इस बरस मार्च के आखिरी दिन से फ्रांस की
राजधानी पेरिस से एक नई तरह के आन्दोलन का सूत्रपात हुआ है. हिन्दी में इस आन्दोलन
को कहा जा सकता है ‘जागो सारी रात!’ और
जैसा कि नाम से ही ज़ाहिर हो जाता है, हर शाम छह बजते-बजते लोग पेरिस के रिपब्लिक
चौक में इकट्ठा होते हैं और विभिन्न मुद्दों पर अपनी बात कहते हैं. पृष्ठभूमि में
यह बात कि पेरिस में फरवरी माह में कोई तीन चार सौ लोग मिले और
यह विचार करने लगे कि ऐसा क्या किया जाए कि सरकार थोड़े दबाव में आए. और तब एक
विचार यह भी आया कि क्यों न लोग एक जगह एकत्रित हों और घर जाएं ही नहीं. बस इसी
विचार से जन्मा यह आन्दोलन. इसकी शुरुआत हुई फ्रांस के जटिल श्रम कानून को शिथिल बनाने वाले वहां की
वर्तमान सरकार के तथाकथित सुधारवादी कदमों का विरोध करने के लिए लोगों के इकट्ठा
होने से. पहला अनुभव बहुत दिलचस्प रहा. लोग पेरिस के उस चौक में इकट्ठा होने ही लगे
थे कि मूसलाधार बारिश होने लगी. इसके
बावज़ूद लोग आते रहे और डटे रहे. काफी देर बाद बारिश रुकी, लेकिन लोग फिर भी वहां
से गए नहीं. और फिर हर रोज़ लोग वहां जुटने लगे. तब इस आन्दोलन का कोई सुविचारित
स्वरूप निर्धारित नहीं था. चौक में अनगिनत
लोग सिर्फ इस आस में इकट्ठा हो गए थे कि सरकार उनकी मांगों की तरफ ध्यान देगी. न
आन्दोलन का कोई नेता था और न कोई रूपरेखा. जिसकी जो मर्ज़ी में आए, बोलने लगता था.
कुछ अराजक तत्वों के घुस आने की वजह से यदा-कदा यह जमावड़ा छोटी-मोटी हिंसा का
शिकार भी हुआ, लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता एक व्यवस्था कायम होने लगी. लोग ही एक दूसरे की मदद करने
लगे, संसाधन जुटाने लगे और एक आत्मीयतापूर्ण लेकिन प्रतिरोधक मेले का–सा माहौल
बनने लगा. वक्ताओं के लिए स्टैण्ड आ गया,
छोटे-मोटे टैण्ट लगा दिये गए और साधारण काम चलाऊ जलपान की व्यवस्था भी हो गई. कुछ
समितियां भी बना ली गई जो समाज और संविधान की नई रूपरेखाओं पर विचार करने लगी हैं.
इतना ही नहीं, एक गायक समूह भी तैयार हो गया जो क्रांतिकारी गाने गाता है, और कुछ
लोग नारे कविताएं भी रचने लगे हैं. ऐसा लगता है जैसे एक नया लघु समाज उभरने लगा
है.
और अब जब इस आन्दोलन चलते हुए तीन माह से ज़्यादा बीत चुके हैं, इसकी
निरंतरता शेष दुनिया का भी ध्यान आकर्षित करने लगी है. इस आन्दोलन का बगैर
किसी नेतृत्व के इतने समय तक चल जाना यह साबित करता है कि फ्रांस की जनता का अपने
राजनीतिज्ञों से मोहभंग हो चुका है और
वहां की वाम सरकार यह साबित करने में नाकामयाब रही है कि वह शक्तिशाली वित्तीय
संस्थाओं के दबाब से मुक्त है. लोग अपने
देश के शासन से भी नाखुश हैं. उनमें से
अनेक को लगता है कि वहां आपातकाल जैसे हालात हैं. नागरिकों पर नज़र रखने वाले नए
कानून, न्याय व्यवस्था में किए गए बदलाव और सुरक्षा विषयक धर- पकड़ का बढ़ते जाना लोगों को आहत कर रहा है. अब यह आन्दोलन पेरिस और फ्रांस की सीमाओं से
बाहर निकलकर बेल्जियम, जर्मनी और स्पेन के अस्सी
से ज़्यादा शहरों में फैल चुका है. जर्मनी से बाहर के देशों में इसी तरह के
आन्दोलन के माध्यम से सरकारी बजट में कटौती, वैश्वीकरण, बढ़ती जा रही असमानता,
निजीकरण और यूरोप महाद्वीप की कठोर प्रवासी
विरोधी नीतियों का विरोध हो रहा
है. किसी ने बहुत सही टिप्पणी की है कि इस जन-प्रतिरोध की शुरुआत पेरिस में नहीं
हुई है और न यह फ्रांस तक सीमित रहने वाला है. यह आन्दोलन सीमा रहित है, देशों की
परिधियों से मुक्त है और जो भी इससे जुड़ना
चाहते हैं उन सबका स्वागत करता है.
इस आन्दोलन का खुद-ब-खुद शुरु होना और
इतने समय तक न सिर्फ जारी रहना बल्कि मज़बूत भी होते जाना इस बात की भी गवाही देता
है कि अगर दुनिया में कहीं वास्तविक बदलाव आया तो उसके वाहक नागरिक गण ही होंगे.
बहुत दिलचस्प बात यह है कि अभी तक इस
आन्दोलन का न तो कोई नेता है और किसी
संगठन का बैनर यहां दिखाई देता है. यह बात खुद फ्रांस वासियों को चकित करती है. इस
स्वत: स्फूर्त आन्दोलन की एक महती कामयाबी यह भी है कि फ्रांस सरकार इसका नोटिस
लेने को विवश हुई है और उसने युवा आन्दोलनकारियों के तात्कालिक तुष्टिकरण के लिए
चार पाँच सौ मिलियन यूरो की विद्यार्थी सहायता की घोषणा कर दी है. एक सरकारी
विज्ञप्ति के अनुसार इस राशि से रोज़गार की तलाश कर रहे युवा स्नातकों को अनुदान और
अन्य काम सीखने वालों व विद्यार्थियों को सहायता दी जा सकेगी.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 21 जून, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.