Wednesday, January 27, 2016

पॉप अप वेडिंग यानि कम खर्च बालानशीं

इधर अपने भारत में समाचार माध्यम महंगी डेस्टिनेशन वेडिंग्स को ख़ास अहमियत देते हैं और उनके सचित्र विस्तृत समाचार देकर कई बार साहिर  लुधियानवी को याद करने के लिए मज़बूर भी करते रहते हैं. साहिर साहब की मशहूर नज़्म है ना – एक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर.... लेकिन भाई, दुनिया का चलन है. जिसकी जैसी तमन्ना, आरज़ू और हैसियत होती है वो वैसा ही करता है. और ऐसा भी नहीं है कि महंगी शादियों पर केवल हम भारतीयों का ही एकाधिकार हो. भले ही ‘फैट इण्डियन वेडिंग का लेबल हम पर चिपक गया हो, जिनके पास दौलत है वे इस मौके पर उसे दिखाने और पानी की तरह बहाने से कोई गुरेज़  नहीं करते.

लेकिन सारी दुनिया तो  उन लोगों से भरी नहीं है जिनके पास अकूत वैभव है. जिनके पास बहुत कम है वे भी किसी न किसी तरह गुज़ारा करते हैं और अपने लिए नई राहों का निर्माण भी  करते हैं. बात जब शादियों की ही चल रही है तो क्यों न पश्चिम में आए एक नए ट्रेण्ड का ज़िक्र कर लिया जाए! वहां आजकल एक नई तरह की शादी बहुत लोकप्रिय होती जा रही है. इस शादी का नाम है – पॉप अप वेडिंग. अब पश्चिम में क्योंकि ज़्यादा काम व्यावसायिक रूप से होते हैं, उधर बहुत सारी कम्पनियां खड़ी हो गई हैं जो दावा करती हैं कि उन्हें पॉप अप वेडिंग करवाने में महारत हासिल हैं. उनके विज्ञापन देखें-पढ़ें तो हर कोई पॉप अप वेडिंग के लिए लालायित हो सकता है! लेकिन पहले यह तो जान लें कि यह पॉप अप वेडिंग है क्या!

आप यह समझ लीजिए कि पॉप अप वेडिंग करवाने वाली कम्पनियां शादी करने के इच्छुक   युगल को दुनिया वालों की नज़रों से दूर जाकर यानि भागकर शादी करने का रोमांचक किंतु सुनियोजित मौका प्रदान करती है. रोमांचक और सुनियोजित के अंतर्विरोध को आप थोड़ी देर के लिए नज़र अन्दाज़ कर दीजिए.  ज़ाहिर है कि जब आप भागकर शादी करेंगे तो उसमें मेहमानों की भीड़  भी नहीं होगी, यानि खर्चा भी बहुत कम होगा. तो अगर आप बिना मेहमानों के, बिना किसी ख़ास ताम-झाम के, बिना किसी तनाव के शादी करना चाहते हैं तो पॉप अप वेडिंग आपके लिए एकदम उपयुक्त है. कम्पनी आपके लिए बहुत दिलकश विवाह-स्थल, कुशल फोटोग्राफर, सज्जाकार,  वगैरह  सब कुछ उपलब्ध करा देगी. मेहमानों पर होने वाला खर्चा आप बचा लेंगे. चाहे तो उससे दुनिया घूम लीजिए, या अपना घर खरीद लीजिए. मतलब, अगर आपके पास कुछ धन हो.

और ठीक भी है. अगर बेहद धनी अपने पैसों के बल पर शानदार विवाह कर सकते हैं तो जिनके पास उतना वैभव नहीं है वे भी क्यों न अपनी शादी को यादगार बना लें? और यहीं सामने आती हैं वे कम्पनियां जिन्हें इस तरह की पॉप अप वेडिंग कराने में महारत हासिल है! आप उन्हें मौका तो दीजिए! अब क्या हुआ जो अपनी सेवाओं के लिए आपसे वे कुछ मेहनताना ले रही हैं. आपकी भारी बचत भी तो वे कर रही हैं. उनके पास आपके लिए सब कुछ तैयार है. प्राकृतिक दृश्यावलियों के वास्तविक-से प्रतीत होते बैकड्रॉप, और उन्हें और अधिक यथार्थ दिखाने का कौशल रखने वाले फोटोग्राफर, घुमंतू विवाह वेदियां और आसानी से उपलब्ध कर्मकाण्डी. और इतना ही क्यों? अगर युगल की हसरतें वहीं जंगल में मंगल करने यानि हनीमून मनाने की जाग उठें तो उनके पास एक ऐसा केबिन भी उपलब्ध रहता है जिसमें अच्छे खासे आकार का डबल बेड समा सके.

अगर आपको यह वर्णन थोड़ा कम रोचक लग रहा हो तो चलिये बात को और आगे बढ़ाया जाए! इन वेडिंग प्लानर्स ने एक क़दम और आगे बढ़ते हुए हमारे सामूहिक विवाहों की तर्ज़ पर सामूहिक पॉप अप वेडिंग भी करवाने की शुरुआत कर दी है. ज़ाहिर है कि इसके मूल में अर्थशास्त्र ही है. इस तरह के एक अमरीकी पॉप अप वेडिंग प्लानर ने प्रचारित किया है कि जब आप उनकी सेवाएं लेने का निर्णय कर लेंगे तो मुख्य आयोजन के एक दिन पहले वे एक वेलकम पार्टी में आपका स्वागत करेंगे. उसके बाद यानि अगले और मुख्य दिन हर युगल को अलग-अलग ब्रंच पर ले जाया जाएगा और उसके फौरन बाद उन्हें एक शानदार हॉलीवुड शैली का सौन्दर्य प्रसाधन पैकेज उपलब्ध कराया जाएगा जहां उनकी उपयुक्त केश सज्जा और मेक अप किया जाएगा. और इसके बाद होगी पॉप अप वेडिंग. इसमें हर युगल विवाह वेदी तक जाकर साथ जीने-मरने की शपथ लेगा. हां, कपनी ने हर युगल को इस सरप्राइज़ आयोजन में अधिकतम 14 अतिथि लाने  की भी  अनुमति दी है.

और अब इतना और जान लीजिए कि जहां अमरीका में औसतन एक पारम्परिक विवाह  का  खर्चा 31,213 डॉलर माना जाता है, कम्पनी यह सामूहिक विवाह मात्र 5,000 डॉलर प्रति युगल में सम्पन्न करवाने का वादा कर रही है. है ना सस्ता सौदा?
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक  न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत 27 जनवरी, 2016 को पॉप् अप वेडिंग यानि कम खर्च में शादी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.     

Tuesday, January 19, 2016

एक प्रतिबन्धित किताब की रोचक दास्तान

पूरी दुनिया में ऐसी अनगिनत किताबें हैं जिन्हें विविध कारणों से प्रतिबन्धित किया गया है. प्रतिबन्ध की दो बड़ी वजहें अश्लीलता और राजनीति रही हैं, हालांकि केवल ये ही दो वजहें नहीं रही  हैं. एक समय था जब किताब का केवल भौतिक अस्तित्व हुआ करता था. तब यह प्रतिबन्ध जितना प्रभावी होता था उसकी तुलना में आज प्रतिबन्ध एक रस्म अदायगी बन कर रह गया है. इण्टरनेट के विस्तार के बाद किताब ही क्यों, प्रतिबन्धित ऐसा क्या रह गया है जो सर्व सुलभ न हो!

ऐसी ही एक प्रतिबन्धित लेकिन सर्व सुलभ पुस्तक है मॉयन काम्फ़ (हिन्दी अर्थ: मेरा संघर्ष).  नाज़ी नेता एडॉल्फ हिटलर की यह किताब जो आंशिक  रूप से उनकी आत्मकथा और आंशिक रूप से उनके बड़बोले कथनों का खज़ाना है, पहली दफा 1925 और 1927 में दो खण्डों में प्रकाशित हुई थी और उसके बाद से इसके अनगिनत वैध-अवैध संस्करण पूरी दुनिया में छपे और बिके हैं. कहा जाता है कि 1933 में हिटलर के सत्ता में आने के बाद हर नव विवाहित जोड़े को यह किताब नाज़ी  शासन की तरफ से भेंट  में दी जाती थी.  लेकिन  द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद 1945 में जर्मनी में इसे प्रतिबंधित कर दिया गया और अब भले ही यह कानूनी रूप से वहां प्रतिबन्धित नहीं रह गई है, उसके बाद से आधिकारिक रूप से इसे वहां प्रकाशित ही नहीं किया गया. लेकिन अब, बीते साल (2015)  के आखिरी दिन जर्मनी के बवेरिया  राज्य के पास इसका जो कॉपीराइट था वह सत्तर बरस पूरे कर समाप्त हो गया और इस तरह इसके पुन: प्रकाशन की राह खुल गई.

यह जानना भी कम रोचक नहीं होगा कि बावज़ूद प्रतिबन्ध के, खुद जर्मनी के स्कूलों में भी अन्य नाजी सामग्री के साथ-साथ इस किताब के अंश भी पढ़ाए जाते रहे हैं. लेकिन जब म्यूनिख़ के समकालीन इतिहास संस्थान ने इसके कॉपीराइट की अवधि पूरी होने के बाद इस किताब के एक नए, लगभग 2000 पन्नों के विस्तृत और टिप्पणी युक्त संस्करण को प्रकाशित करने की बात की तो इसके प्रकाशन के विरोध में तीव्र स्वर मुखर हो गए. स्वभावत: इस विरोध का भी विरोध हुआ.

संस्थान के अध्येताओं और इतिहासकारों ने तीन साल अनथक श्रम करके जो नया संस्करण तैयार किया उसके प्राक्कथन में हिटलर के लेखन को ‘अधपका, असंगत और अपठनीय’ कहा गया है. इन विद्वानों को इस लेखन की अनगिनत व्याकरणिक त्रुटियों ने बहुत दुःखी किया. लेकिन इसके बावज़ूद इन्होंने यह समझने और समझाने का प्रयास किया कि हिटलर ने कैसे नस्ल, स्पेस, हिंसा और तानाशाही – इन चार विचारों के आधार पर अपनी नाजी विचारधारा की नींव रखी. किताब के प्रकाशन के आलोचकों को शायद इसीलिए लगा कि हिटलर की विचारधारा को समझाने-समझाने का यह प्रयास वस्तुत: उनके कुकर्मों को मुलायम करते हुए उनकी बेहतर छवि गढ़ने का एक प्रयास है.

लेकिन दूसरे पक्ष का मानना है कि किसी किताब के प्रकाशन को रोके रखना  न तो  सम्भव है और न उचित. बवेरिया राज्य के वित्तमंत्री मार्क्स सोएडर ने कहा है कि इस पुस्तक के प्रकाशन से वे  यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि इसमें कैसी निरर्थक  बातें लिखी हुई हैं और इस तरह के खतरनाक विचारों ने किस तरह पूरी दुनिया में विपदाएं पैदा की हैं. जर्मन असोसिएशन ऑफ टीचर्स के अध्यक्ष जोसेफ क्राउस ने भी  कहा कि इस नए  संस्करण को वहां के हाई स्कूल की कक्षाओं के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए ताकि जर्मनी की नई पीढ़ी पिछली पीढ़ी द्वारा किये गए अत्याचारों को जान कर  अतिवादी सोच के खतरों के प्रति सचेत हो सके. उनका यह भी कहना था कि अगर आप किसी किताब पर रोक लगाएंगे तो तो उसके प्रति उत्सुकता और अधिक बढेगी और लोग आसानी से उपलब्ध  ऑन लाइन संस्करणों का रुख  करेंगे. इससे तो यही अच्छा होगा कि इतिहास और राजनीति के अनुभवी और प्रशिक्षित शिक्षक विद्यार्थियों को इस किताब का परिचय दें.

तो, मॉयन काम्फ़ का यह नया, सुसम्पादित और विस्तृत टिप्पणियों युक्त संस्करण अंतत: मूल देश जर्मनी में प्रकाशित हो गया है और जो प्रारम्भिक खबरें आ रही हैं उनके अनुसार लगभग पाँच किलो वज़न वाला और उनसाठ यूरो (एक यूरो लगभग  74 रुपये के बराबर है) की अच्छी खासी कीमत वाला यह संस्करण प्रकाशकों की उम्मीदों से भी अधिक बिक रहा है. खबर यह भी आई है कि प्रकाशन पूर्व ही पन्द्रह हज़ार प्रतियों का आदेश मिल जाने की वजह से प्रकाशकों को इसके चार हज़ार प्रतियों के प्रथम मुद्रणादेश के भी बढ़ाना पड़ा था और जारी होने के कुछ ही घण्टों बाद अमेज़ॉन  की जर्मन साइट पर यह अनुपलब्ध था.

क्या इस बात से किताब जैसी चीज़ पर प्रतिबन्ध लगाने वाले कुछ सबक लेंगे?  
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 19 जनवरी, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.    

Tuesday, January 12, 2016

गोरे रंग पे न इतना गुमान कर......

यह दुनिया भी अजीब है. जहां भारत सहित अधिकांश एशियाई देशों में गोरी चमड़ी के प्रति अतिरिक्त आकर्षण देखने को मिलता है वहीं उन देशों में जहां चमड़ी प्राकृतिक रूप से गोरी होती है लोग धूप में बैठ बैठकर और विभिन्न प्रकार के  लोशनों आदि का प्रयोग कर उसे ताम्बई रंगत देते हैं.  एक मार्केट रिसर्च कम्पनी ग्लोबल इण्डस्ट्री एनालिस्ट इनकॉर्पोरेटेड ने अनुमान लगाया है कि पूरी दुनिया में वर्ष 2020 तक त्वचा के रंग को हल्का बनाने वाले उत्पादों का कारोबार 23 बिलियन डॉलर्स तक जा पहुंचेगा और उसमें सबसे बड़ी भागीदारी एशिया पैसिफिक क्षेत्र के देशों की होगी. अपने देश में हम आए दिन ऐसे विज्ञापनों से रू-बरू होते रहते हैं जो यह दावा करते हैं कि उनके इस्तेमाल से आपकी  त्वचा का रंग गोरा हो जाएगा.  ये विज्ञापन दाता अपनी बात को वज़न देने के लिए किसी न किसी तरह गोरे रंग की महत्ता को रेखांकित करना भी नहीं भूलते हैं.

लेकिन हाल ही में जब थाइलैण्ड  की एक सौन्दर्य प्रसाधन निर्माता कम्पनी सिओल सीक्रेट ने अपने एक ऑनलाइन विज्ञापन में वहीं की जानी-मानी एक्ट्रेस क्रिस होरवांग के चेहरे को अश्वेत रंग में दर्शाया और उसकी तुलना एक गोरी चमड़ी वाली स्त्री से करते हुए उसे कमतर बताया तो हंगामा खड़ा हो गया. थाई नागरिक इस बात से तो नाराज़ हुए ही कि उनकी प्रिय एक्ट्रेस के चेहरे को  अश्वेत बना दिया गया था,  उन्हें इस वीडियो के नारे “विजेता होने के लिए आपका गोरा होना ज़रूरी है”  पर भी गम्भीर आपत्ति थी. थाई जनता की ये आपत्तियां इतनी पुरज़ोर थीं कि इस कम्पनी को न सिर्फ अपना यह विज्ञापन वापस लेना  पड़ा, उन्हें एक बयान भी जारी करना पड़ा. वैसे बयान था बड़ा मज़ेदार. कम्पनी ने कहा, “भेदभावपूर्ण  या नस्लीय सन्देश देने का हमारी कपनी का कोई इरादा नहीं था. हम तो बस यह कहना चाह रहे थे कि व्यक्तित्व, अपीयरेंस, दक्षताओं और प्रोफेशनिलिटी के सन्दर्भ में आत्म सुधार की बहुत अधिक महत्ता है.” 

इस विज्ञापन से आहत लोगों को स्वभावत: इस स्पष्टीकरण से संतोष नहीं हुआ और उनमें से बहुतों ने सोशल मीडिया पर इस आशय की टिप्पणियां कीं  कि इस तरह के टूटे-फूटे बहानों से काम नहीं चलने  वाला है. जैसा इस तरह के सारे मुद्दों पर होता है, कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्हें यह सारी बहस बेमानी लग रही थी और उनका कहना था  कि भाई, अगर आपको त्वचा को गोरा करने वाले उत्पादों पर आपति है तो उन्हें मत खरीदिये. झगड़े की क्या बात है? ऐसे लोगों को कम्पनी के इस प्रचार वीडियो में  कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगा.
अगर हम इस विवाद से बाहर निकलकर इसी देश यानि थाइलैण्ड में इस तरह के उत्पादों के विज्ञापनों का अतीत खंगालें तो पाएंगे कि यह अपनी तरह का पहला मामला नहीं है. वैसे तो बहुत बड़ी बहु राष्ट्रीय कम्पनियां अपने सौन्दर्य (यानि गोरा बनाने वाले) उत्पादों के विज्ञापन के लिए रेडिएंस और परफेक्ट जैसे शब्दों का चालाकीपूर्ण उपयोग करती ही रही हैं, खुद उस देश की अनेक कम्पनियां भी अपने उत्पादों को बेचने  के लिए पक्के रंग की चमड़ी  वाली युवतियों और स्त्रियों का उपहास करती रही हैं. दरअसल थाइलैण्ड में गहरे रंग की चमड़ी का रिश्ता किसानों और श्रमिकों से कायम किया जाता है. समाज के निचले तबके के इन लोगों को तेज़ धूप में अनथक श्रम करना होता है जिससे इनकी चमड़ी झुलस कर पक्के रंग की हो जाती  है. समाज के ऊंचे तबके के लोग सुरक्षित माहौल में रहते हैं और इस वजह से उनकी चमड़ी का रंग उजला बना रहता है. विज्ञापनों आदि के द्वारा सारा माहौल गोरी चमड़ी के पक्ष में तैयार कर दिया गया है और लोग तथा खास तौर पर स्त्रियां अप्रामाणिक, अवैध और चमड़ी को गोरा बनाने के मिथ्या दावे करने वाले उत्पादों के प्रयोग का खतरा उठाते रहते हैं.  सन 2012  में वहां एक कम्पनी ने तो उस वक़्त हद्द ही कर दी थी जब उसने अपने एक उत्पाद के विज्ञापन में यह दावा किया था कि उसके इस्तेमाल से स्त्री देह के अंतरंग हिस्सों की त्वचा चमकदार और पारभासी (ट्रांसलुसेण्ट) हो जाएगी.   

अभी  दो बरस पहले ही वहां की एक कम्पनी के पेय पदार्थ के एक विज्ञापन चेहरे मोहरे और बोलने के लहज़े से एक व्यक्ति को अफ्रीकी मूल का दर्शाते हुए उसकी बेटी को इस पेय पदार्थ के पीने से काली से गोरी होते हुए दर्शाया गया था. इसी तरह जब वहां की एक कम्पनी ने उन विद्यार्थियों को नकद धनराशि देने का वादा किया जो उसके उत्पादों के प्रयोग से अपनी चमड़ी को गोरा बना लेंगे तो इसका भी पुरज़ोर विरोध किया गया था.


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अयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 12 जनवरी, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, January 5, 2016

ताकि जी सके वो अपनी तरह से अपनी ज़िन्दगी

संयुक्त राज्य अमरीका का एक राज्य है ओरेगॉन. इस राज्य का नाम सुनते ही हम भारतवासी अपने ओशो को ज़रूर याद कर लेते हैं जिन्होंने अस्सी के दशक में इसी राज्य में रजनीशपुरम नाम से अपना एक अत्यधिक वैभवशाली साम्राज्य खड़ा किया था. यह अलग बात है कि कोई एक  दशक पहले जब मुझे इस राज्य में जाने का मौका मिला तो वहां ओशो या रजनीश के नाम से कुछ मिलना तो दूर रहा, इस नाम की स्मृतियां भी नदारद पाई गईं. अभी शुरु हुए नए साल में इस राज्य ने संयुक्त  राज्य अमरीका में एक महत्वपूर्ण पहल की है. इस पहल का परिचय देने से पहले यह बता देना ज़रूरी होगा कि दुनिया के और बहुत सारे देशों की तरह, और भारतीय चलन से हटकर, अमरीका में आप बिना डॉक्टर की पर्ची के कोई भी दवा नहीं खरीद सकते हैं. इस व्यवस्था  के कारण ही इस अमरीकी राज्य में साल के पहले दिन से शुरु हुई नई व्यवस्था की अधिक महत्ता है.

इस व्यवस्था  का सम्बन्ध गर्भ निरोध से है. बहुत सारी स्त्रियां विभिन्न कारणों से गर्भ निरोध के लिए गोलियों या पैचेस का इस्तेमाल करती हैं और ये न केवल खासे महंगे हैं, बिना डॉक्टर की पर्ची के इन्हें प्राप्त भी नहीं किया जा सकता था. इन दोनों कारणों से कई बार सुरक्षा चक्र अटूट नहीं रह पाता था, यानि इन्हें इस्तेमाल करने वाली महिलाओं के कुछ दिन असुरक्षित हो जाते थे. लेकिन अब वहां दो हाउस बिल प्रभावी हो गए हैं जिनसे यह खतरा पूरी तरह निर्मूल हो गया है. हाउस बिल 3343 में यह प्रावधान किया गया है कि जो कम्पनी आपका बीमा करती है वह पूरे बारह महीनों के गर्भ निरोधकों  का भुगतान एक साथ करेगी, और इससे गोलियों या पैचेस की पूरे साल की निर्बाध आपूर्ति सम्भव हो जाएगी. यहीं यह उल्लेख भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि अमरीका में चिकित्सा सुविधाएं बहुत महंगी हैं और वहां के नागरिक समुदाय का एक बड़ा हिस्सा इस महंगाई से पार पाने के लिए बीमा योजनाओं का सहारा लेता है.

दूसरा  हाउस बिल 2879 और अधिक क्रांतिकारी है. इस बिल के द्वारा दवा विक्रेताओं को भी उन विशेषज्ञों की सूची में जगह दे दी गई है जो गर्भ निरोधक प्रेस्क्राइब कर सकते हैं. हालांकि यह काम उतना भी आसान नहीं होगा जितना प्रथम दृष्टि में लगता है, कि आप दवा विक्रेता के पास जाएं, उससे  अनुरोध करें और वो आपको गर्भ निरोधक  प्रेस्क्राइब कर दे. पहली बात तो यह कि यह सुविधा 18 वर्ष से कम की युवतियों को सुलभ नहीं होगी. उन्हें  अपना पहला प्रेस्क्रिप्शन तो डॉक्टर से ही लेना होगा, उसके बाद ही वे इस सुविधा का लाभ ले सकेंगी. दूसरी बात यह कि उन्हें दवा विक्रेता के पास जाकर एक प्रश्नावली भर कर देनी होगी और यह जांच लेने के बाद कि उन्हें गर्भ निरोधक के इस्तेमाल से कोई खतरा प्रतीत नहीं होता है, विक्रेता उन्हें वांछित सामग्री की बारह महीनों की सप्लाई दे सकेगा. यहीं यह भी बताता चलूं कि फिलहाल राज्य के तमाम दवा विक्रेताओं के यहां यह सुविधा सुलभ नहीं होगी. अभी वहां के मात्र 150 दवा विक्रेताओं को ऐसा करने के लिए अधिकृत किया गया है. स्थानीय प्रशासन दवा विक्रेताओं को समुचित प्रशिक्षण देने के बाद ही यह अधिकार प्रदान कर रहा है. उम्मीद की जा रही है कि अगले माह के अंत तक 800 दवा विक्रेताओं के यहां यह सुविधा उपलब्ध होने लगेगी. 

वैसे यह व्यवस्था एक अन्य अमरीकी राज्य कैलिफोर्निया करीब दो बरस पहले ही कर चुका था. वहां इस तरह का प्रावधान 2013 में ही पारित हो गया था लेकिन क्योंकि वह लागू  अब तक नहीं हो सका है, ओरेगॉन ऐसा करने वाला देश का पहला राज्य बन गया है.

समझा जा सकता है कि अमरीका जैसे उन्मुक्त और उदार देश में इन व्यवस्थाओं का अर्थ केवल  परिवार को सीमित रखने के लिहाज़ से ही नहीं है. इससे भी आगे इन व्यवस्थाओं की अहमियत स्त्री को अपने चयन में अधिक समर्थ बनाने में है. स्त्री की देह पर उसका और केवल उसका अधिकार है और होना चाहिए तथा वो संतान को जन्म देना  चाहती है या नहीं, उसके इस निर्णय में अगर कोई बाधा आती है तो राज्य का दायित्व है कि वह उस बाधा को दूर करे. ओरेगॉन राज्य की इन नई व्यवस्थाओं को इसी सन्दर्भ में देखा और समझा जाना चाहिए. इन नई व्यवस्थाओं से जहां स्त्री पर पड़ने वाले आर्थिक  भार में कमी आएगी वहीं उसे अपना मनचाहा जीवन जीने के लिए ज़रूरी उपकरण/संसाधन प्राप्त करने में आने वाली कठिनाइयों में भी कमी आएगी.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 05 जनवरी, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.