Wednesday, August 10, 2016

अगर बुद्धिमान बनना है तो आलसी हो जाओ!

शायद आपने भी कभी यह बात पढ़ी-सुनी हो कि सुबह जल्दी उठने वालों ने दुनिया में कोई तरक्की नहीं की है. तरक्की तो उन आलसियों ने की है जो कुछ करने के आसान तरीके तलाश करने में जुटे रहे हैं. अगर यह बात कभी आपने न भी सुनी हो तो यह ज़रूर सुनी होगी कि बिल गेट्स अपने  प्रोजेक्ट्स हमेशा उन्हीं इंजीनियरों को सौंपा करते थे जो सबसे ज़्यादा आलसी माने जाते थे. ऐसा वह जानबूझ कर करते थे, क्योंकि उनका मानना था कि वे आलसी लोग ही अपने काम को सबसे ज़्यादा तेज़ गति और बेहतर तरीके से पूरा कर सकने की काबिलियत रखते हैं.  शायद यही वजह हो कि यह कथन प्रचलित हो गया है कि दक्षता बुद्धिमत्तापूर्ण आलसीपन का ही दूसरा नाम है!

और अब तो एक ताज़ा शोध ने इस बात पर प्रमाणिकता की एक और मुहर भी लगा दी है. यह शोध हुई है अमरीका की  फ्लोरिडा गल्फ़ कोस्ट यूनिवर्सिटी में. इसका बड़ा निष्कर्ष यह है कि ज़्यादा सोचने वाले लोग कम सोचने वालों की तुलना में अधिक आलसी होते हैं. इसे यों भी कहा जा सकता है कि बुद्धिमान लोग शारीरिक रूप से सक्रिय  लोगों की तुलना में आलसी होते हैं. इस शोध ने प्रकारांतर से इस बात  को ही पुष्ट किया है कि जिन लोगों का आईक्यू (बौद्धिक स्तर)  ज़्यादा होता है वे बहुत जल्दी बोर हो जाते हैं और इस वजह से वे अपना अधिक समय चिंतन में व्यतीत करते हैं. और इसके विपरीत वे लोग जो अधिक सक्रिय होते हैं, वे अपने दिमागों को उद्दीप्त करने के लिए बाह्य गतिविधियों में अधिक लिप्त होते हैं. ऐसा वे कदाचित अपने विचारों से पलायन के लिए भी करते हैं और या फिर इसलिए करते हैं कि वे बहुत जल्दी बोर हो जाते हैं.

टॉड मैकएलरॉय के निर्देशन में की गई इस शोध में शोधार्थियों को ‘संज्ञान की ज़रूरत’ शीर्षक वाली एक प्रश्नावली दी गई और चाहा गया कि वे “मुझे वाकई ऐसे काम करने में आनंद मिलता है जिनमें समस्याओं के नए समाधान तलाशे जाते हैं” और “मैं बस उतना सोचता हूं जितना सोचना मेरे लिए ज़रूरी होता है” जैसे कथनों पर यह अंकित करें कि वे उनसे किस हद तक सहमत या असहमत हैं. प्रश्नावली पर प्राप्त उत्तरों के आधार पर शोध निदेशक महोदय ने तीस ‘चिंतक’ और तीस ही ‘ग़ैर चिंतक’ शोधार्थियों को चुना. इसके बाद की शोध इन्हीं साठ शोधार्थियों पर की गई. इन साठों शोधार्थियों की कलाई पर घड़ी जैसा एक उपकरण पहना दिया गया जो उनकी सारी हलचलों को अंकित करते हुए ये सूचनाएं संकलित करता रहता था कि वे शारीरिक  रूप से कितने सक्रिय हैं. एक सप्ताह के अंकन ने यह प्रदर्शित किया कि ‘चिंतक’ समूह वाले ‘ग़ैर चिंतक’  समूह वालों की तुलना में कम सक्रिय थे.

इस अध्ययन के निष्कर्ष जर्नल ऑफ हेल्थ साइकोलॉजी में प्रकाशित हुए हैं और आंकड़ों के लिहाज़ से इन्हें अत्यधिक महत्वपूर्ण और तगड़ा माना जा रहा है. ब्रिटिश साइकोलॉजिकल सोसाइटी ने भी इस शोध को महत्वपूर्ण मानते हुए इसे इस टिप्पणी के साथ उद्धृत किया है: “अंतत: एक ऐसी महत्वपूर्ण जानकारी  सामने आई है जो अधिक चिंतनशील व्यक्तियों को उनकी बहुत कम औसत सक्रियता पर नियंत्रण करने में मददगार साबित होगी.” इसी टिप्पणी में आगे यह भी कहा गया है कि जब इन समझदार लोगों को अपनी कम सक्रियता की जानकारी होगी और उन्हें यह पता चलेगा कि इस कम सक्रियता का कितना ज़्यादा मोल उन्हें चुकाना पड़ सकता है, तो वे अधिक सक्रिय होने की कोशिश करेंगे. खुद शोध निदेशक टॉड मैकएलरॉय ने भी चेतावनी भरे शब्दों में कहा है कि जो लोग कम सक्रिय हैं, भले ही वे कितने भी बुद्धिमान क्यों न हों, उन्हें अपनी सेहत को मद्देनज़र रखकर अपनी शारीरिक सक्रियता में वृद्धि करनी चाहिए.  

लेकिन इन बातों से यह न समझ लिया जाए कि यह शोध अंतिम और निर्णायक है. खुद इसी शोध के दौरान यह बात भी सामने आई कि हालांकि पूरे सप्ताह तो इन दोनों समूहों की गतिविधियों में भारी अंतर पाया गया लेकिन सप्ताहांत के दौरान दोनों समूहों की गतिविधियां एक जैसी पाई गईं. जिन्होंने यह शोध की है वे इस फ़र्क के बारे में कोई स्पष्टीकरण नहीं दे पाये हैं. दूसरी बात यह कि क्या महज़ साठ लोगों पर की गई शोध को पूरी मनुष्य जाति पर लागू कर लेना बुद्धिमत्तापूर्ण होगा? क्या जिन पर यह शोध की गई उनकी संख्या अत्यल्प नहीं है? हमारा तो यही कहना है कि इस तरह की शोधों को सिर्फ इस नज़र से देखना चाहिए कि शोध की दुनिया में भी क्या-क्या अजूबे होते हैं!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 09 अगस्त, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.