Tuesday, September 27, 2016

बहुत नाज़ुक होती है रिश्तों की डोर

विवाह को पवित्र और जन्म जन्मांतर का सम्बन्ध मानने वाले हम भारतीयों के लिए यह वृत्तांत कुछ चौंकाने और कुछ आहत करने वाला हो सकता है. हममें से कुछ को इस बात का संतोष भी हो सकता है कि उन्हें तो पहले से यह बात मालूम थी कि भौतिकवादी पश्चिम में रिश्ते क्षणभंगुर और स्वार्थ आधारित होते हैं. लेकिन इन बातों के बावज़ूद मैं यह वृत्तांत आपके सामने रख रहा हूं. क्यों? आप खुद समझ जाएंगे.

यह वृत्तांत मेक्सिको के एक युगल का है. लम्बी दोस्ती और अनगिनत मेल मुलाकातों के बाद उन्होंने शादी की और वे सुख पूर्वक अपना जीवन बिता रहे थे. इन्हीं मेल मुलाकातों के बीच लड़के ने मोनिका को यह भी बता दिया था कि उसकी देह में कुछ विकार है जिसकी वजह से भविष्य में कभी गम्भीर उपचार की भी ज़रूरत पड़ सकती है. खैर. उन्होंने शादी कर ली और सब कुछ ठीक चल रहा था. प्राय: वे बातें करते कि उनकी मुहब्बत औरों की मुहब्बत की तरह  कमज़ोर नींव पर नहीं टिकी थी. न उनमें कभी कोई गलतफहमी हुई और न कभी वे किसी बात को लेकर झगड़े. ज़रूरत पड़ने पर पति उपचार भी कराता रहा.  और तभी हुआ एक वज्रपात. डॉक्टरों ने बताया कि पति का रोग अब उस मुकाम तक पहुंच चुका है जहां डबल लंग ट्रांसप्लाण्ट ही एकमात्र विकल्प है. और यह ट्रांसप्लाण्ट मेक्सिको में मुमकिन नहीं है इसलिए उन्हें अमरीका जाना और काफी समय वहीं रहना भी पड़ेगा.
 
डॉक्टरों ने उन्हें इस उपचार के दौरान होने वाली तमाम  परेशानियों और इसके सम्भावित खतरों के बारे में भी विस्तार से बता दिया. डॉक्टरों ने यह बात भी उनसे छिपाई नहीं कि उपचार के दौरान या उसके बाद रोगी की  जान को भी खतरा हो सकता है. लेकिन इलाज तो करवाना ही था. वे दोनों अमरीका के स्टैनफोर्ड  शहर चले गए, सात माह के इंतज़ार के बाद सूचित किया गया कि नज़दीक ही एक व्यक्ति की मौत हुई है जिसके फेफड़े प्रत्यारोपित कर दिए जाएंगे. और सात घण्टे चले ऑपरेशन के बाद सफलतापूर्वक उस मृतक के फेफड़े प्रत्यारोपित कर भी दिए गए. हमारा कथानायक काफी  तेज़ी से स्वास्थ्य लाभ करने लगा. 

इस पूरे घटनाक्रम के दौरान मोनिका ने पूरी निष्ठा से उसकी सेवा की. यह समझा जा सकता है कि बेचारी उस युवती को किन तनावों, उलझनों, समस्याओं और तक़लीफों से गुज़रना पड़ा होगा. डॉक्टर और अस्पताल समस्याओं की चाहे जितनी  विस्तृत जानकारी दे दें, असल समस्याएं उनसे बहुत ज़्यादा ही होती हैं. और फिर देह और जेब की समस्याएं ही तो सब कुछ नहीं होती हैं. मन की समस्याएं तो इन सबसे परे और अधिक होती हैं. रोगी जिन तक़लीफों से गुज़रता है उसकी देखभाल करने वाला उनसे कई गुना ज़्यादा तक़लीफें झेलता है. हरेक की सहन करनी एक सीमा होती है. शायद मोनिका उस सीमा तक पहुंच चुकी थी. फेफड़ा  प्रत्यारोपण को मात्र दो माह बीते थे कि एक दिन अपनी डबडबाई आंखों को अपने पति की आंखों से मिलने से बचाते हुए उसने कह ही दिया कि अब उसके लिए और अधिक सहना मुश्क़िल है, इसलिए वह उसे छोड़ कर जा रही है. उसने वापसी के लिए हवाई टिकिट भी खरीद लिया था.

आसानी  से सोचा जा सकता है कि इस बात की उस व्यक्ति पर क्या प्रतिक्रिया हुई होगी जो अभी-अभी मौत के मुंह से निकल कर आया था और सामान्य होने की कोशिश कर रहा था. उसे लगा जैसे सब कुछ ढह गया है. सारी दुनिया थम गई है. लेकिन दुनिया थमती कहां है? दुनिया अपनी गति से चलती रही. मोनिका गई तो उसे सम्हालने मां आ गई. अपने घावों को सहलाता हुआ वह ठीक होने की राह पर आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता रहा. अलबत्ता कभी-कभी यह खयाल ज़रूर उसके मन में आ जाता कि आखिर मोनिका उसे छोड़कर गई क्यों? क्या यही प्यार है? क्या रिश्ते  इतने नाज़ुक होते हैं?

और जैसे यकायक मोनिका उसे छोड़कर गई वैसे ही अचानक एक दिन उसने बताया कि वो वापस आ रही है. उसकी ज़िन्दगी में भी. और वो लौट आई. आहिस्ता-आहिस्ता बहुत सारी बातें  हुईं उन दोनों में. गिले-शिकवे और एक दूसरे को समझने की कोशिशें!

और तब हमारे नायक को समझ में आया कि मोनिका का उसकी ज़िन्दगी से चला जाना विश्वासघात नहीं था. यह उसकी हार थी. वह मुश्क़िलों, उलझनों और तनावों के आगे हथियार डालने को मज़बूर हो गई थी. लेकिन जाने के बाद उसे महसूस हुआ कि इस पराजय में तो वह और भी ज़्यादा टूट और बिखर रही है. और इसलिए उसने लौट आने का फैसला किया. उसे लगा कि टूटने से बेहतर है जूझना. अब सब कुछ ठीक है. बस, इतना फर्क़ पड़ा है कि अब ये दोनों अपनी मुहब्बत को लेकर पहले जैसा गुमान नहीं करते हैं. इन्हें समझ में आ गया है कि रिश्तों की  डोर बहुत नाज़ुक होती है.

(ऐरिक गुमेनी के प्रति आभार के साथ.)               

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय  अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 27 सितम्बर, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.   

Tuesday, September 20, 2016

करे कोई भरे कोई: वहां भी और यहां भी


सात समुद्र पार अमरीका से आई यह ख़बर पढ़ते हुए मुझे अनायास यह बात ध्यान आ गई कि सरकार हमारे देश के बहुत सारे शहरों  को स्मार्ट बनाने का ख़ाब देख और दिखा रही है. शहरों  को स्मार्ट बनाने में इण्टरनेट की भूमिका  बहुत बड़ी होने वाली है. जो शहर स्मार्ट होने से रह जाएंगे वहां भी वाई-फाई  हॉटस्पॉट बनाकर आंशिक स्मार्टनेस तो प्रदान कर  ही दी जाएगी. अपने देश में चुनावों के दौरान मुफ्त वाई-फाई का वादा काफी प्रभावशाली माना जाता रहा है. दुनिया के बहुत सारे देशों में यह सुविधा सुलभ है कि आप बिना अपनी जेब ढीली किए एक निश्चित समय तक या कहीं-कहीं तो अनिश्चित समय तक भी इण्टरनेट का इस्तेमाल कर सकते हैं. असल में आज की दुनिया में इण्टरनेट भी हवा-पानी की तरह ज़रूरी बन गया है इसलिए स्वाभाविक ही है कि सरकारें अपनी प्रजा को  जिस हद तक भी सम्भव हो पाता है इसकी सुविधा देने की कोशिशें करती हैं.

अमरीका से खबर यह आई है कि न्यूयॉर्क शहर में गूगल की पैरेण्ट कम्पनी अल्फाबेट के आर्थिक सहयोग से तकनीकी और मीडिया विशेषज्ञों आदि के सिटी ब्रिज नामक एक समूह ने सन 2014 में चार सौ कियोस्क जनता को समर्पित किए. सिटी ब्रिज वालों के इरादे बहुत नेक थे. वे शहर की डिजिटल खाई को पाटने के लिए प्रयत्नशील थे. याद दिलाता चलूं कि पूरी दुनिया में ‘हैव्ज़ एण्ड हैव नॉट्स’ यानि अमीरों और ग़रीबों के बीच गहरी खाई है और इसी बात का विस्तार ऐसे हुआ है कि आज की दुनिया में जिनको तकनीक सुलभ है वे हैव्ज़ हो गए हैं और जिनको सुलभ नहीं है वे हैव  नॉट्स रह गए हैं. इसी बात को लक्ष्य करते हुए न्यूयॉर्क के मेयर बिल डे ब्लाज़ियो ने भी कहा कि सिटी ब्रिज का यह प्रयास जिसे लिंकएनवाईसी कहा गया है, सभी के लिए समतल दुनिया बनाने के हमारे सपने को पूरा करने की दिशा में बढ़ा हुआ एक कदम है और इस कदम के द्वारा हम हर न्यूयॉर्क वासी को इक्कीसवीं सदी का सबसे महत्वपूर्ण उपकरण यानि इण्टरनेट सुलभ कराने जा रहे हैं.  इस लिंकएनवाईसी योजना के तहत बनाए गए कियोस्क्स में न केवल मुफ्त वाई फाई सुविधा सुलभ कराई गई, मोबाइल चार्जिंग पॉइण्ट्स दिये गए, इण्टरनेट युक्त टेबलेट्स भी  रखे गए ताकि ज़रूरतमन्द लोग उनका प्रयोग कर अपने ज़रूरी काम कर सकें.  कहना अनावश्यक है कि इरादे  नेक थे और योजना जन कल्याणकारी थी. सच तो यह है कि हम सब इस तरह का सपना देखते हैं.

लेकिन सपने के टूटने में क्या देर लगती है! अब इन कियोस्क्स में सुलभ कराई जाने वाली टेबलेट्स पर वाई फाई सुविधा फिलहाल वापस ले ली गई है. असल में हुआ यह था कि  इसी जून माह में न्यूयॉर्क पोस्ट में इस आशय की खबरें छपी थीं कि कुछ लोग इन टेबलेट्स पर पोर्न फिल्में देखते हैं और कुछ वहां खुले आम अश्लील व्यवहार करते पाए गए. एक शख़्स को तो इस कारण गिरफ़्तार भी किया गया. इन कियोस्क्स के आस-पास रहने वालों ने यह भी शिकायत की थी कि एक टेबलेट  के इर्द गिर्द कई लोग इकट्ठे  होकर बहुत तेज़ आवाज़ में संगीत बजाते हैं. वे लोग कैसा अभद्र संगीत बजाते हैं इसको लेकर भी गम्भीर शिकायतें आने लगी थीं. कुल मिलाकर कुछ लोग इन कियोस्क्स का इस्तेमाल इस तरह से करने लगे थे जैसे यह कोई सार्वजनिक सुविधा न होकर उनकी वैयक्तिक सम्पत्ति हो.

लेकिन जैसे ही टेबलेट्स पर दी जा रही वाई फाई सुविधा बन्द की गई, यह बात भी सामने आई कि अनेक साधन  विहीन लोगों को अब तक जो सुविधा मिल रही थी उससे वे वंचित हो गए हैं. मसलन बहुत सारे घर-बार विहीन लोग इसी सुविधा का इस्तेमाल कर नौकरियों के लिए आवेदन कर रहे थे और अब उनकी चिंता यह थी कि वे अपने भावी नियोक्ताओं के सम्पर्क में कैसे रहेंगे. कुछ बेघरबार लोग ऐसे भी थे जो पहले अपना फालतू समय आवारागर्दी करके बिताते थे लेकिन अब वे इण्टरनेट पर उपयोगी जानकारियां पाने में इस समय का सदुपयोग करने लगे थे. कुछ स्त्रियां थीं जो इन टेबलेट्स पर नई पाक विधियां सीख रही थीं, और कुछ लोग थे जो इन पर गाने सुनकर निष्पाप मनोरंजन करने लगे थे. इन सबको इस सुविधा के छिन जाने का इतना अफसोस था कि इनमें से एक ने तो बहुत व्यथित होकर यह तक कह दिया कि आपने पहले हमें जो सुविधा दी उसे इस तरह वापस ले लेना उचित नहीं है. यह तो हमें सताने जैसी बात हो गई.

इस पूरे प्रकरण से दो बातें फिर से पुष्ट हुई हैं. एक यह कि पूरब हो या पश्चिम, गैर ज़िम्मेदार बर्ताव करने वाले सब जगह पाये जाते हैं, और दूसरी यह कि करे कोई भरे कोई वाली कहावत एकदम  सही है.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 20 सितम्बर, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.  

Tuesday, September 13, 2016

ज़रा रुकें, सोचें, आत्महत्या कोई विकल्प नहीं

हर बरस करीब आठ लाख लोग आत्महत्या कर हमारी इस बेहद खूबसूरत दुनिया को अलविदा कह देते हैं. यानि हर चालीसवें सेकण्ड कोई न कोई अपने हाथों अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेता है. चिंता की बात यह भी है कि ये आंकड़े लगातार बढ़ रहे हैं. लगभग पच्चीस  बरस पहले हर बरस सात लाख लोग ही आत्महत्या कर रहे थे.  आत्महत्या की ये घटनाएं वैसे तो पूरी दुनिया में होती हैं लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू एच ओ)  का कहना है कि तमाम आत्महत्याओं में से तीन चौथाई निम्न और मध्य आय वर्ग वाले देशों में होती हैं. इन देशों में आत्महत्या को मृत्यु का दूसरा सबसे बड़ा कारण माना जाता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के ही पास उपलब्ध 2012 के आंकड़ों के अनुसार पूरी दुनिया में मौत के कारणों में आत्महत्या पन्द्रहवें स्थान पर है. यह बात भी ध्यान  देने काबिल है कि आत्महत्या के लिहाज़ से  15 से 29 वर्ष के बीच के युवा सर्वाधिक असुरक्षित माने जाते हैं. वैसे कुछ देशों में सत्तर पार के लोगों में यह प्रवृत्ति ज़्यादा पाई गई है.  

आत्महत्या के सन्दर्भ में सबसे ज़्यादा चिंता की बात यह है कि  अगर किसी परिवार का कोई सदस्य आत्महत्या करता है तो उसका दुष्प्रभाव और दुष्परिणाम पूरे परिवार को भुगतना पड़ता है. कई बार तो ये प्रभाव इतने गहरे होते हैं कि निकट के परिजन इनसे कभी उबर ही नहीं पाते हैं. अमरीका की एक युवती डोरोथी पॉ ने अपने पिता की, जो द्वितीय विश्व युद्ध के एक वीर सेनानी थे, आत्महत्या का ज़िक्र करते हुए बताया था कि जब उनके पिता ने अपनी जान ली, वे महज़ नौ साल की थी. लेकिन वह क्षण जैसे उनके बचपन का आखिरी क्षण बनकर रह गया. उसके बाद उन्हें कभी भी सुरक्षित होने का एहसास नहीं हो सका. उन्हें लगने लगा जैसे पूरी दुनिया ही असुरक्षित  जगह है. डोरोथी की मां ने हर मुमकिन प्रयास किया कि उनके बच्चे अपने पिता को एक वीर के रूप में याद रखें, और इसलिए वे हमेशा इस बात पर पर्दा डालती रहीं कि उनके पिता की मौत कैसे हुई. लेकिन बाद में डोरोथी को महसूस हुआ कि यह बात उनके अकेलेपन की बड़ी वजह भी बन गई. जिस भी घर परिवार का  कोई सदस्य आत्महत्या करता है, वहां इसी अनुभव की पुनरावृत्ति होती है.

विशेषज्ञों का विचार  है कि आत्महत्या एक प्रकार का मानसिक रोग है. वे इसकी तुलना कैंसर की चौथी अवस्था से करते हैं. अमरीका की मेंटल हेल्थ के अध्यक्ष पॉल जियोनफ्रिडो  का कहना है कि मानसिक रुग्णता वाले बहुत सारे लोगों के लिए तो आत्महत्या चौथी अवस्था की आखिरी घटना ही होती है, और सच तो यह है कि यह वास्तव में जीवन की भी आखिरी घटना  होती  है. लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन का यह भी कहना है कि आत्महत्या एक ऐसा रोग है जिसे अगर सही समय पर पहचान लिया जाए तो रोका भी जा सकता है. संगठन ने अपनी वेबसाइट पर बताया है कि अगर सही समय पर अवसाद और मदिरापान से जुड़ी गड़बड़ों की पहचान कर ली जाए और उनका  उपचार कर दिया जाए तो बहुत हद तक आत्महत्याओं को रोका जा सकता है. लेकिन इतना ही पर्याप्त नहीं है. जिन्होंने कभी आत्महत्या का प्रयास किया है, उनके साथ नियमित सम्पर्क बनाए रखना और उन्हें सामुदायिक सम्बल प्रदान करना भी बेहद ज़रूरी है. संगठन ने बहुत बलपूर्वक यह भी कहा है कि समाज में प्रचलित इस धारणा को बदला जाना बहुत आवश्यक है कि जो लोग आत्महत्या करते हैं वे कायर होते हैं. 

अभी हमने जिन डोरोथी पॉ का ज़िक्र किया, सन 2012 में उनके पच्चीस वर्षीय बेटे ने भी खुद को गोली मारकर आत्महत्या  कर ली. माना जाता है कि अमरीका में होने वाली आधी आत्महत्याएं तो गोली से ही होती हैं, और इसलिए वहां इस बात के लिए भी प्रयास किए जा रहे हैं कि कैसे इन आग्नेयास्त्रों के उपयोग को अधिक सुरक्षित बनाया जाए. पहले अपने पिता और फिर अपने पुत्र की आत्महत्या ने डोरोथी पॉ को प्रेरित  किया है कि  वे लोगों को आत्महत्या करने से रोकने के अभियान में सक्रियतापूर्वक भाग लें. उनका कहना है, “अगर हमें लगता है कि कोई परेशानी में है तो हमें  उससे सीधे ही यह सवाल करना चाहिए कि कहीं उसके मन में आत्महत्या करने का विचार तो नहीं है. बेशक यह सवाल पूछना सुखद  नहीं  होगा, लेकिन सच मानिये किसी की शवयात्रा में शामिल होने की तुलना में तो यह सवाल पूछना सुखद ही होगा. और यही वजह है कि मैं लोगों से आत्महत्या के बारे में बातचीत करती हूं. लोगों को मालूम होना चाहिए कि इसे रोका जा सकता है.” 

(दस सितम्बर को वर्ल्ड सुइसाइड प्रिवेंशन डे मनाया जाता है!)
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 13 सितम्बर, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, September 6, 2016

उठ रहा है बहुत बड़े रहस्य पर से पर्दा.....

लीजिए आज यहां आपके सामने सबसे बड़े रहस्य पर से पर्दा हटने जा रहा है. विश्वास कीजिए, इस  रहस्योद्घाटन के बाद आप खुद को बदला हुआ और पहले से ज़्यादा कामयाब पाएंगे. आज मैं आपको बताने जा रहा हूं कि आप क्या करें और क्या न करें जिससे देखने वालों को आप अधिक आकर्षक लगें!

तो पहली बात जो मैं आपको बता रहा हूं वह यह है कि आप भरपूर नींद लें. और यह बात मैं सन 2010 में की गई एक शोध के परिणामों के आधार पर आपसे कह रहा हूं. इस शोध में कुछ तस्वीरें ऐसे लोगों की थीं जो पूरे आठ घण्टों की नींद ले चुके थे और कुछ ऐसों की जिन्होंने पिछले इकत्तीस घण्टों में पलक भी नहीं झपकी थी. जब ये तस्वीरें औरों को दिखाई गईं तो उन्होंने आठ घण्टों की नींद लेने वालों को आकर्षक बताया. अब दूसरी बात, जिसका आधार है सन 2014 में चीन में की गई एक शोध. इसमें कुछ लोगों को कुछ ऐसे स्त्री- पुरुषों की तस्वीरें  दिखाई  गईं जिनके चेहरों पर कोई भाव नहीं थे. लेकिन इनमें से कुछ तस्वीरों के नीचे ‘भला और ईमानदार’ लिखा हुआ था तथा कुछ अन्य तस्वीरों के नीचे  ‘बुरा और नीच’ लिखा हुआ था. कुछ तस्वीरें ऐसी भी थीं जिनके नीचे कुछ भी लिखा हुआ नहीं था. तस्वीरों को देखने वालों ने उन्हें नापसन्द किया जिनकी तस्वीरों के नीचे ‘बुरा और नीच’ अंकित था. संदेश बहुत स्पष्ट है कि भले लोगों को ज़्यादा पसन्द किया जाता है. अब इसी साल यानि 2016 की एक शोध की बात. इस शोध के परिणाम बताते हैं कि जो लोग अपनी बाहें सीने पर बाँध कर रखते और कन्धे झुका कर रहते हैं उनकी तुलना में वे लोग जो अपनी बाहें फैलाये रहते और खुली मुद्रा में रहते हैं वे अधिक आकर्षक माने जाते हैं. यानि संकुचित मुद्रा की बजाय उन्मुक्त मुद्रा हमेशा बेहतर रहती है. यह हुई चौथी बात.

सन 2013 में किए गए एक अध्ययन से पता चली पांचवीं बात. इस अध्ययन में पाया गया कि तनाव की वजह से जिन स्त्रियों में स्ट्रेस हॉर्मोन कॉर्टिसोल अधिक था वे पुरुषों की नज़रों में कम आकर्षक पाई गईं. फिलहाल यह जानकारी सुलभ नहीं है कि पुरुषों पर ऐसा कोई अध्ययन किया गया या नहीं, लेकिन माना जाना चाहिए कि तनावग्रस्त पुरुष भी आकर्षक नहीं लगते होंगे. छठी बात यह कि हालांकि स्त्रियां प्रसन्न चित्त और मुस्कुराते हुए चेहरे वाले पुरुषों को पसन्द करती हैं, युवतियां ऐसे लोगों को नापसन्द करती हैं जो ज़्यादा हंसते रहते हैं. एक मज़ेदार  बात यह भी जान लीजिए कि जहां गर्वित पुरुष आकर्षक माने जाते हैं वहीं पुरुष लोग गर्वित स्त्रियों को पसन्द नहीं करते हैं. ये सारी बातें प्रमाण पुष्ट हैं. असल में सन 2011 में एक हज़ार से ज़्यादा लोगों पर रिसर्च करके ये जानकारियां हासिल की गई हैं.  इस शोध में भाग लेने वाले पुरुषों को स्त्रियों की और स्त्रियों को पुरुषों की तस्वीरें दिखा कर जब उनकी राय पूछी गई तो  पाया गया कि पुरुषों ने गर्विताओं की तुलना में खुशगवार स्त्रियों को आकर्षक बताया, और स्त्रियों ने प्रसन्न मुख  पुरुषों की तुलना में गर्वित पुरुषों को अधिक आकर्षक माना. सातवीं बात स्त्री-पुरुष का भेद ख़त्म कर देने वाली है. अगर किसी में हास्य बोध का अभाव है तो उसे आकर्षक नहीं माना जा सकता, चाहे वो स्त्री हो या पुरुष.  और इसी तरह आठवीं बात भी है कि चाहे वो स्त्री हो या पुरुष, अगर वो आलसी है और दूसरों की सहायता को तत्पर नहीं है तो उसे आकर्षक नहीं माना जाता है. अखिरी बात है देह गन्ध को लेकर. यहां मामला थोड़ा अस्पष्ट है. की गई शोधों के अनुसार लोगों को वे साथी ज़्यादा पसन्द आते हैं जिनकी देह गन्ध न तो उनसे बहुत ज़्यादा मिलती-जुलती होती है और न बहुत ज़्यादा अलहदा! यह बात पर्फ्यूम्स के बारे में भी लागू होती ही.    

और जब हमने आकर्षण को लेकर इतनी सारी बातें कर ली हैं तो इनमें यह और जोड़ दें कि वो कौन-सी चीज़ है जो किसी को निश्चित रूप से अनाकर्षक बनाती हैं. वो है ग़ैर ईमानदारी. अगर कोई अपनी उम्र या अपनी आय के बारे में भी झूठ बोलता है तो उसका आकर्षण कम हो जाता है. सन 2006 में किये गए एक अध्ययन से साबित हुआ है कि कोई व्यक्ति कितना ही आकर्षक क्यों न हो, अगर वो ईमानदार नहीं है तो कोई उसे आकर्षक नहीं माना जाता है.  

और आखिर में एक डिस्क्लेमर. हालांकि ये सारी बातें एक प्रतिष्ठित अंग्रेज़ी प्रकाशन बिज़नेस इन्साइडर में छप पर पूरी दुनिया में प्रचारित हो चुकी हैं, इन पर भरोसा आप अपनी रिस्क पर ही कीजिए! ठीक है ना?

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक  न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 06 सितम्बर, 2016 को उठ  रहा है सबसे बड़े रहस्य पर से पर्दा, ऐसे लगेंगे  आप आकर्षक शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.