है और सिविल राइट्स में भी शिकायत दर्ज़ कराई है. उनका कहना है कि उनकी बेटी स्कूल की ऑनर रोल विद्यार्थी है और वो डॉक्टर बनने का ख्वाब देखती है. ऐसी ज़हीन लड़की को महज़ चन्द इंच कपड़ों की खातिर पूरे बीस मिनिट कक्षा से वंचित कर देना नाइंसाफी  है. उनका यह भी कहना है कि स्कूल का यह कृत्य उस बच्ची के मन पर नकारात्मक असर डालेगा, उसके स्व-देह-बोध और स्वाभिमान को ठेस पहुंचाएगा. एबॉनी बैंक्स ने कहा कि स्कूल का यह कृत्य निहायत ही सेक्सिस्ट है और इसने मेरा  खून खौला दिया है. इस विवाद का एक पहलू यह भी सामने  आया कि यह बच्ची जिस अफ्रीकी अमरीकन समूह से ताल्लुक रखती है उनकी देह औरों की तुलना में अधिक मांसल होती हैं, और कदाचित इसी वजह से स्कूल प्रशासन ने उसकी ड्रेस को आपत्तिजनक माना हो. हालांकि स्कूल प्रशासन ने इस सम्भावना को सिरे से नकारा है और कहा है कि वे लड़कों से भी उम्मीद करते हैं कि अपनी पतलूनों को नितम्बों से नीचे न बांधा करें. स्कूल ने अपने कृत्य को उचित ठहराते हुए एक तर्क यह भी दिया कि जैसे चौराहे का सिपाही बहुत सारे वाहन चालकों में से कुछ का ही चालान कर पाता है वैसे ही वे भी सबमें से कुछ ही विद्यार्थियों की वेशभूषा पर आपत्ति कर सके हैं. स्कूल की इस बात से शायद ही कोई असहमत हो कि स्कूल का एकमात्र उद्देश्य यह होता है कि विद्यार्थी अपनी पढ़ाई और कैरियर पर ध्यान दें और साथ ही यह भी  समझें कि जीवन में अलग-अलग अवसरों पर अलग-अलग  वेशभूषा की ज़रूरत होती है. 

लेकिन स्वाभाविक है कि सभी लोग स्कूल के इस कृत्य से सहमत नहीं हैं. तेरह वर्षीया सोला   बियर्स ने स्कूल के इस कृत्य के विरुद्ध अपनी आवाज़  बुलन्द करते हुए कहा कि स्कूल का यह ड्रेस कोड वाकई सेक्सिस्ट है. इसमें लड़कियों के लिए तो बहुत सारे नियम-कायदे हैं, लेकिन लड़कों के लिए एक भी प्रतिबन्ध नहीं है. सबसे उम्दा बात तो कही खुद एबॉनी बैंक्स ने. उन्होंने कहा कि उनकी बेटी घटना वाले दिन से ही विचलित रही लेकिन उसने इस बात को जल्दी ही भुला भी दिया. लेकिन खुद उन्होंने इस मामले को किसी परिणति तक पहुंचाने के लिए अपने प्रयास ज़ारी रखे हैं. वे यह महसूस करती हैं कि यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर व्यापक विमर्श की ज़रूरत है. “मैं नहीं चाहती कि किसी और लड़की को भी मेरी बेटी की तरह अपमानित करके कक्षा से बाहर निकाला जाए!. यह बेहद अपमानजनक  है.”      

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 08 नवम्बर, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.  

जापानी वैज्ञानिकों की उपलब्धि पर गर्व भी है, चिंता भी

आधुनिक विज्ञान जिस तेज़ गति से नए नए करतब करता जा रहा है उससे हम एक साथ ही चकित भी हो रहे हैं और चिंतित भी. चकित होने की वजह तो यह है कि विज्ञान की नव सृजन की गति हमारी कल्पना से भी आगे निकली जा रही है. मैं तो प्राय: सोचता हूं कि अगर कोई चमत्कार हो जाए और सौ बरस पहले रहा कोई व्यक्ति आज की दुनिया में आ जाए तो वह अपने चारों तरफ की दुनिया देखकर पगला ही जाएगा. इधर हाल में जापान से एक नए सृजन की जो ख़बरें आई हैं वे एक बार फिर हमें दांतों तले उंगलियां दबाने को मज़बूर कर रही हैं. जापान के वैज्ञानिकों की एक टीम ने साया नाम की एक कन्या का निर्माण किया है, और यह कन्या आजकल जापान की बहुत बड़ी सेलेब्रिटी बनी हुई है. स्कूली परिधान में सजी-धजी झालरदार बालों वाली इस  सत्रह वर्षीय  बाला को जो भी देखता है  उसका ध्यान इस बात की तरफ जाता ही नहीं है कि वो इंसान नहीं है. जो भी उसे देखता है वो  सच्चाई को जानने के बाद भी यही कहता है कि वह एकदम वास्तविक लड़की लगती है.

जापान में एक बड़ी टीम  ने काफी लम्बे प्रयासों  के बाद इस साया नाम वाली कन्या  का सृजन किया है. इस टीम की ग्राफिक आर्टिस्ट  यूका इशिकावा और उनके पति ने जब साया की तस्वीरें ऑनलाइन  जारी की तो दुनिया ने पहली बार यह जाना कि कम्प्यूटर डिज़ाइन से क्या कमाल किया जा सकता है. यूका इशिकावा  को लोगों से जो प्रतिक्रियाएं मिली हैं वे अभिभूत कर देने वाली हैं. जिन्होंने भी उनके सृजन साया को देखा है, यही कहा है कि यह तो एकदम वास्तविक लगती है. और लगेगी भी क्यों नहीं! बीते एक साल के दौरान इस दम्पती ने साया को हूबहू इसान बनाने के लिए मेहनत भी तो कम नहीं की है. यूका इशिकावा  ने बताया है कि उन्होंने साया को मानवीय बनाने के लिए उसके सिर से  अंगूठे तक कड़ी मेहनत की है. अपनी मेहनत की बात को और स्पष्ट करते हुए यूका  इशिकावा ने एक मार्मिक बात कही है. उन्होंने कहा है, “हम खुद को साया के पैरेण्ट्स के तौर पर  नहीं देखते हैं, लेकिन हमने उसे अपनी बेटी की तरह ही प्यार और लगाव से तैयार किया है.” यूका  और उनकी टीम ने साया के सृजन के लिए टोक्यो के शिबुआ इलाके में रहने वाली लड़कियों को मानक माना है. साया में उन्होंने जापानी महिलाओं में पाए जाने वाले तमाम गुणों को शामिल किया है, इसलिए वह दयालु, भली और नैतिक मूल्यों से युक्त लड़की है. क्यूट तो वो है ही. और हालांकि इस कृत्रिम संरचना की अपनी कोई उम्र नहीं है, उसे सत्रह वर्षीया कन्या के रूप में तैयार किया गया है.

वैसे साया के सृजन की कथा बड़ी रोचक है. मूलत: इस टीम को एक शॉर्ट फिल्म के लिए एक किरदार की रचना करनी थी, और इस तरह साया का सृजन एक साइड प्रोजेक्ट भर था. लेकिन जब यह प्रोजेक्ट बहुत सराहा गया तो यूका इशिकावा को इसमें अपरिमित सम्भावनाएं नज़र आने लगीं, और तब उन्होंने और उनके पति ने अपनी नौकरी छोड़ दी और वे पूरी तरह से साया के सृजन में जुट गए. नौकरी से बचाए हुए पैसों से उन्होंने अपना चूल्हा जलाए रखा और प्रोजेक्ट  के लिए धन सुलभ कराया  कॉरपोरेट घरानों ने. अब जबकि साया पर काफी काम किया जा चुका है, और इसी सप्ताह उसका पहला एनिमेटेड प्रारूप जापान में आयोजित होने वाली  कंज्यूमर इलेक्ट्रॉनिक एक्ज़ीबीशन में प्रदर्शित किया जा रहा है, इशिकावा युगल महसूस करते हैं कि उन्हें अभी इसकी चाल-ढाल को और संवारना है.  उन्हें लगता है कि साया जब चलती है तो उसके मूवमेण्ट सहज नहीं बल्कि  झटकेदार होते हैं. अपने सपनों को और विस्तार देते हुए अब इशिकावा दम्पती  इसे एक वर्चुअल ह्यूमन के रूप में विकसित करना चाहते हैं. उनका खयाल है कि आर्ट तकनीकी की मदद से वे साया को फ्रेम के दायरे से बाहर निकाल कर आम लोगों के संसार में ला सकेंगे. तब साया आम लड़कियों की तरह बात करेगी और लोगों को भावनात्मक संबल भी प्रदान कर सकेगी.

और यहीं उस बड़े ख़तरे की आहट भी सुनी जा सकती है जो इस प्रयोग की सफलता के पीछे से झांक रहा है. सोचिये, अगर यह प्रयोग कामयाब रहा तो क्या हमें इस आशंका से भयभीत नहीं होना चाहिए कि कल को कोई ताकतवर सत्ता अपनी मनपसंद प्रजा का सृजन नहीं कर डालेगी! और अगर वह प्रजा भली नहीं हुई तो? अगर किसी ने दैत्यों की ही एक दुनिया का निर्माण कर डाला तो? बेशक ये सम्भावनाएं, या आशंकाएं अभी हमारे बहुत नज़दीक नहीं हैं लेकिन यह हमारे अपने हित में होगा कि हम इनके बारे में सावचेती बरतें. 


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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 01 नवम्बर  को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.