Wednesday, May 18, 2016

चैन से सोना है तो जाग जाओ

कबीरदास की उलटी बाणी।
बरसै कंबल भीगै पानी  ।।

ये पंक्तियां हम सबने कभी न कभी पढ़ी या सुनी होगी. अटपटी या विरोधाभासी बात सुनते ही हम चौंक पड़ते हैं और सोचने लगते हैं कि अरे, ऐसा कैसे सम्भव है.  और बस इसी से कहने वाले का मक़सद पूरा हो जाता है. वो यही तो चाहता है कि हम उसकी तरफ ध्यान दें. आपको टीवी का वो विज्ञापन भी ज़रूर याद होगा जिसमें एक डरावना-सा शख़्स आकर आपसे कहता है: ‘चैन से  सोना है तो जाग जाओ!’ मन तो बहुत करता है कि अगर वो बन्दा कहीं मिल जाए तो पूछूं कि भाई मेरे, जागने से भला सोने का क्या नाता है? लेकिन कम्बख़्त मिलता ही नहीं है. और अभी तो हद्द ही हो गई है. इसी बन्दे का एक नज़दीकी रिश्तेदार सात समुद्र  पार अमरीका में और प्रकट हो गया है. इसका नाम है सेम्युअल पेरी. इसने एक गम्भीर शोध करने के बाद जो निष्कर्ष हम सब पर उछाला है उसे पढ़कर आप भी चौंक जाएंगे. पेरी ने कहा है कि जो लोग सप्ताह में एक बार से ज़्यादा पोर्न देखते हैं वे उन लोगों की तुलना में जो इससे कम या बिल्कुल भी पोर्न नहीं देखते हैं, अधिक धार्मिक होते हैं. मतलब बिल्कुल स्पष्ट है. अगर आपको धार्मिक होना है तो नियमपूर्वक पोर्न देखना शुरु कर दीजिए! है ना चैन से सोना है तो जाग जाओ वाली बात!   

और सेम्युअल पेरी ने यह बात बग़ैर किसी आधार के कह दी हो, ऐसा भी नहीं है. यूनिवर्सिटी  ऑफ ओक्लाहोमा में समाजशास्त्र और धार्मिक  अध्ययन विषय के सहायक प्रोफेसर पेरी ने सन 2006 से 2012 तक यानि पूरे छह  साल तक गहन अध्ययन करने के बाद  ऐसा कहा है. यह अध्ययन उसने पोर्ट्रेट्स ऑफ अमेरिकन लाइफ स्टडी (पाल्स) नामक एक प्रतिनिधि राष्ट्रीय सर्वेक्षण के साथ मिलकर किया. इस अध्ययन में भाग  लेने वाले कुल  1314 वयस्कों ने, जो अमरीकी समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं, नियमित रूप से अपने पोर्न उपभोग के बारे में सूचनाएं दीं और अपने धार्मिक व्यवहार के बारे में अनेक सवालों के जवाब दिए. अब इस अध्ययन के परिणाम जर्नल ऑफ सेक्स रिसर्च में प्रकाशित होकर  चर्चित हो रहे हैं.  पेरी ने पाया है कि जो लोग महीने में दो-तीन दफा ही पोर्न देखते हैं उनकी रुचि धर्म में बहुत ही कम होती है, जबकि इससे अधिक आवृत्ति से ऐसा करने वालों की धार्मिक रुचि में थोड़ी-सी वृद्धि लक्ष्य की गई. पेरी ने इस बात को समझाते हुए कहा है कि असल में होता यह है कि जब कोई धर्मपरायण व्यक्ति कभी-कभार  पोर्न देखता है तो उसे अपराध-बोध होता है और वो अपनी आस्था से थोड़ा डिग जाता है. लेकिन जब कोई व्यक्ति नियमित रूप से ऐसा करता है तो शायद वह अपने इस व्यवहार को संतुलित करने के लिए और खुद को यह दिलासा देने के लिए कि वह पथभ्रष्ट नहीं हो रहा है, धर्म में अधिक रुचि लेने लगता है. यानि जो लोग नियमित रूप से पोर्न देखते हैं वे अपने अपराध बोध को कम करने के लिए ईश्वर की शरण में ज़्यादा जाने लगते हैं. उनकी धार्मिक जिज्ञासाएं भी बढ़ जाती हैं.  पेरी ने अपने अध्ययन में यह भी पाया कि नियमित रूप से पोर्न देखने वाले धर्म स्थलों में अधिक जाते  और धार्मिक क्रियाकलापों में ज़्यादा सक्रिय रूप से भाग लेते हैं. पेरी ने यह भी बताया कि यह प्रवृत्ति स्त्रियों और पुरुषों  में एक समान  पाई गई. लेकिन ऊपर जिस सर्वेक्षण का ज़िक्र किया गया है उसमें यह बात  भी स्वीकार की गई है कि सामान्य रूप से पुरुषों की तुलना में स्त्रियां अधिक धार्मिक होती हैं, हालांकि धार्मिक संशयों  के मामले में पुरुष उनसे आगे पाए गए हैं. 

निश्चय ही पेरी का यह सर्वेक्षण इस विषय पर अंतिम सत्य की तरह स्वीकार नहीं किया जा सकता. मज़ाक की बात अलग है, यह निष्कर्ष निकाल लेना क़तई  युक्तिसंगत नहीं हो सकता कि अगर लोगों की धार्मिक रुचि  में वृद्धि करनी हो तो उन्हें पोर्न देखने को प्रेरित किया जाए. असल में धर्म या सद आचरण और व्यक्ति के निजी आचरण का रिश्ता इतना सीधा-सपाट नहीं होता है कि तुरंत किसी निष्कर्ष पर पहुंच जाया जाए. यह भी सही है कि पोर्नोग्राफी की न सराहना की जा सकती है और न उसका समर्थन किया जा सकता है. प्रथमत: और अंतत: भी, यह एक विकृति ही है. पेरी का सर्वेक्षण चाहे जो कहे, इस विकृति से दूरी बनाए रखने में ही मनुष्यता का हित निहित है, लेकिन इसी के साथ यह भी कहा जाना ज़रूरी है कि यह सर्वेक्षण पारम्परिक रूप से चले आ रहे सोच को ध्वस्त कर चीज़ों को नए नज़रिये से देखने की प्रेरणा देता है. 
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 17 मई, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.