Tuesday, December 27, 2016

ज़रूरी है सोशल मीडिया पर सक्रियता की अति से बचना

सजीव सम्पर्कों में भरोसा रखने वाले भारतीय समाज के लिए आभासी जगत का सोशल मीडिया अपेक्षाकृत नई परिघटना है, फिर भी इस बात को स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि पारम्परिक भारतीय  समाज ने भी इसे बहुत तेज़ी से अपनाया है. जहां युवा पीढ़ी ने तकनीक पर अपनी अधिक पकड़ की वजह से इस मीडिया का अधिक प्रयोग किया है, गई पीढ़ी के लोग भी इसके प्रयोग में बहुत पीछे नहीं हैं. मेरे इस प्रयोग गई पीढ़ीको अन्यथा न लिया जाए, मैं खुद इसी पीढ़ी से ताल्लुक रखता हूं. यह प्रयोग केवल शरारतन किया गया है. सोशल मीडिया के तमाम मंचों पर भारतीय सक्रियता देखी जा सकती है. जहां इन मंचों पर सक्रिय लोग इनकी उपादेयता को लेकर आश्वस्त हैं, वहीं अनेक विचारशील लोग और वे लोग जो इनसे दूरी बनाए हुए हैं, न केवल इनकी उपादेयता पर सवाल उठाते हैं, इनके दुष्प्रभावों को लेकर भी चिंतित पाए जाते हैं. सोशल मीडिया को लेकर सबसे बड़ी शिकायत तो इसके आभासी चरित्र की वजह से ही की जाती है. यानि यहां जो होता है वो होकर भी नहीं होता. आपके सौ दौ सौ मित्र यहां होते हैं,लेकिन वे असल में मित्र होते  ही  नहीं. एक बहु प्रचलित लतीफे को याद किया जा सकता है कि एक ऐसा व्यक्ति जिसके फेसबुक पर चार हज़ार मित्र थे, जब अपनी अंतिम यात्रा पर निकला तो उसकी अर्थी उठाने वाले चार कंधे भी बड़ी मुश्क़िल से जुटाए जा सके.

इधर अपने देश में सोशल मीडिया पर सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता भी खूब देखी जाती है. लोग घर से निकले बग़ैर ही इस मीडिया के मंच पर भारी भारी क्रांतियां कर रहे हैं. अब तो विरोध-प्रदर्शन  और एकजुटता के दिखावे के लिए किसी सार्वजनिक जगह पर जाकर मोमबत्ती  जलाने की भी ज़रूरत नहीं रह गई है. तकनीक की मेहरबानी से आप अपने कम्प्यूटर, लैपटॉप, डेस्कटॉप या मोबाइल पर ही मोमबत्ती जला लेते हैं. इस मीडिया की महत्ता और ताकत को हमारे राजनीतिज्ञों और दलों ने भी समझा और इसका अपने-अपने हित में इस्तेमाल किया है. पिछले चुनाव के बाद देश के हर महत्वपूर्ण राजनीतिक दल ने सोशल मीडिया पर अपनी सक्रियता बढ़ाई है. सरकार ने भी जनता तक अपनी बात पहुंचाने के लिए इसका प्रयोग करना शुरु किया है. इन सकारात्मक बातों के साथ-साथ, कहा जाता है कि विभिन्न राजनीतिक दलों ने विरोध के स्वरों को कुचलने  के लिए छ्दम प्रयोक्ताओं (ट्रॉल्स) का भी प्रयोग करना शुरु किया है. सोशल  मीडिया पर सक्रिय इस प्रजाति  के प्राणी अपनी हिंसक, अभद्र, आक्रामक  और प्राय: अश्लील टिप्पणियों से शत्रुओंको क्षत-विक्षत करने का प्रयत्न करते पाए जाते हैं.

यानि सोशल मीडिया का एक हिस्सा है जो सोशल नहीं रह गया है. लेकिन बात सिर्फ इतनी ही नहीं है. भारत के बाहर दुनिया के अन्य देशों में भी सोशल मीडिया के दुष्प्रभावों  पर चिंता होने लगी है. हाल में अमरीका के पिट्सबर्ग  विश्वविद्यालय के सेण्टर फॉर रिसर्च ऑन मीडिया, टेक्नोलॉजी  एण्ड हेल्थ ने अपने एक अध्ययन में पाया है कि एकाधिक सोशल मीडिया मंचों पर सक्रिय रहने वालों के अवसाद  और चिंता ग्रस्त होने की आशंका अधिक रहती है. इस अध्ययन में यह बताया गया है कि जो लोग सात से दस तक सोशल मीडिया मंचों पर सक्रिय रहते हैं वे अधिकतम दो मंचों पर सक्रिय रहने वालों की तुलना में तीन गुना ज़्यादा अवसाद ग्रस्त या व्याकुल रहते हैं. अध्ययन में यह जानने का भी प्रयास किया गया कि ऐसा क्यों होता है. असल  में जब कोई अनेक मंचों पर सक्रिय होता है तो वह अपनी छवि को लेकर बहुत व्याकुल हो जाता है और उसका निर्वहन करने की फिक्र उसे अवसाद या व्याकुलता की तरफ ले जाती है. होता यह है कि आप अपने दिन का  प्रारंभ अन्य लोगों से अपनी तुलना करते हुए करते हैं  और महसूस करते हैं कि औरों की तुलना में आप पिछड़ गए हैं.  ऐसा ही हुआ सेन डियागो के एक 33 वर्षीय उद्यमी जैसन  ज़ुक के साथ. विभिन्न  मंचों पर उसने अपने तैंतीस हज़ार फॉलोअर्स तो जुटा लिये लेकिन उसके बाद उसे महसूस होने लगा कि वो इस डिजिटल विश्व में उन  फॉलोअर्स  की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पा रहा है. और यही बात उसके मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालने लगी. इन मंचों के प्रयोक्ता जानते हैं कि कम लाइक्स का मिलना किस तरह लोगों को चिंतित कर देता है. शायद इन्ही तमाम कारणों से पश्चिम  में तो लोगों को सलाह दी जाने लगी है कि वे तीन से ज़्यादा मंचों पर सक्रिय न रहें, और यह भी कि बीच-बीच में इन मंचों से पूरी तरह अनुपस्थित भी होते रहें. उक्त जैसन ज़ुक को दी गई तीस दिनों के सोशल मीडिया डीटॉक्स की सलाह को इसी संदर्भ में याद कर लेना उपयुक्त होगा.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अन्तर्गत मंगलवार, 27 दिसम्बर, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख  का मूल पाठ. 

Tuesday, December 20, 2016

टीवी शो में सांसद की जगह नज़र आया एक हैण्डबैग

अपने देश में कभी नेहरु खानदान के कपड़े पेरिस से धुल कर आने की बात उनकी अमीरी के गुणगान के लिए की जाती थी लेकिन बाद में इसी बात को उनकी विलासिता का द्योतक बना कर पेश किया जाने लगा. एक गृह मंत्री जी के बार-बार कपड़े बदलने की चर्चाएं लोक स्मृति से लुप्त भी नहीं हुई थीं कि एक बहुत महंगा और नाम लिखा सूट चर्चाओं के केंद्र में आ गया. लेकिन अगर आप यह सोच कर लज्जित होते रहे हों कि हमारे देश में राजनीति का स्तर नीतियों की बजाय नेताओं के निजी पहनने-ओढ़ने तक उतर आया है तो ज़रा ठहर कर यह वृत्तांत भी पढ़ लीजिए. 
  
बीबीसी वन के लोकप्रिय व्यंग्यात्मक शो हैव आई गोट  न्यूज़ फॉर यू के एक एपीसोड में पैनलिस्ट पॉल मेर्टन के साथ ब्रिटेन की पूर्व काबीना मंत्री और मौज़ूदा सांसद निकी मॉर्गन को शिरकत करनी थीलेकिन उनकी जगह दर्शकों ने देखा उनके चमड़े के भूरे रंग के हैण्डबैग  को. शो के प्रोड्यूसर्स ने पिछली सितम्बर में इस शो के लिए निकी मॉर्गन को अनुबंधित किया था, लेकिन इसी बीच निकी ब्रिटिश प्रधानमंत्री के साथ एक अप्रिय विवाद में उलझ गईं. हुआ यह कि प्रधानमंत्री टेरीज़ा मे ने 995 पाउण्ड कीमत का अमंदा वेकली द्वारा डिज़ाइन किया हुआ लेदर ट्राउज़र पहन कर एक फोटो शूट में हिस्सा लिया तो निकी उन पर यह कहते हुए पिल पड़ीं कि प्रधानमंत्री की इस तरह की विलासितापूर्ण फैशन रुचि उनके निर्वाचन क्षेत्र के लोगों को शायद ही पसंद आए. उन्होंने यह और कह दिया कि मेरे पास कोई लेदर ट्राउज़र नहीं है, और मेरा खयाल है कि मैंने अपने  शादी के जोड़े के सिवा कभी किसी चीज़ पर इतना पैसा नहीं खर्चा है. इस विवाद की चर्चाओं को सोशल मीडिया  तक तो पहुंचना ही था  और वहां इन्हें एक नया नाम मिल गया‌ ट्राउज़र गेट.

इन चर्चाओं के परवान चढ़ने के साथ दो बड़ी बातें हुईं. पहली तो यह कि दस डाउनिंग स्ट्रीट ने निकी मॉर्गन को नकारना शुरु कर दिया. इस टिप्पणी के बाद प्रधानमंत्री जी की जॉइण्ट चीफ़ ऑफ स्टाफ़ सुश्री हिल ने ब्रेक्सिट पर विचार करने के लिए काफी पहले निकी को दिया निमंत्रण वापस ले लिया. ये सुश्री हिल प्रधानमंत्री की गेट कीपरमानी जाती हैं. एक ब्रिटिश अख़बार ने सुश्री हिल का एक टेक्स्ट मैसेज ही छाप दिया जिसमें उन्होंने उसी बैठक में आमंत्रित एक अन्य सज्जन को यह कहा है कि “उस  औरत को नम्बर दस में फिर कभी ना लाया जाए.” नम्बर दस डाउनिंग स्ट्रीट ब्रिटिश प्रधानमंत्री के राजकीय आवास नाम है.  दूसरा काम यह हुआ कि सत्ता पक्ष के खबरियों ने खासी गहन खोज  बीन के बाद यह पता कर लिया कि प्रधानमंत्री जी के महंगे ट्राउज़र की आलोचना करने वाली निकी मॉर्गन भी महंगी चीज़ों से परहेज़ नहीं करती हैं. इन लोगों ने एक तस्वीर खोज निकाली जिसमें निकी मॉर्गन के हाथ में एक खासे महंगे और लक्ज़री ब्राण्ड मलबरी का बैग है जिसकी कीमत प्रधानमंत्री जी द्वारा पहने गए ट्राउज़र की कीमत से महज़ 45 पौण्ड कम यानि 950 पाउण्ड बताई गई. जैसा कि इन सारे प्रकरणों में होता है, निकी मॉर्गन के एक नज़दीकी सूत्र ने तुरंत इस खबर का खण्डन यह कहते हुए कर दिया कि यह बैग हाल का नहीं बल्कि एक दशक पुराना है, और इसे निकी ने खुद नहीं खरीदा था, बल्कि यह उन्हें भेंट में मिला था. लेकिन विवाद इतने पर कैसे थम सकता था? इस पक्ष ने यह बात भी खोज निकाली कि टेरीज़ा मे  ने लक्ज़री लेग्स नामक एक कम्पनी से 140 पाउण्ड मूल्य के वस्त्र बलात लिये थे.  सरकारी दस्तावेज़ों को खंगाल कर यह भी पता लगा लिया गया कि उन्होंने इंग्लैण्ड  और पाकिस्तान के बीच हुए एक दिवसीय क्रिकेट  मैच के लिए दो टिकिट स्वीकार किये थे, वे बीबीसी प्रॉम्स में भी गई थीं और उन्होंने एक दक्षिण पंथी अख़बार और प्रेस बैरन की तरफ से आयोजित डिनर का निमंत्रण भी स्वीकार किया था. सरकारी विवरणों को टटोलकर इतना तक जान लिया गया कि टेरीज़ा मे हेलीकन डेज़ नामक एक कम्पनी से एक डिज़ाइनर स्कार्फ़ बतौर  उपहार स्वीकार कर चुकी हैं.

माननीय प्रधानमंत्री जी पर इतने प्रहार करने वाली निकी मॉर्गन की बजाय अगर बीबीसी वन के शो में दर्शकों को उनके हैण्डबैग के दर्शन कर संतुष्ट होना पड़ा तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. लेकिन हम निकी मॉर्गन के हास्य बोध की दाद ज़रूर देंगे जिन्होंने यह कह कर कि अगर शो वालों ने उनसे मांगा होता तो वे खुद उन्हें अपना बैग दान में दे देतीं अपनी टाँग तो ऊपर रख ही  ली है. प्रशंसा उनके इस संयम की भी की जानी चाहिए कि उन्होंने बजाय कोई अप्रिय बात कहने के मात्र यह कहा है कि वे इस शो से अप्रत्याशित परिस्थितियों की वजह से अनुपस्थित हैं.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अनत्रगत मंगलवार, 20 दिसम्बर, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, December 13, 2016

मानवाधिकारों के मलबे पर स्वास्थ्य का नाच!

सुदूर तुर्कमेनिस्तान में वहां के राष्ट्रपति महोदय ने पूरे-दमखम के साथ अपने देश को स्वस्थ बनाने का एक अभियान छेड़  रखा है. सारी सरकार  फिटनेस का प्रचार करने और देश को धूम्रपान मुक्त बनाने के प्रयासों में जुटी है. विश्व स्वास्थ्य संगठन तक ने सरकार के इस प्रयास को सराहा है और देश में धूम्रपान घटाने के प्रयासों की सराहना स्वरूप एक प्रमाण पत्र भी प्रदान किया है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अध्यक्ष के पास खड़े मुस्कुराते हुए राष्ट्रपति महोदय की एक तस्वीर जिसमें उन्होंने उक्त प्रमाण पत्र और एक मेडल हाथ में ले रखा है, पूरे देश में हर कहीं देखी जा सकती है. लगता है जैसे राष्ट्रपति  महोदय अपने अदृश्य विरोधियों से कह रहे हैं कि देख लो, अब तो अंतर्राष्ट्रीय संस्था ने भी  हमारे प्रयासों को मान्यता दे दी है!

तो क्या राष्ट्रपति महोदय को इस नेक काम के लिए भी अपने विरोधियों की आलोचनाओं का शिकार होना पड़ रहा है? जिन्हें तुर्कमेनिस्तान के बारे में तनिक भी जानकारी है वे इस बात से भली-भांति परिचित होंगे कि इस देश की गणना दुनिया के सबसे अधिक दमनात्मक देशों में होती है और वहां के वर्तमान राष्ट्रपति गुरबानगुली बेर्दीमुहम्मदोव का मानवाधिकार विषयक रिकॉर्ड यह है कि उनके शासन काल में यह देश इस लिहाज़ से दुनिया के निकृष्टतम  देशों में शुमार किया जाने लगा है. लेकिन राष्ट्रपति महोदय नहीं चाहते कि कोई उनके देश में हो रहे मानवाधिकारों  के हनन पर बात तक करे. वे इस मुद्दे पर भी कोई चर्चा करना पसंद नहीं करते कि क्यों उनके आलोचक जेलों से अचानक गायबहो जाते हैं. तो ऐसे राष्ट्रपति महोदय ने अपने देश को स्वस्थ बनाने का यह अभियान चला रखा है और देशवासियों को उनका स्पष्ट संदेश है कि या तो वे उनके अभियान को खुशी-खुशी स्वीकार कर लें और या फिर अपने मुंह बंद रखें. भय उनकी शासन शैली का सबसे मुख्य तत्व है. एक विदेशी पत्रकार ने लिखा है कि उसने तुर्कमेनिस्तान की राजधानी की खूब चौड़ी लेकिन सुनसान सड़कों  का दौरा किया और पाया कि खूबसूरत फव्वारों से सजी संगमरमर की खूबसूरत इमारतों वाले  उस शहर की सारी सड़कें सुनसान पड़ी थीं. लेकिन इसके बावज़ूद उसे लगा कि उसकी हर गतिविधि पर नज़र रखी जा रही थी. जैसे ही उसने तस्वीरें लेने के वास्ते अपना कैमरा निकाला, जाने  कहां से वाकी-टॉकी थामे एक अधिकारी प्रकट हुआ और उसने स्थानीय भाषा में उस पर अपनी नाराज़गी का इज़हार किया और वहां से नौ दो ग्यारह हो जाने को कहा.  पत्रकार कहता है कि उसका लहज़ा ऐसा था कि मेरे पास उसके आदेश का पालन करने के सिवा और कोई चारा ही नहीं था.

ऐसे राष्ट्रपति महोदय ने वहां हेल्थ एण्ड हैप्पीनेसका यह जो अभियान चला रखा है उसकी सराहना और समर्थन की ही आवाज़ें और छवियां सामने आती हैं. ज़ाहिर है कि इससे भिन्न की न किसी को इजाज़त है और न किसी की हिम्मत. हाल में वहां स्वास्थ्य माह मनाया गया जिसमें सरकारी कर्मचारी सार्वजनिक जगहों पर प्रात:कालीन व्यायाम करते प्रदर्शित किये गए, सरकारी टेलीविज़न पर मज़दूरों, बाबुओं, अफसरों और संसद और मंत्रालय के कर्मचारियों को उत्साहपूर्वकइस अभियान में भागीदारी करते बार-बार दिखाया गया.  यह जानने की कोशिश करना बेमानी होगा कि क्या यह सब वे स्वेच्छा से कर रहे थे?  सरकारी टीवी पर खुद राष्ट्रपति महोदय को  स्वास्थ्य प्रचार रैलियों में साइकिल चलाते और जिम में कसरत करते दिखाया जाता है और आम  लोग राष्ट्रपति जी की मंशा की सराहना करते नहीं थकते हैं. टीवी पर विदेशी सिगरेटों की होली जलाने के दृश्य भी खूब दिखाये जाते हैं.

तुर्कमेनिस्तान के अतीत से परिचित लोग इन राष्ट्रपति महोदय का एक प्रसंग अकसर दबी ज़ुबान से सुनाते हैं. राष्ट्रपति जी घुड़दौड़ के शौकीन ही नहीं हैं, यदा-कदा वे खुद इसमें हिस्सा भी लेते हैं. कई बरस पहले ऐसी ही एक घुड़दौड़ में जब वे हिस्सा ले रहे थे तो घोड़ा गिर पड़ा और उस पर सवार महामहिम भी धरती पर गिर पड़े. सारा मंज़र कैमरों में कैद हो रहा था. अचानक एक सुरक्षा अधिकारी खड़ा हुआ और चिल्लाकर बोला, कैमरे बंद कर दें. इसके बाद वहां मौज़ूद सभी छायाकारों के कैमरों को खंगाला गया, और इस रिकॉर्डिंग  को मिटाने के बाद ही उन्हें वहां से जाने दिया गया. इसके बाद टीवी पर मात्र यह दिखाया गया कि महामहिम ने एक रेस में भाग लिया था. इन दिनों तुर्कमेनिस्तान में इस प्रसंग का ज़िक्र इस टिप्पणी के साथ किया जाता है कि जैसे इस खबर में से एक अप्रिय प्रसंग को काट कर इसे दिखाया गया उसी तरह आजकल वहां के कुरूप यथार्थ की छवियों को मिटाकर इस स्वास्थ्य अभियान को प्रचारित किया जा रहा है. 
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 13 दिसम्बर, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, December 6, 2016

सर्जनात्मक गतिविधियां ज़रूरी हैं बेहतरी के लिए

अकादमिक दुनिया में हर दिन नई शोध होती है और बहुत दफा हम पाते हैं कि अब तक हमारा जो सोच था उसे नई शोध ने ग़लत साबित कर दिया है. वैसे यह कोई नई बात भी नहीं है. बहुत पहले से ऐसा होता रहा है. यह बात मानव की वैचारिक गतिशीलता को रेखांकित करती है. हमारी सबसे बड़ी ताकत ही यह है कि हम नई जानकारियां मिलने या नए तथ्य सामने आने पर अपनी पहले बनी हुई धारणाओं को बदलने को तैयार हो जाते हैं. बेशक जीवन के कुछ पक्षों और मानव जाति के कुछ पॉकेट्स में भयंकर रूढि‌बद्धता भी है जहां न केवल किसी बदलाव की कल्पना तक दुश्वार है, उसकी चर्चा तक का सामना भीषण आक्रामकता के साथ किया जाता है. लेकिन  मोटे तौर पर मानवता बहुत खुले मन से नए विचारों को स्वीकार करती है. बदलाव का यह सहज स्वीकार ही मानव जाति के उत्थान का उत्प्रेरक  भी है.

मनोविज्ञान की दुनिया में अब तक यह  माना जाता रहा है कि अगर किसी व्यक्ति के मन में सकारात्मक भाव (तकनीकी शब्दावली में पी.ए. पॉज़िटिव अफेक्ट) मौज़ूद हों तो  उसकी सर्जनात्मता बढ़ जाती है. हम सब भी ऐसा ही मानते रहे हैं.  लेकिन अब न्यूज़ीलैण्ड के ओटागो  विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान विभाग के शोधार्थियों ने तेरह दिन तक 658 विद्यार्थियों के क्रियाकलाप का गहन अध्ययन करने के बाद यह कहा है कि अगर कोई व्यक्ति किसी दिन अधिक सर्जनात्मक गतिविधियों में रत रहता है तो अगले दिन वह अन्य दिनों की तुलना में ज़्यादा उत्साह और अधिक प्रफुल्लता का अनुभव करता है. इस शोध ने अब  तक प्रचलित धारणा को सर के बल खड़ा कर दिया है. डॉ तामलिन कॉनर के नेतृत्व में की गई  इस शोध को इसलिए महत्वपूर्ण माना जा रहा है कि इसने सकारात्मक भाव से सर्जनात्मकता में वृद्धि के विचार के विपरीत जाकर सर्जनात्मकता से सकारात्मकता की वृद्धि की अवधारणा  को स्थापित किया है. अगर शांत मन से सोचें तो यह निष्कर्ष सही भी प्रतीत होता है. जब हम खुद को किसी सर्जनात्मक कर्म में डुबो लेते हैं तो न सिर्फ शांति का अनुभव करते हैं,   उत्फुल्लित  भी महसूस करते हैं. जब भी कोई इस तरह के किसी काम में अपने आप को व्यस्त करता है, उसका तनाव खुद-ब-खुद दूर हो जाता है, उसे अपने नकारात्मक विचारों से मुक्ति मिल जाती है और वो मानसिक रूप से बेहतर अनुभव करने लग जाता है. यह हम सबके साथ होता है. विश्वास न हो तो इसे आज़मा कर भी देख सकते हैं. तो ऐसे में यह मानना उपयुक्त होगा कि  डॉ तामलिन कॉनर अपने शिधार्थियों के शोध के बाद जिस नतीज़े पर पहुंची हैं वो तर्कसंगत है.

ओटागो विश्वविद्यालय के इस शोध कार्य में हालांकि शोधार्थियों ने उक्त 658 विद्यार्थियों से औपचारिक रूप से तो यह नहीं पूछा था कि उन्होंने कौन-कौन-सी सर्जनात्मक गतिविधियों में भाग लिया, इससे पहले किए गए एक अध्ययन में अनौपचारिक रूप से यह जानने का प्रयास किया गया था कि लोग क्या-क्या सर्जनात्मक काम करते हैं. उसी अध्ययन में यह बात पता चली थी कि गाने लिखना, कविता कहानी जैसा सर्जनात्मक लेखन करना सर्वाधिक लोकप्रिय है. सर्जनात्मक काम के कुछ अन्य उदाहरण हैं किसी भी तरह की चित्रकला या कलाकृति का निर्माण जैसे रेखांकन, तस्वीर बनाना, यहां तक कि ग्राफिक या डिजिटल कला में रत होना, सांगीतिक कला में निमग्न होना अर्थात गाना या बजाना, और अगर उदार होकर सोचें तो कलाकारी का क्षेत्र इनसे भी काफी आगे तक बढ़ जाएगा, मसलन रसोई घर में जाकर कोई नई पाक विधि आज़माना या कोई उम्दा डिश बनाना, स्वेटर बुनना, कशीदाकारी करना या क्रोशिए का काम करना आदि.

ओटागो विश्वविद्यालय का यह शोध-अध्ययन एक प्रतिष्ठित पत्रिका द जर्नल ऑफ पॉज़िटिव साइकोलॉजीमें प्रकाशित हुआ है और इसके साथ दी गई टिप्पणी में सही ही कहा गया है कि “कुल मिलाकर इस अध्ययन से  सकारात्मक मनोवैज्ञानिक क्रियाकलापों के उन्नयन के लिए रोज़मर्रा के सर्जनात्मक कर्म के निरंतर बढ़ते जा रहे स्वीकरण की पुष्टि ही होती है.” यहीं यह याद कर लेना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि अपने देश में भी शिक्षण संस्थाओं में सांस्कृतिक कार्यकर्मों के प्रोत्साहन के मूल में यही भाव विद्यमान रहा है, हालांकि धीरे-धीरे सांस्कृतिक कार्यक्रम एक रस्म अदायगी बन कर रह गए या उनके स्वरूप में बहुत सारी विकृतियां आ गईं. यह बात भी याद की जानी चाहिए कि देश के श्रेष्ठतम शिक्षण संस्थानों जैसे आई आई टी वगैरह में बाकायदा सर्जनात्मक लेखन विभाग होते हैं और स्पिक मैके जैसी संस्थाएं शिक्षण संस्थाओं में शास्त्रीय संगीत की प्रस्तुतियां करवाती हैं. इन सबसे भी इस शोध कार्य के निष्कर्षों की पुष्टि  ही होती है.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 06 दिसम्बर, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.