Tuesday, December 27, 2016

ज़रूरी है सोशल मीडिया पर सक्रियता की अति से बचना

सजीव सम्पर्कों में भरोसा रखने वाले भारतीय समाज के लिए आभासी जगत का सोशल मीडिया अपेक्षाकृत नई परिघटना है, फिर भी इस बात को स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि पारम्परिक भारतीय  समाज ने भी इसे बहुत तेज़ी से अपनाया है. जहां युवा पीढ़ी ने तकनीक पर अपनी अधिक पकड़ की वजह से इस मीडिया का अधिक प्रयोग किया है, गई पीढ़ी के लोग भी इसके प्रयोग में बहुत पीछे नहीं हैं. मेरे इस प्रयोग गई पीढ़ीको अन्यथा न लिया जाए, मैं खुद इसी पीढ़ी से ताल्लुक रखता हूं. यह प्रयोग केवल शरारतन किया गया है. सोशल मीडिया के तमाम मंचों पर भारतीय सक्रियता देखी जा सकती है. जहां इन मंचों पर सक्रिय लोग इनकी उपादेयता को लेकर आश्वस्त हैं, वहीं अनेक विचारशील लोग और वे लोग जो इनसे दूरी बनाए हुए हैं, न केवल इनकी उपादेयता पर सवाल उठाते हैं, इनके दुष्प्रभावों को लेकर भी चिंतित पाए जाते हैं. सोशल मीडिया को लेकर सबसे बड़ी शिकायत तो इसके आभासी चरित्र की वजह से ही की जाती है. यानि यहां जो होता है वो होकर भी नहीं होता. आपके सौ दौ सौ मित्र यहां होते हैं,लेकिन वे असल में मित्र होते  ही  नहीं. एक बहु प्रचलित लतीफे को याद किया जा सकता है कि एक ऐसा व्यक्ति जिसके फेसबुक पर चार हज़ार मित्र थे, जब अपनी अंतिम यात्रा पर निकला तो उसकी अर्थी उठाने वाले चार कंधे भी बड़ी मुश्क़िल से जुटाए जा सके.

इधर अपने देश में सोशल मीडिया पर सामाजिक-राजनीतिक सक्रियता भी खूब देखी जाती है. लोग घर से निकले बग़ैर ही इस मीडिया के मंच पर भारी भारी क्रांतियां कर रहे हैं. अब तो विरोध-प्रदर्शन  और एकजुटता के दिखावे के लिए किसी सार्वजनिक जगह पर जाकर मोमबत्ती  जलाने की भी ज़रूरत नहीं रह गई है. तकनीक की मेहरबानी से आप अपने कम्प्यूटर, लैपटॉप, डेस्कटॉप या मोबाइल पर ही मोमबत्ती जला लेते हैं. इस मीडिया की महत्ता और ताकत को हमारे राजनीतिज्ञों और दलों ने भी समझा और इसका अपने-अपने हित में इस्तेमाल किया है. पिछले चुनाव के बाद देश के हर महत्वपूर्ण राजनीतिक दल ने सोशल मीडिया पर अपनी सक्रियता बढ़ाई है. सरकार ने भी जनता तक अपनी बात पहुंचाने के लिए इसका प्रयोग करना शुरु किया है. इन सकारात्मक बातों के साथ-साथ, कहा जाता है कि विभिन्न राजनीतिक दलों ने विरोध के स्वरों को कुचलने  के लिए छ्दम प्रयोक्ताओं (ट्रॉल्स) का भी प्रयोग करना शुरु किया है. सोशल  मीडिया पर सक्रिय इस प्रजाति  के प्राणी अपनी हिंसक, अभद्र, आक्रामक  और प्राय: अश्लील टिप्पणियों से शत्रुओंको क्षत-विक्षत करने का प्रयत्न करते पाए जाते हैं.

यानि सोशल मीडिया का एक हिस्सा है जो सोशल नहीं रह गया है. लेकिन बात सिर्फ इतनी ही नहीं है. भारत के बाहर दुनिया के अन्य देशों में भी सोशल मीडिया के दुष्प्रभावों  पर चिंता होने लगी है. हाल में अमरीका के पिट्सबर्ग  विश्वविद्यालय के सेण्टर फॉर रिसर्च ऑन मीडिया, टेक्नोलॉजी  एण्ड हेल्थ ने अपने एक अध्ययन में पाया है कि एकाधिक सोशल मीडिया मंचों पर सक्रिय रहने वालों के अवसाद  और चिंता ग्रस्त होने की आशंका अधिक रहती है. इस अध्ययन में यह बताया गया है कि जो लोग सात से दस तक सोशल मीडिया मंचों पर सक्रिय रहते हैं वे अधिकतम दो मंचों पर सक्रिय रहने वालों की तुलना में तीन गुना ज़्यादा अवसाद ग्रस्त या व्याकुल रहते हैं. अध्ययन में यह जानने का भी प्रयास किया गया कि ऐसा क्यों होता है. असल  में जब कोई अनेक मंचों पर सक्रिय होता है तो वह अपनी छवि को लेकर बहुत व्याकुल हो जाता है और उसका निर्वहन करने की फिक्र उसे अवसाद या व्याकुलता की तरफ ले जाती है. होता यह है कि आप अपने दिन का  प्रारंभ अन्य लोगों से अपनी तुलना करते हुए करते हैं  और महसूस करते हैं कि औरों की तुलना में आप पिछड़ गए हैं.  ऐसा ही हुआ सेन डियागो के एक 33 वर्षीय उद्यमी जैसन  ज़ुक के साथ. विभिन्न  मंचों पर उसने अपने तैंतीस हज़ार फॉलोअर्स तो जुटा लिये लेकिन उसके बाद उसे महसूस होने लगा कि वो इस डिजिटल विश्व में उन  फॉलोअर्स  की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पा रहा है. और यही बात उसके मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालने लगी. इन मंचों के प्रयोक्ता जानते हैं कि कम लाइक्स का मिलना किस तरह लोगों को चिंतित कर देता है. शायद इन्ही तमाम कारणों से पश्चिम  में तो लोगों को सलाह दी जाने लगी है कि वे तीन से ज़्यादा मंचों पर सक्रिय न रहें, और यह भी कि बीच-बीच में इन मंचों से पूरी तरह अनुपस्थित भी होते रहें. उक्त जैसन ज़ुक को दी गई तीस दिनों के सोशल मीडिया डीटॉक्स की सलाह को इसी संदर्भ में याद कर लेना उपयुक्त होगा.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अन्तर्गत मंगलवार, 27 दिसम्बर, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख  का मूल पाठ. 

Tuesday, December 20, 2016

टीवी शो में सांसद की जगह नज़र आया एक हैण्डबैग

अपने देश में कभी नेहरु खानदान के कपड़े पेरिस से धुल कर आने की बात उनकी अमीरी के गुणगान के लिए की जाती थी लेकिन बाद में इसी बात को उनकी विलासिता का द्योतक बना कर पेश किया जाने लगा. एक गृह मंत्री जी के बार-बार कपड़े बदलने की चर्चाएं लोक स्मृति से लुप्त भी नहीं हुई थीं कि एक बहुत महंगा और नाम लिखा सूट चर्चाओं के केंद्र में आ गया. लेकिन अगर आप यह सोच कर लज्जित होते रहे हों कि हमारे देश में राजनीति का स्तर नीतियों की बजाय नेताओं के निजी पहनने-ओढ़ने तक उतर आया है तो ज़रा ठहर कर यह वृत्तांत भी पढ़ लीजिए. 
  
बीबीसी वन के लोकप्रिय व्यंग्यात्मक शो हैव आई गोट  न्यूज़ फॉर यू के एक एपीसोड में पैनलिस्ट पॉल मेर्टन के साथ ब्रिटेन की पूर्व काबीना मंत्री और मौज़ूदा सांसद निकी मॉर्गन को शिरकत करनी थीलेकिन उनकी जगह दर्शकों ने देखा उनके चमड़े के भूरे रंग के हैण्डबैग  को. शो के प्रोड्यूसर्स ने पिछली सितम्बर में इस शो के लिए निकी मॉर्गन को अनुबंधित किया था, लेकिन इसी बीच निकी ब्रिटिश प्रधानमंत्री के साथ एक अप्रिय विवाद में उलझ गईं. हुआ यह कि प्रधानमंत्री टेरीज़ा मे ने 995 पाउण्ड कीमत का अमंदा वेकली द्वारा डिज़ाइन किया हुआ लेदर ट्राउज़र पहन कर एक फोटो शूट में हिस्सा लिया तो निकी उन पर यह कहते हुए पिल पड़ीं कि प्रधानमंत्री की इस तरह की विलासितापूर्ण फैशन रुचि उनके निर्वाचन क्षेत्र के लोगों को शायद ही पसंद आए. उन्होंने यह और कह दिया कि मेरे पास कोई लेदर ट्राउज़र नहीं है, और मेरा खयाल है कि मैंने अपने  शादी के जोड़े के सिवा कभी किसी चीज़ पर इतना पैसा नहीं खर्चा है. इस विवाद की चर्चाओं को सोशल मीडिया  तक तो पहुंचना ही था  और वहां इन्हें एक नया नाम मिल गया‌ ट्राउज़र गेट.

इन चर्चाओं के परवान चढ़ने के साथ दो बड़ी बातें हुईं. पहली तो यह कि दस डाउनिंग स्ट्रीट ने निकी मॉर्गन को नकारना शुरु कर दिया. इस टिप्पणी के बाद प्रधानमंत्री जी की जॉइण्ट चीफ़ ऑफ स्टाफ़ सुश्री हिल ने ब्रेक्सिट पर विचार करने के लिए काफी पहले निकी को दिया निमंत्रण वापस ले लिया. ये सुश्री हिल प्रधानमंत्री की गेट कीपरमानी जाती हैं. एक ब्रिटिश अख़बार ने सुश्री हिल का एक टेक्स्ट मैसेज ही छाप दिया जिसमें उन्होंने उसी बैठक में आमंत्रित एक अन्य सज्जन को यह कहा है कि “उस  औरत को नम्बर दस में फिर कभी ना लाया जाए.” नम्बर दस डाउनिंग स्ट्रीट ब्रिटिश प्रधानमंत्री के राजकीय आवास नाम है.  दूसरा काम यह हुआ कि सत्ता पक्ष के खबरियों ने खासी गहन खोज  बीन के बाद यह पता कर लिया कि प्रधानमंत्री जी के महंगे ट्राउज़र की आलोचना करने वाली निकी मॉर्गन भी महंगी चीज़ों से परहेज़ नहीं करती हैं. इन लोगों ने एक तस्वीर खोज निकाली जिसमें निकी मॉर्गन के हाथ में एक खासे महंगे और लक्ज़री ब्राण्ड मलबरी का बैग है जिसकी कीमत प्रधानमंत्री जी द्वारा पहने गए ट्राउज़र की कीमत से महज़ 45 पौण्ड कम यानि 950 पाउण्ड बताई गई. जैसा कि इन सारे प्रकरणों में होता है, निकी मॉर्गन के एक नज़दीकी सूत्र ने तुरंत इस खबर का खण्डन यह कहते हुए कर दिया कि यह बैग हाल का नहीं बल्कि एक दशक पुराना है, और इसे निकी ने खुद नहीं खरीदा था, बल्कि यह उन्हें भेंट में मिला था. लेकिन विवाद इतने पर कैसे थम सकता था? इस पक्ष ने यह बात भी खोज निकाली कि टेरीज़ा मे  ने लक्ज़री लेग्स नामक एक कम्पनी से 140 पाउण्ड मूल्य के वस्त्र बलात लिये थे.  सरकारी दस्तावेज़ों को खंगाल कर यह भी पता लगा लिया गया कि उन्होंने इंग्लैण्ड  और पाकिस्तान के बीच हुए एक दिवसीय क्रिकेट  मैच के लिए दो टिकिट स्वीकार किये थे, वे बीबीसी प्रॉम्स में भी गई थीं और उन्होंने एक दक्षिण पंथी अख़बार और प्रेस बैरन की तरफ से आयोजित डिनर का निमंत्रण भी स्वीकार किया था. सरकारी विवरणों को टटोलकर इतना तक जान लिया गया कि टेरीज़ा मे हेलीकन डेज़ नामक एक कम्पनी से एक डिज़ाइनर स्कार्फ़ बतौर  उपहार स्वीकार कर चुकी हैं.

माननीय प्रधानमंत्री जी पर इतने प्रहार करने वाली निकी मॉर्गन की बजाय अगर बीबीसी वन के शो में दर्शकों को उनके हैण्डबैग के दर्शन कर संतुष्ट होना पड़ा तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. लेकिन हम निकी मॉर्गन के हास्य बोध की दाद ज़रूर देंगे जिन्होंने यह कह कर कि अगर शो वालों ने उनसे मांगा होता तो वे खुद उन्हें अपना बैग दान में दे देतीं अपनी टाँग तो ऊपर रख ही  ली है. प्रशंसा उनके इस संयम की भी की जानी चाहिए कि उन्होंने बजाय कोई अप्रिय बात कहने के मात्र यह कहा है कि वे इस शो से अप्रत्याशित परिस्थितियों की वजह से अनुपस्थित हैं.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अनत्रगत मंगलवार, 20 दिसम्बर, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, December 13, 2016

मानवाधिकारों के मलबे पर स्वास्थ्य का नाच!

सुदूर तुर्कमेनिस्तान में वहां के राष्ट्रपति महोदय ने पूरे-दमखम के साथ अपने देश को स्वस्थ बनाने का एक अभियान छेड़  रखा है. सारी सरकार  फिटनेस का प्रचार करने और देश को धूम्रपान मुक्त बनाने के प्रयासों में जुटी है. विश्व स्वास्थ्य संगठन तक ने सरकार के इस प्रयास को सराहा है और देश में धूम्रपान घटाने के प्रयासों की सराहना स्वरूप एक प्रमाण पत्र भी प्रदान किया है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अध्यक्ष के पास खड़े मुस्कुराते हुए राष्ट्रपति महोदय की एक तस्वीर जिसमें उन्होंने उक्त प्रमाण पत्र और एक मेडल हाथ में ले रखा है, पूरे देश में हर कहीं देखी जा सकती है. लगता है जैसे राष्ट्रपति  महोदय अपने अदृश्य विरोधियों से कह रहे हैं कि देख लो, अब तो अंतर्राष्ट्रीय संस्था ने भी  हमारे प्रयासों को मान्यता दे दी है!

तो क्या राष्ट्रपति महोदय को इस नेक काम के लिए भी अपने विरोधियों की आलोचनाओं का शिकार होना पड़ रहा है? जिन्हें तुर्कमेनिस्तान के बारे में तनिक भी जानकारी है वे इस बात से भली-भांति परिचित होंगे कि इस देश की गणना दुनिया के सबसे अधिक दमनात्मक देशों में होती है और वहां के वर्तमान राष्ट्रपति गुरबानगुली बेर्दीमुहम्मदोव का मानवाधिकार विषयक रिकॉर्ड यह है कि उनके शासन काल में यह देश इस लिहाज़ से दुनिया के निकृष्टतम  देशों में शुमार किया जाने लगा है. लेकिन राष्ट्रपति महोदय नहीं चाहते कि कोई उनके देश में हो रहे मानवाधिकारों  के हनन पर बात तक करे. वे इस मुद्दे पर भी कोई चर्चा करना पसंद नहीं करते कि क्यों उनके आलोचक जेलों से अचानक गायबहो जाते हैं. तो ऐसे राष्ट्रपति महोदय ने अपने देश को स्वस्थ बनाने का यह अभियान चला रखा है और देशवासियों को उनका स्पष्ट संदेश है कि या तो वे उनके अभियान को खुशी-खुशी स्वीकार कर लें और या फिर अपने मुंह बंद रखें. भय उनकी शासन शैली का सबसे मुख्य तत्व है. एक विदेशी पत्रकार ने लिखा है कि उसने तुर्कमेनिस्तान की राजधानी की खूब चौड़ी लेकिन सुनसान सड़कों  का दौरा किया और पाया कि खूबसूरत फव्वारों से सजी संगमरमर की खूबसूरत इमारतों वाले  उस शहर की सारी सड़कें सुनसान पड़ी थीं. लेकिन इसके बावज़ूद उसे लगा कि उसकी हर गतिविधि पर नज़र रखी जा रही थी. जैसे ही उसने तस्वीरें लेने के वास्ते अपना कैमरा निकाला, जाने  कहां से वाकी-टॉकी थामे एक अधिकारी प्रकट हुआ और उसने स्थानीय भाषा में उस पर अपनी नाराज़गी का इज़हार किया और वहां से नौ दो ग्यारह हो जाने को कहा.  पत्रकार कहता है कि उसका लहज़ा ऐसा था कि मेरे पास उसके आदेश का पालन करने के सिवा और कोई चारा ही नहीं था.

ऐसे राष्ट्रपति महोदय ने वहां हेल्थ एण्ड हैप्पीनेसका यह जो अभियान चला रखा है उसकी सराहना और समर्थन की ही आवाज़ें और छवियां सामने आती हैं. ज़ाहिर है कि इससे भिन्न की न किसी को इजाज़त है और न किसी की हिम्मत. हाल में वहां स्वास्थ्य माह मनाया गया जिसमें सरकारी कर्मचारी सार्वजनिक जगहों पर प्रात:कालीन व्यायाम करते प्रदर्शित किये गए, सरकारी टेलीविज़न पर मज़दूरों, बाबुओं, अफसरों और संसद और मंत्रालय के कर्मचारियों को उत्साहपूर्वकइस अभियान में भागीदारी करते बार-बार दिखाया गया.  यह जानने की कोशिश करना बेमानी होगा कि क्या यह सब वे स्वेच्छा से कर रहे थे?  सरकारी टीवी पर खुद राष्ट्रपति महोदय को  स्वास्थ्य प्रचार रैलियों में साइकिल चलाते और जिम में कसरत करते दिखाया जाता है और आम  लोग राष्ट्रपति जी की मंशा की सराहना करते नहीं थकते हैं. टीवी पर विदेशी सिगरेटों की होली जलाने के दृश्य भी खूब दिखाये जाते हैं.

तुर्कमेनिस्तान के अतीत से परिचित लोग इन राष्ट्रपति महोदय का एक प्रसंग अकसर दबी ज़ुबान से सुनाते हैं. राष्ट्रपति जी घुड़दौड़ के शौकीन ही नहीं हैं, यदा-कदा वे खुद इसमें हिस्सा भी लेते हैं. कई बरस पहले ऐसी ही एक घुड़दौड़ में जब वे हिस्सा ले रहे थे तो घोड़ा गिर पड़ा और उस पर सवार महामहिम भी धरती पर गिर पड़े. सारा मंज़र कैमरों में कैद हो रहा था. अचानक एक सुरक्षा अधिकारी खड़ा हुआ और चिल्लाकर बोला, कैमरे बंद कर दें. इसके बाद वहां मौज़ूद सभी छायाकारों के कैमरों को खंगाला गया, और इस रिकॉर्डिंग  को मिटाने के बाद ही उन्हें वहां से जाने दिया गया. इसके बाद टीवी पर मात्र यह दिखाया गया कि महामहिम ने एक रेस में भाग लिया था. इन दिनों तुर्कमेनिस्तान में इस प्रसंग का ज़िक्र इस टिप्पणी के साथ किया जाता है कि जैसे इस खबर में से एक अप्रिय प्रसंग को काट कर इसे दिखाया गया उसी तरह आजकल वहां के कुरूप यथार्थ की छवियों को मिटाकर इस स्वास्थ्य अभियान को प्रचारित किया जा रहा है. 
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 13 दिसम्बर, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, December 6, 2016

सर्जनात्मक गतिविधियां ज़रूरी हैं बेहतरी के लिए

अकादमिक दुनिया में हर दिन नई शोध होती है और बहुत दफा हम पाते हैं कि अब तक हमारा जो सोच था उसे नई शोध ने ग़लत साबित कर दिया है. वैसे यह कोई नई बात भी नहीं है. बहुत पहले से ऐसा होता रहा है. यह बात मानव की वैचारिक गतिशीलता को रेखांकित करती है. हमारी सबसे बड़ी ताकत ही यह है कि हम नई जानकारियां मिलने या नए तथ्य सामने आने पर अपनी पहले बनी हुई धारणाओं को बदलने को तैयार हो जाते हैं. बेशक जीवन के कुछ पक्षों और मानव जाति के कुछ पॉकेट्स में भयंकर रूढि‌बद्धता भी है जहां न केवल किसी बदलाव की कल्पना तक दुश्वार है, उसकी चर्चा तक का सामना भीषण आक्रामकता के साथ किया जाता है. लेकिन  मोटे तौर पर मानवता बहुत खुले मन से नए विचारों को स्वीकार करती है. बदलाव का यह सहज स्वीकार ही मानव जाति के उत्थान का उत्प्रेरक  भी है.

मनोविज्ञान की दुनिया में अब तक यह  माना जाता रहा है कि अगर किसी व्यक्ति के मन में सकारात्मक भाव (तकनीकी शब्दावली में पी.ए. पॉज़िटिव अफेक्ट) मौज़ूद हों तो  उसकी सर्जनात्मता बढ़ जाती है. हम सब भी ऐसा ही मानते रहे हैं.  लेकिन अब न्यूज़ीलैण्ड के ओटागो  विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान विभाग के शोधार्थियों ने तेरह दिन तक 658 विद्यार्थियों के क्रियाकलाप का गहन अध्ययन करने के बाद यह कहा है कि अगर कोई व्यक्ति किसी दिन अधिक सर्जनात्मक गतिविधियों में रत रहता है तो अगले दिन वह अन्य दिनों की तुलना में ज़्यादा उत्साह और अधिक प्रफुल्लता का अनुभव करता है. इस शोध ने अब  तक प्रचलित धारणा को सर के बल खड़ा कर दिया है. डॉ तामलिन कॉनर के नेतृत्व में की गई  इस शोध को इसलिए महत्वपूर्ण माना जा रहा है कि इसने सकारात्मक भाव से सर्जनात्मकता में वृद्धि के विचार के विपरीत जाकर सर्जनात्मकता से सकारात्मकता की वृद्धि की अवधारणा  को स्थापित किया है. अगर शांत मन से सोचें तो यह निष्कर्ष सही भी प्रतीत होता है. जब हम खुद को किसी सर्जनात्मक कर्म में डुबो लेते हैं तो न सिर्फ शांति का अनुभव करते हैं,   उत्फुल्लित  भी महसूस करते हैं. जब भी कोई इस तरह के किसी काम में अपने आप को व्यस्त करता है, उसका तनाव खुद-ब-खुद दूर हो जाता है, उसे अपने नकारात्मक विचारों से मुक्ति मिल जाती है और वो मानसिक रूप से बेहतर अनुभव करने लग जाता है. यह हम सबके साथ होता है. विश्वास न हो तो इसे आज़मा कर भी देख सकते हैं. तो ऐसे में यह मानना उपयुक्त होगा कि  डॉ तामलिन कॉनर अपने शिधार्थियों के शोध के बाद जिस नतीज़े पर पहुंची हैं वो तर्कसंगत है.

ओटागो विश्वविद्यालय के इस शोध कार्य में हालांकि शोधार्थियों ने उक्त 658 विद्यार्थियों से औपचारिक रूप से तो यह नहीं पूछा था कि उन्होंने कौन-कौन-सी सर्जनात्मक गतिविधियों में भाग लिया, इससे पहले किए गए एक अध्ययन में अनौपचारिक रूप से यह जानने का प्रयास किया गया था कि लोग क्या-क्या सर्जनात्मक काम करते हैं. उसी अध्ययन में यह बात पता चली थी कि गाने लिखना, कविता कहानी जैसा सर्जनात्मक लेखन करना सर्वाधिक लोकप्रिय है. सर्जनात्मक काम के कुछ अन्य उदाहरण हैं किसी भी तरह की चित्रकला या कलाकृति का निर्माण जैसे रेखांकन, तस्वीर बनाना, यहां तक कि ग्राफिक या डिजिटल कला में रत होना, सांगीतिक कला में निमग्न होना अर्थात गाना या बजाना, और अगर उदार होकर सोचें तो कलाकारी का क्षेत्र इनसे भी काफी आगे तक बढ़ जाएगा, मसलन रसोई घर में जाकर कोई नई पाक विधि आज़माना या कोई उम्दा डिश बनाना, स्वेटर बुनना, कशीदाकारी करना या क्रोशिए का काम करना आदि.

ओटागो विश्वविद्यालय का यह शोध-अध्ययन एक प्रतिष्ठित पत्रिका द जर्नल ऑफ पॉज़िटिव साइकोलॉजीमें प्रकाशित हुआ है और इसके साथ दी गई टिप्पणी में सही ही कहा गया है कि “कुल मिलाकर इस अध्ययन से  सकारात्मक मनोवैज्ञानिक क्रियाकलापों के उन्नयन के लिए रोज़मर्रा के सर्जनात्मक कर्म के निरंतर बढ़ते जा रहे स्वीकरण की पुष्टि ही होती है.” यहीं यह याद कर लेना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि अपने देश में भी शिक्षण संस्थाओं में सांस्कृतिक कार्यकर्मों के प्रोत्साहन के मूल में यही भाव विद्यमान रहा है, हालांकि धीरे-धीरे सांस्कृतिक कार्यक्रम एक रस्म अदायगी बन कर रह गए या उनके स्वरूप में बहुत सारी विकृतियां आ गईं. यह बात भी याद की जानी चाहिए कि देश के श्रेष्ठतम शिक्षण संस्थानों जैसे आई आई टी वगैरह में बाकायदा सर्जनात्मक लेखन विभाग होते हैं और स्पिक मैके जैसी संस्थाएं शिक्षण संस्थाओं में शास्त्रीय संगीत की प्रस्तुतियां करवाती हैं. इन सबसे भी इस शोध कार्य के निष्कर्षों की पुष्टि  ही होती है.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 06 दिसम्बर, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 
  

Tuesday, November 29, 2016

इटली में होटल में ठहरें मुफ्त में. शर्तें लागू!

विकट समय में एक अच्छी ख़बर. इटली में कुछ होटल आपको अपने यहां मुफ्त में ठहरने का ऑफर  दे रहे हैं. लेकिन आप वहां जाने के लिए तैयारियां शुरु करें उससे पहले बारीक लिखावट वाली कुछ शर्तों को जान लेना आपके हित में  होगा. पहली बात तो यह कि यह सुविधा इटली के सारे होटल नहीं दे रहे हैं. दूसरी बात यह कि इस सुविधा के साथ एक और ख़ास शर्त जुड़ी है. शर्त यह है कि होटल  में ठहरने वाले युगल को नौ माह बाद अपने यहां शिशु जन्म का प्रमाण पत्र देना होगा. अगर वह सही पाया गया तो अभी जितने समय आप होटल में रुके हैं उतने ही समय फिर से निशुल्क रुक सकेंगे या अभी आपने जो भुगतान किया है वह आपको लौटा दिया जाएगा. और यह सुविधा इटली के एक शहर असीसी के होटल असोसिएशन द्वारा वहां के दस चुनिंदा होटलों में ठहरने पर ही देय होगी. यहीं यह भी बताता चलूं कि इटली में इन दिनों औसतन एक डबल बेड रूम का किराया करीब सौ यूरो होता है. भारत में फिलहाल एक यूरो करीब सत्तर रुपये का है. इससे आप होने वाली बचत का अनुमान लगा सकेंगे.  

असल में इटली इस समय अनेक बड़ी समस्याओं से जूझ रहा है. कहा जा रहा है कि वहां जन्म दर बहुत तेज़ी से घटती जा रही है. सन 1960 की तुलना में यह घट कर आधी ही रह गई है. माना  जा रहा है कि एक राष्ट्र के रूप में इटली के एकीकरण के बाद से पिछले बरस वहां जन्म दर अपने न्यूनतम पर थी. औसतन इटली की स्त्रियां 1.39 शिशुओं को जन्म देती हैं जो यूरोपीय संघ के 1.58 वाले औसत से काफी कम है. यह अनुमान लगाया गया है कि अगर यही रुझान बना रहा तो अगले दस सालों में वहां सन 2010 की तुलना में लगभग साढे तीन लाख यानि चालीस प्रतिशत शिशु कम जन्म लेंगे. इस स्थिति को ‘जनसांख्यिक  कयामत’  का नाम दिया गया है. और इसी सम्भावित कयामत का सामना करने के लिए असीसी शहर के होटल मालिकों ने हाल में यह  ‘फर्टिलिटी  रूम’  नामक अभियान शुरु किया है. इस अभियान के तहत दिये जाने वाले कमरों में मोमबत्तियां, पुष्प और संगीत जैसी रोमाण्टिक सुविधाएं भी प्रदान की जा रही हैं.  होटल संगठन के  एक प्रवक्ता का कहना है कि “किसी शिशु को जन्म देना प्रेम की गहनतम अभिव्यक्ति है और हमें जीवन की बहुत सारी कठिनाइयों के बावज़ूद इसको  प्रोत्साहित करना चाहिए.” उन्होंने आपने इस अभियान के लिए नारा भी बनाया है: “कम टू असीसी. टुगेदर.” 

लेकिन असीसी के होटल व्यवसाइयों का यह नेक इरादा बहुतों को पसंद नहीं भी आया है. कुछ को लग रहा है कि यह अभियान असीसी शहर की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक छवि के अनुरूप नहीं है. यह नगर पोप फ्रांसिस की जन्मभूमि के रूप में भी जाना जाता है. लोगों की इस नापसंदगी  ने स्थानीय प्रशासन को भी इस अभियान से दूरी बरतने को मज़बूर कर दिया और वहां के एक काउंसिलर को बाकायदा बयान ज़ारी कर कहना पड़ा कि वे इस बात का पता लगाएंगे कि कहीं यह अभियान असीसी की छवि को आहत तो नहीं कर रहा है. इसी संदर्भ में यह भी याद किया जा सकता है कि कुछ समय पहले इटली के स्वास्थ्य मंत्री महोदय को भी इसी समस्या का सामना करने के लिए 22 सितम्बर को ‘फर्टिलिटी दिवस’ मनाने के लिए ज़ारी किए गए पोस्टरों को वापस लेने को मज़बूर कर दिया था क्योंकि लोगों ने उन्हें असंवेदनशील और उन स्त्रियों के खिलाफ़ माना था जो किसी कारण गर्भ धारण कर पाने में असमर्थ हैं. 

वैसे इटली में जन्म दर में यह गिरावट अकारण नहीं है. वहां की आर्थिक अनिश्चितता  और  अत्यधिक बेरोज़गारी इसके मूल में है. हालांकि यह बात भी सही है कि बेरोज़गारी के हालात अब कुछ सुधरने लगे हैं. फिर भी स्थिति काफी चिंताजनक बनी हुई है. इसी बेरोज़गारी के चलते अनेक यूरोपीय देशों की तरह यहां भी ‘नो चाइल्ड बेनेफिट’  योजना लागू है.  कामकाजी महिलाओं पर यह खतरा भी मण्डराता रहता है कि अगर वे मां बन गईं तो उन्हें अपनी  नौकरी से हाथ धोना पड़ सकता है. इटली में कामकाजी महिलाओं के लिए उनके शिशुओं की देखभाल की सुविधाएं  भी बहुत कम हैं. ये ही कारण इस बात  के भी मूल में है कि वहां स्त्रियां अपने मातृत्व को स्थगित करने लगी हैं और सन 2002 से 2012 के बीच चालीस  बरस से अधिक की आयु में मां बनने वाली स्त्रियों की संख्या दुगुनी हो गई है. औसतन वहां स्त्रियां इकत्तीस बरस  सात माह की आयु में पहली दफा मां बन रही हैं. 
सारी दुनिया गहरी दिलचस्पी से इस बात को देख रही है कि विषम आर्थिक परिस्थितियों के बीच घटती जन्म दर की समस्या का सामना इटली जैसा परम्परा प्रेमी  देश कैसे करता है! 

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 29 नवम्बर, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.

Tuesday, November 22, 2016

हर कोई त्रस्त है डिजिटल दुनिया के नए वायरस से

आजकल डिजिटल दुनिया में एक वायरस ने सबके नाकों में दम कर रखा है. उस वायरस  का नाम है –फ़ेक न्यूज़. यानि मिथ्या समाचार. यह वायरस इतना अधिक फैल चुका है कि लोग बरबस एक पुरानी कहावत को फिर से याद करने लगे हैं. कहावत है – झूठ तेज़ रफ़्तार  से दौड़ता है जबकि सच लंगड़ाता हुआ उसका पीछा  करने की कोशिश करता है.  हाल में सम्पन्न हुए अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव के दौरान भी ऐसा ही  हुआ, और खूब हुआ. सामाजिक मीडिया पर यह बात खूब चली कि पोप फ्रांसिस ने डोनाल्ड ट्रम्प का समर्थन किया है, या कि लोकप्रिय मतदान में ट्रम्प महाशय हिलेरी क्लिण्टन से आगे चल रहे हैं. कहना अनावश्यक है कि ये ख़बरें आधारहीन  थीं. लेकिन इन और इनकी तरह की अन्य ख़बरों के प्रसार का आलम यह था कि अमरीका में समाचारों का विश्लेषण करने वाली एक संस्था को यह कहना पड़ा कि फेसबुक पर बीस शीर्षस्थ वास्तविक और प्रमाणिक खबरों की तुलना में बीस शीर्षस्थ मिथ्या खबरों को शेयर्स, लाइक्स और कमेण्ट्स के रूप में अधिक समर्थन हासिल हुआ. आम तौर पर माना जाता है कि इस तरह की मिथ्या खबरों को फैलाने का काम या तो कुछ लालची स्कैमर्स करते हैं और या फिर भोले-भाले नासमझ लोग. लेकिन अमरीका में तो विभिन्न प्रत्याशियों और निर्वाचित जन प्रतिनिधियों को भी इस तरह की आधारहीन खबरों को फैलाते हुए पाया गया है. मसलन नेब्रास्का के एक रिपब्लिकन सीनेटर ने हाल में ट्वीट करके कहा कि कुछ लोगों को पैसे देकर उनसे ट्रम्प के खिलाफ दंगे करवाए गए. यह एक झूठ था जिसे जान-बूझकर प्रचारित किया गया था. इस तरह की अनेक झूठी खबरों के निर्माता एक व्यक्ति ने तो वॉशिंगटन पोस्ट में यह बात लिख ही दी कि उसकी रची हुई बहुत सारी क्लिण्टन विरोधी खबरों को, बिना उनकी उनकी प्रमणिकता जांचे,  ट्रम्प के समर्थकों और उनके चुनाव अभियान के आयोजकों ने बढ़ चढ़कर प्रसारित किया. इस लेखक ने यह भी कयास लगाया है कि उसके  द्वारा रची गई इन मिथ्या  खबरों का भी रिपब्लिकन विजय में कुछ न कुछ योगदान अवश्य रहा है. 

लेकिन विचारणीय  बात यह है कि क्या झूठ के इस फैलाव के लिए सिर्फ इनके निर्माता ज़िम्मेदार हैं, या कि कुछ ज़िम्मेदारी उस सोशल मीडिया की भी है जिसके मंच का इस्तेमाल झूठ के फैलाव के लिए किया जाता है. यहीं यह बात भी याद कर लेना  उचित होगा कि सामाजिक मीडिया के मंचों के माध्यम से झूठ के प्रचार-प्रसार का यह कारोबार केवल अमरीका में ही नहीं चल रहा है. म्यांमार जैसे देश में शरारतपूर्ण खबरों की वजह से जातीय हिंसा फैलाई गई तो इण्डोनेशिया, फिलीपींस वगैरह में चुनाव जीतने के लिए इसका इस्तेमाल किया गया. पश्चिमी अफ्रीका में इबोला वायरस  के बारे में झूठ फैलाया गया तो कोलम्बिया में शांति स्थापना प्रयासों के पक्ष में किए जाने वाले जनमत संग्रह के बारे में दुष्प्रचार के लिए इसका इस्तेमाल  किया गया. खुद अपने देश में इसके इस्तेमाल के बारे में कुछ भी लिखना  इसलिए अनावश्यक है कि हम सब उससे भली-भांति परिचित हैं. सच और झूठ के  बीच फर्क़ करना ही मुश्क़िल होता जा रहा है. कभी-कभी तो लगता है कि भूसे के ढेर में जैसे सुई खो जाया करती है वैसे ही झूठ  के ढेर  में सच खो गया है. 

ऐसा वायरस फैलाने से जिनके किसी भी तरह के कोई हित सधते हैं, यानि उन्हें ऐसा करने के लिए पैसा मिलता है या वे अपने पक्ष को सबल करने के उत्साहितिरेक में ऐसा करते हैं, उनको छोड़ शेष लोग तो स्वाभाविक रूप से इस प्रवृत्ति से चिंतित हैं और इसके खिलाफ़ हैं. ऐसे लोगों ने बार-बार सोशल मीडिया के नियंताओं के आगे गुहार लगाकर उनसे मदद भी मांगी है. और ऐसा भी नहीं है कि वे लोग इस बार में हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं. मार्क ज़ुकरबर्ग ने तो सन 2012 में ही अपने निवेशकों को लिखे एक पत्र में यह कहा था कि वे चाहते हैं कि सोशल मीडिया समाज के उत्थान में सहयोगी बने. अब भी फेसबुक के संचालक झूठ के खिलाफ़ लामबंद हैं. आर्थिक क्षति उठाकर भी वे मिथ्या ख़बरों वाली साइट्स पर फेसबुक पॉवर्ड  विज्ञापन नहीं दे रहे हैं. गूगल वाले भी ऐसा ही कर रहे हैं. इन्हीं गर्मियों में फेसबुक ने तकनीकी रूप से ऐसा करने का भी प्रयास किया है कि हमें अपनी न्यूज़ फ़ीड्स में समाचार संगठनों की फ़ीड्स की तुलना में दोस्तों और परिवार जन की ज़्यादा फ़ीड्स देखने को मिलें. ज़ाहिर है कि इस प्रयास से झूठ के फैलाव को रोकने में कुछ तो कामयाबी हासिल होगी. लेकिन लड़ाई लम्बी है और प्रतिपक्ष बहुत चालाक. 
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न  दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 22 नवम्बर, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, November 15, 2016

जो पहले जन्मा वो छोटा और जो बाद में जन्मा वह बड़ा है!

फिल्म 'हिना' का वो गाना याद है ना: 'देर करता नहीं हूं देर हो जाती है.'  सोचता हूं कि अगर इसे बदल कर यों कर दिया जाए कि 'गड़बड़ करता नहीं हूं, गड़बड़ हो जाती है, तो कैसा रहे?'  ना, ना, आप ग़लत न समझें. मैंने कोई गड़बड़ नहीं की है. अलबत्ता सात समुद्र पार के अमरीका में ज़रूर एक मज़ेदार गड़बड़ हो गई. उसी का किस्सा आपको सुनाने के लिए यह भूमिका मैंने बनाई है. पिछले दिनों अमरीका के मैसाचुसेट्स राज्य के एक कस्बे के अस्पताल में एक अजीबोगरीब स्थिति पैदा हो गई. इसी छह नवम्बर को अल्लसुबह इस राज्य के एक छोटे-से कस्बे के एक अस्पताल में एमिली और सेठ पीटरसन के परिवार में दो जुड़वां बेटों की आमद हुई. सुबह एक बजकर उनतालीस  मिनिट पर एमिली ने जन्म दिया पांच पाउण्ड के सेम्युअल को, और इसके ठीक इकत्तीस मिनिट बाद इस खूबसूरत दुनिया में अवतरित हुए इनसे चौदह औंस  अधिक वज़न वाले इनके लघु भ्राता रोनान. आप सही गणना कर रहे हैं कि रोनान इस दुनिया में अवतरित हुए ठीक दो बजकर दस मिनिट पर. इस तरह बड़े भाई सैम्युअल हुए और छोटे भाई हुए रोनान.

लेकिन अस्पताल से इनके जन्म के जो प्रमाण पत्र ज़ारी हुए उनमें सैम्युअल के जन्म का समय प्रात: 1.39 और रोनान के जन्म का समय प्रात: 1.10 अंकित किया गया. अगर आप सोच रहे हैं कि ऐसा उलटफेर अस्पताल के किसी कर्मचारी की चूक  की वजह से हुआ होगा, तो आपको अपने सोच पर पुनर्विचार  करना होगा. आप भी कहेंगे कि इसमें पुनर्विचार की ज़रूरत कहां है? ग़लती तो ग़लती है. लेकिन अब मैं आपको बताता हूं कि यह ग़लती नहीं है.

इस बात  को समझने के लिए हमें उस व्यवस्था को समझना होगा जिससे हम अपरिचित हैं और जो व्यवस्था जो दुनिया के कुछ अन्य देशों की तरह अमरीका के अधिकांश राज्यों में भी चलन में है. व्यवस्था यह है  कि साल के गर्म महीनों की शुरुआत के समय घड़ी की सुइयों को एक घण्टा आगे खिसका दिया जाए. इससे सुबह एक घण्टे  बाद होती है और दिन  एक घण्टे बाद तक बना रहता है. इस व्यवस्था को डे लाइट सेविंग टाइम –संक्षेप में डीएसटी-  कहा जाता है. अमरीका में मार्च के दूसरे रविवार से यह व्यवस्था लागू होती है और नवम्बर के पहले रविवार को समाप्त हो जाती है. राज्य विशेष के स्थानीय समय के अनुसार सुबह दो बजे से इस व्यवस्था की शुरुआत होती है. भारत में ऐसा नहीं होता है, इसलिए हम इस व्यवस्था से अनभिज्ञ हैं. याद रखें कि नवम्बर के पहले रविवार (इस बरस छह नवम्बर को पहला रविवार था) से अमरीका में घड़ी की सुइयां एक घण्टा पीछे कर दी गई थीं. अब शायद यह बात स्पष्ट हो गई हो कि जब सैम्युअल महाशय इस दुनिया में अवतरित हुए तब घड़ी में समय हो रहा था एक बजकर उनतालीस मिनिट. लेकिन जब इसके ठीक इकतीस  मिनिट बाद उनके लघु भ्राता रोनान महाशय ने इस दुनियाँ में पदार्पण किया तब तक अमरीकी डे लाइट सेविंग व्यवस्था के अनुसार वहां की घड़ियों की सुइयां एक घण्टा पीछे की जा चुकी थीं. इसलिए इकतीस  मिनिट बाद दुनिया में पधारने वाले रोनान भइया के जन्म  का समय कागज़ों में अंकित किया गया एक बजकर दस मिनिट. यानि ठीक इकतीस  मिनिट छोटे रोनान अपने ही बड़े भाई सैम्युअल को छोटा साबित करते हुए उनसे  उनतीस मिनिट बड़े बन गए. और वो भी आधिकारिक रूप से. है ना मज़ेदार बात!

इस पूरे मामले का मज़ा लेते हुए इनकी मां, बत्तीस वर्षीया एमिली पीटरसन ने बताया कि उनके पतिदेव उनके पास आकर बोले कि तुम्हारे लिए एक पहेली है! छोटे बड़े की यह उलझन सुनकर एक बार  तो एमिली भी चकरा गई. लेकिन फिर उसे लगा कि इसमें क्यों दिमाग खपाया जाए. लेकिन जब एक दिन बाद ही अस्पताल की नर्स ने उससे कहा कि वो चालीस बरसों से वहां काम कर रही है लेकिन ऐसा वाकया पहली दफा सामने आया है, तो एमिली को भी लगा कि बात है तो ग़ौर  तलब. लेकिन अब वो भी जीवन में आ गई इस उलझन का भरपूर लुत्फ़ ले रही है. एमिली हंसते हुए कहती हैं कि भले ही सैम्युअल और रोनान के बीच छोटे-बड़े की यह उलझन आ खड़ी हुई है, इनकी बड़ी बहन ऑब्रे तो इनसे बड़ी ही है, और बड़ी रहेंगी. मामले का सौहार्द्रपूर्ण पटाक्षेप करती हुई एमिली कहती हैं, "मैं उम्मीद करती हूं कि अपने भावी जीवन में सैम्युअल और रोनान इस बात को लेकर कोई झगड़ा नहीं करेंगे!"  

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 15 नवम्बर, 2016 को 'अमरीका में डीएसटी सिस्टम से बड़ा भाई हुआ छोटा' शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, November 8, 2016

ताकि स्कूल कल किसी और की बेटी का अपमान न करे!

अमरीका के मेरीलेण्ड राज्य के वाल्डोर्फ शहर के एक मिडिल स्कूल में जैसे ही श्रीमती एबॉनी बैंक्स की ग्यारह वर्षीया बेटी पहुंची, स्कूल प्रशासन ने उसे क्लास में बैठने की अनुमति देने से मना कर दिया, उसे एक अलग कमरे में बिठाया और कहा कि वो अपनी मां को फोन करे. बिटिया  ने मां से कहा कि वो उसके लिए एक जीन्स  लेकर फौरन स्कूल आ जाए. स्कूल प्रशासन का कहना  था कि वो लड़की जिस वेशभूषा में स्कूल आई थी उससे उनके ड्रेस कोड का उल्लंघन हो रहा था. लड़की ने काले रंग की लेगिंग्स पहनी थी और उस पर कमर तक पहुंच रहा काले रंग का छोटी आस्तीन वाला शर्ट और गुलाबी रंग का स्वेटर जैकेट पहना था. स्कूल की अपेक्षा थी कि जो लड़कियां लेगिंग्स पहनें वे पाँव की उंगलियों तक पहुंचने वाले शर्ट भी पहनें ताकि वे अपनी देह की तरफ़ अनावश्यक ध्यान आकृष्ट न कर सकें.

मेरीलेण्ड के ही विश्वविद्यालय की एक प्रोफेसर और जेण्डर एक्सप्रेशन की विशेषज्ञ  ड्रेस इतिहासकार जो पाओलेत्ती ने बहुत महत्वपूर्ण बात कही है. उन्होंने कहा है कि इस बात की परिभाषा सदा बदलती रहती है कि क्या अनुपयुक्त या सेक्सी है. अपनी बात को और खोलते हुए वे कहती हैं कि फैशन निरंतर नए आविष्कार करता रहता है और उन्हीं के पीछे चलते हुए ड्रेस कोड लेखकों को यह तै करना होता है कि क्या अनुपयुक्त है और किसे बैन किया जाना है. ड्रेस कोड का मसला स्कूलों  में विशेष अहमियत रखता है और वहां भी इसके घेरे में लड़कों की बजाय लड़कियां ज़्यादा आती हैं. अमरीका के विभिन्न राज्यों में, और अपने भारत में भी, स्कूलों में कौन क्या पहने और क्या न पहने इस पर प्राय: विवाद होते रहे हैं. बहुत सारे स्कूलों ने तो इस विवाद से निजात पाने का आसान तरीका यह तलाश किया है कि उन्होंने अपने यहां यूनीफॉर्म निर्धारित कर दी है. लेकिन जहां ऐसा नहीं हुआ है वहां विवाद भी अधिक हुए हैं.

यहां हमने जिन श्रीमती एबॉनी बैंक्स के ज़िक्र से अपनी बात शुरु की, वे अपनी बेटी के स्कूल के इस फैसले से बेहद नाराज़ हैं. इतनी कि उन्होंने स्कूल के सर्वोच्च  प्रशासन से शिकायत  करने के साथ-साथ संघीय अधिकारियों का दरवाज़ा भी खटखटाया है और सिविल राइट्स में भी शिकायत दर्ज़ कराई है. उनका कहना है कि उनकी बेटी स्कूल की ऑनर रोल विद्यार्थी है और वो डॉक्टर बनने का ख्वाब देखती है. ऐसी ज़हीन लड़की को महज़ चन्द इंच कपड़ों की खातिर पूरे बीस मिनिट कक्षा से वंचित कर देना नाइंसाफी  है. उनका यह भी कहना है कि स्कूल का यह कृत्य उस बच्ची के मन पर नकारात्मक असर डालेगा, उसके स्व-देह-बोध और स्वाभिमान को ठेस पहुंचाएगा. एबॉनी बैंक्स ने कहा कि स्कूल का यह कृत्य निहायत ही सेक्सिस्ट है और इसने मेरा  खून खौला दिया है. इस विवाद का एक पहलू यह भी सामने  आया कि यह बच्ची जिस अफ्रीकी अमरीकन समूह से ताल्लुक रखती है उनकी देह औरों की तुलना में अधिक मांसल होती हैं, और कदाचित इसी वजह से स्कूल प्रशासन ने उसकी ड्रेस को आपत्तिजनक माना हो. हालांकि स्कूल प्रशासन ने इस सम्भावना को सिरे से नकारा है और कहा है कि वे लड़कों से भी उम्मीद करते हैं कि अपनी पतलूनों को नितम्बों से नीचे न बांधा करें. स्कूल ने अपने कृत्य को उचित ठहराते हुए एक तर्क यह भी दिया कि जैसे चौराहे का सिपाही बहुत सारे वाहन चालकों में से कुछ का ही चालान कर पाता है वैसे ही वे भी सबमें से कुछ ही विद्यार्थियों की वेशभूषा पर आपत्ति कर सके हैं. स्कूल की इस बात से शायद ही कोई असहमत हो कि स्कूल का एकमात्र उद्देश्य यह होता है कि विद्यार्थी अपनी पढ़ाई और कैरियर पर ध्यान दें और साथ ही यह भी  समझें कि जीवन में अलग-अलग अवसरों पर अलग-अलग  वेशभूषा की ज़रूरत होती है. 

लेकिन स्वाभाविक है कि सभी लोग स्कूल के इस कृत्य से सहमत नहीं हैं. तेरह वर्षीया सोला   बियर्स ने स्कूल के इस कृत्य के विरुद्ध अपनी आवाज़  बुलन्द करते हुए कहा कि स्कूल का यह ड्रेस कोड वाकई सेक्सिस्ट है. इसमें लड़कियों के लिए तो बहुत सारे नियम-कायदे हैं, लेकिन लड़कों के लिए एक भी प्रतिबन्ध नहीं है. सबसे उम्दा बात तो कही खुद एबॉनी बैंक्स ने. उन्होंने कहा कि उनकी बेटी घटना वाले दिन से ही विचलित रही लेकिन उसने इस बात को जल्दी ही भुला भी दिया. लेकिन खुद उन्होंने इस मामले को किसी परिणति तक पहुंचाने के लिए अपने प्रयास ज़ारी रखे हैं. वे यह महसूस करती हैं कि यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर व्यापक विमर्श की ज़रूरत है. “मैं नहीं चाहती कि किसी और लड़की को भी मेरी बेटी की तरह अपमानित करके कक्षा से बाहर निकाला जाए!. यह बेहद अपमानजनक  है.”      

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 08 नवम्बर, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.  

जापानी वैज्ञानिकों की उपलब्धि पर गर्व भी है, चिंता भी

आधुनिक विज्ञान जिस तेज़ गति से नए नए करतब करता जा रहा है उससे हम एक साथ ही चकित भी हो रहे हैं और चिंतित भी. चकित होने की वजह तो यह है कि विज्ञान की नव सृजन की गति हमारी कल्पना से भी आगे निकली जा रही है. मैं तो प्राय: सोचता हूं कि अगर कोई चमत्कार हो जाए और सौ बरस पहले रहा कोई व्यक्ति आज की दुनिया में आ जाए तो वह अपने चारों तरफ की दुनिया देखकर पगला ही जाएगा. इधर हाल में जापान से एक नए सृजन की जो ख़बरें आई हैं वे एक बार फिर हमें दांतों तले उंगलियां दबाने को मज़बूर कर रही हैं. जापान के वैज्ञानिकों की एक टीम ने साया नाम की एक कन्या का निर्माण किया है, और यह कन्या आजकल जापान की बहुत बड़ी सेलेब्रिटी बनी हुई है. स्कूली परिधान में सजी-धजी झालरदार बालों वाली इस  सत्रह वर्षीय  बाला को जो भी देखता है  उसका ध्यान इस बात की तरफ जाता ही नहीं है कि वो इंसान नहीं है. जो भी उसे देखता है वो  सच्चाई को जानने के बाद भी यही कहता है कि वह एकदम वास्तविक लड़की लगती है.

जापान में एक बड़ी टीम  ने काफी लम्बे प्रयासों  के बाद इस साया नाम वाली कन्या  का सृजन किया है. इस टीम की ग्राफिक आर्टिस्ट  यूका इशिकावा और उनके पति ने जब साया की तस्वीरें ऑनलाइन  जारी की तो दुनिया ने पहली बार यह जाना कि कम्प्यूटर डिज़ाइन से क्या कमाल किया जा सकता है. यूका इशिकावा  को लोगों से जो प्रतिक्रियाएं मिली हैं वे अभिभूत कर देने वाली हैं. जिन्होंने भी उनके सृजन साया को देखा है, यही कहा है कि यह तो एकदम वास्तविक लगती है. और लगेगी भी क्यों नहीं! बीते एक साल के दौरान इस दम्पती ने साया को हूबहू इसान बनाने के लिए मेहनत भी तो कम नहीं की है. यूका इशिकावा  ने बताया है कि उन्होंने साया को मानवीय बनाने के लिए उसके सिर से  अंगूठे तक कड़ी मेहनत की है. अपनी मेहनत की बात को और स्पष्ट करते हुए यूका  इशिकावा ने एक मार्मिक बात कही है. उन्होंने कहा है, “हम खुद को साया के पैरेण्ट्स के तौर पर  नहीं देखते हैं, लेकिन हमने उसे अपनी बेटी की तरह ही प्यार और लगाव से तैयार किया है.” यूका  और उनकी टीम ने साया के सृजन के लिए टोक्यो के शिबुआ इलाके में रहने वाली लड़कियों को मानक माना है. साया में उन्होंने जापानी महिलाओं में पाए जाने वाले तमाम गुणों को शामिल किया है, इसलिए वह दयालु, भली और नैतिक मूल्यों से युक्त लड़की है. क्यूट तो वो है ही. और हालांकि इस कृत्रिम संरचना की अपनी कोई उम्र नहीं है, उसे सत्रह वर्षीया कन्या के रूप में तैयार किया गया है.

वैसे साया के सृजन की कथा बड़ी रोचक है. मूलत: इस टीम को एक शॉर्ट फिल्म के लिए एक किरदार की रचना करनी थी, और इस तरह साया का सृजन एक साइड प्रोजेक्ट भर था. लेकिन जब यह प्रोजेक्ट बहुत सराहा गया तो यूका इशिकावा को इसमें अपरिमित सम्भावनाएं नज़र आने लगीं, और तब उन्होंने और उनके पति ने अपनी नौकरी छोड़ दी और वे पूरी तरह से साया के सृजन में जुट गए. नौकरी से बचाए हुए पैसों से उन्होंने अपना चूल्हा जलाए रखा और प्रोजेक्ट  के लिए धन सुलभ कराया  कॉरपोरेट घरानों ने. अब जबकि साया पर काफी काम किया जा चुका है, और इसी सप्ताह उसका पहला एनिमेटेड प्रारूप जापान में आयोजित होने वाली  कंज्यूमर इलेक्ट्रॉनिक एक्ज़ीबीशन में प्रदर्शित किया जा रहा है, इशिकावा युगल महसूस करते हैं कि उन्हें अभी इसकी चाल-ढाल को और संवारना है.  उन्हें लगता है कि साया जब चलती है तो उसके मूवमेण्ट सहज नहीं बल्कि  झटकेदार होते हैं. अपने सपनों को और विस्तार देते हुए अब इशिकावा दम्पती  इसे एक वर्चुअल ह्यूमन के रूप में विकसित करना चाहते हैं. उनका खयाल है कि आर्ट तकनीकी की मदद से वे साया को फ्रेम के दायरे से बाहर निकाल कर आम लोगों के संसार में ला सकेंगे. तब साया आम लड़कियों की तरह बात करेगी और लोगों को भावनात्मक संबल भी प्रदान कर सकेगी.

और यहीं उस बड़े ख़तरे की आहट भी सुनी जा सकती है जो इस प्रयोग की सफलता के पीछे से झांक रहा है. सोचिये, अगर यह प्रयोग कामयाब रहा तो क्या हमें इस आशंका से भयभीत नहीं होना चाहिए कि कल को कोई ताकतवर सत्ता अपनी मनपसंद प्रजा का सृजन नहीं कर डालेगी! और अगर वह प्रजा भली नहीं हुई तो? अगर किसी ने दैत्यों की ही एक दुनिया का निर्माण कर डाला तो? बेशक ये सम्भावनाएं, या आशंकाएं अभी हमारे बहुत नज़दीक नहीं हैं लेकिन यह हमारे अपने हित में होगा कि हम इनके बारे में सावचेती बरतें. 


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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 01 नवम्बर  को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, October 25, 2016

कलाकृतियों को नए आलोक में देखना सीखें

संयुक्त राज्य अमरीका के कैलिफोर्निया राज्य के सान लियाण्ड्रो  कस्बे में हाल ही में एक नए तकनीकी ऑफिस कॉम्प्लेक्स में निजी ज़मीन पर स्थापित की गई एक कलाकृति को लेकर घनघोर बहस हो रही है. तेरह हज़ार पाउण्ड वज़न वाली और पचपन फुट ऊंची यह कृति एक निर्वसन  नृत्यांगना  की है. स्टील की जाली से निर्मित  इस कृति में, जो कि आकार में माइकेलएन्जिलो की विख्यात कृति डेविड से तीन गुनी है, एक स्त्री नृत्य की लालित्यपूर्ण मुद्रा में खड़ी है और उसके हाथ ऊपर की तरफ उठे हुए हैं. जिस प्लेटफॉर्म पर यह  मूर्ति स्थापित है उस पर विश्व की दस भषाओं में एक सन्देश अंकित है जिसका भाव कुछ इस तरह है कि “जिस  दुनिया में स्त्रियां सुरक्षित होंगी वो दुनिया कैसी होगी!” इस मूर्ति का शीर्षक है: ट्रुथ इज़ ब्यूटी!

इस कृति का निर्माण सन 2013 में नेवाडा के रेगिस्तान में आयोजित वार्षिक प्रतिसंस्कृति समारोह बर्निंग मैन के दौरान हुआ था. जब सान लियाण्ड्रो में सार्वजनिक स्थलों पर कलाकृतियां लगाने का फैसला किया गया तो यहां के प्रशासनिक अधिकारियों  को उस परियोजना  के लिए यह मूर्ति बहुत उपयुक्त लगी और उन्होंने इसे खरीद लिया. सान लियाण्ड्रो के मेयर अपनी इस उपलब्धि पर इतने प्रसन्न थे कि उन्होंने कहा कि वे इसे पाकर गर्वित हैं. उन्होंने यह तो स्वीकार किया कि प्रारम्भ में नगर प्रशासन के कुछ अधिकारी इस मूर्ति को लेकर उल्लसित नहीं थे, लेकिन फिर उन्हें भी यह बात जंच गई कि इस मूर्ति के माध्यम से कला को लेकर एक संवाद की शुरुआत मुमकिन है.

और संवाद ही तो शुरु हुआ है इस मूर्ति को लेकर. संवाद भी और विवाद भी. कस्बे की एक सत्तावन वर्षीया नागरिक टॉनेट ने एक दिन अपने काम पर जाते वक़्त इस मूर्ति को देखा और सवाल किया कि अगर यह एक बैलेरिना है तो इसने कपड़े क्यों नहीं पहन रखे हैं? टॉनेट का कहना था कि अगर आपके भी बच्चे हों तो आप नहीं चाहेंगे कि वे ऐसी मूर्तियां देखें. और जैसे उन्हीं के स्वर में स्वर मिलाते हुए वहां की एक और नागरिक कीथ पहले तो बहुत ध्यान से इस मूर्ति को देखती हैं और फिर मासूमियत से पूछती हैं, “यह इतनी विशाल क्यों है? और इसने कपड़े क्यों नहीं पहने हैं?” दुर्भाग्य की बात यह कि जो बहस कला को लेकर होनी चाहिए वह उसकी बजाय कृति के वस्त्रों (के अभाव) पर जाकर अटक गई है. और यहीं यह बात भी याद कर लेना ज़रूरी लगता है कि इस मूर्ति के शिल्पकार मार्को कोचराने ने बताया था कि बचपन में ही उनके मन पर एक पड़ोसी बालिका के साथ हुई बलात्कार की नृशंस घटना की अमिट छाप अंकित हो गई थी और बड़े होकर अपनी कला के माध्यम से वे स्त्रियों पर होने वाले यौनिक आक्रमणों और उनकी आशंकाओं को व्यक्त करते हुए यह बात कहना चाहते रहे हैं कि जब स्त्रियां भयभीत नहीं होती हैं तब वे किस तरह की सशक्तता का अनुभव करती हैं. अगर हम इस मूर्तिकार की व्याख्या के आलोक में इस शिल्प को देखें तो हमारी प्रतिक्रिया निश्चय ही अलहदा और सकारात्मक होगी. उन्होंने कहा है कि इस शिल्प में वह स्त्री खुद को सुरक्षित अनुभव कर रही है और खुद के प्यार में डूबी हुई है. मैं सोचता हूं कि देखने वाले भी इसके इस प्यार को महसूस  कर सकते हैं. मार्को ने यह भी कहा है है कि यह स्त्री बहुत खूबसूरत है, और इस शिल्प का एक मकसद यह भी है कि यह पुरुषों को अपनी तरफ खींचे. जब वे खिंच कर इसकी तरफ आएं और इसे देखें, तो उनका ध्यान इसके नीचे अंकित संदेश पर भी जाए. मैं चाहता हूं कि बार-बार ऐसा हो.

और तमाम विवाद के बावज़ूद ऐसा हो भी रहा है. जैसे-जैसे इस शिल्प पर सहमति-असहमति की चर्चा ज़ोर पकड़ रही है, इसके प्रति लोगों का आकर्षण भी बढ़ता जा रहा है. यह शिल्प वहां का लोकप्रिय सेल्फी स्थल बन गया है. हाई स्कूल की  एक शिक्षिका जो सटन इससे इतनी प्रभावित हुई है कि वह तो अपनी पूरी क्लास को इसके अवलोकन के लिए ला रही है. तिहत्तर वर्षीय एक व्यापारी माइकल फनल ने इसकी  बहुत सारी तस्वीरें ली हैं ताकि वे विदेश में रह रहे अपने बेटे को भेज सकें. फनल ने बहुत सही कहा है कि यह एक विश्व स्तरीय मूर्ति है. फनल ने इस मूर्ति की विलक्षण व्याख्या की है. उनका कहना है: “इस मूर्ति की  स्त्री यह जानते हुए भी कि दुनिया उसके खिलाफ है, खुद को ढक नहीं रही है.  यह औरत पूरे दम-खम से कह रही है कि मैं हूं और ऐसी ही रहूंगी!”

क्या अब समय नहीं आ गया है कि हम भी कलाकृतियों को नए आलोक में देखना सीखें!  

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 25 अक्टोबर, 201 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.  

Tuesday, October 18, 2016

एक सार्थक पहल ताकि ज़िन्दगी में बना रहे मक़सद

कोई बहुत गम्भीर नाटक चल रहा है. मुख्य अभिनेता पूरे मनोयोग से अपनी लम्बा भावपूर्ण संवाद अदा कर रहा है, तभी हॉल  में किसी दर्शक का मोबाइल घनघनाता है. अन्य दर्शकों के आनंद में तो ख़लल  पड़ता ही है,  वह अभिनेता भी विचलित हो जाता है. अपने बिखरे सूत्रों को सहेजने में उसे कुछ क्षण लगते हैं. जाने-माने गायक-अभिनेता शेखर सेन की लगभग हर  प्रस्तुति में ऐसा हुआ है. वे लगभग दो घण्टे की  एक पात्रीय प्रस्तुति  देते हैं और कभी तुलसी, कभी सूर, कभी कबीर और कभी स्वामी विवेकानंद का पूरा जीवन सजीव कर देते हैं. हालांकि  वे अपने कार्यक्रम की प्रस्तुति से पहले भी दर्शकों से अपने मोबाइल स्विच ऑफ करने का अनुरोध कर देते हैं, लेकिन दर्शक तो अपनी मर्ज़ी के मालिक ठहरे. वे भला ऐसे अनुरोधों को क्यों सुनें! किसी भी संवेदनशील कलाकार के लिए  यह मंज़र बहुत कष्टप्रद होता है कि वह अपनी प्रस्तुति दे रहा है और सामने बैठा  या बैठे दर्शक उस प्रस्तुति को मनोयोग से देखने की बजाय या तो उसे अपने कैमरे में कैद करने में लगे हैं या कोई संदेश टेक्स्ट कर रहे हैं या फेसबुक/व्हाट्सएप में घुसे हुए हैं. यानि वे वहां होकर भी वहां नहीं हैं. 

लेकिन कलाकारों का यह त्रास अब बहुत जल्दी अतीत हो जाने वाला है. अमरीका के ऑरेगॉन राज्य के पोर्टलेण्ड  शहर में जन्मे उनत्तीस वर्षीय डुगोनी ने एक ऐसा उपकरण बना डाला है जो कलाकारों के लिए बहुत बड़ी  राहत का कारण बनने जा रहा है. डुगोनी द्वारा निर्मित यह उपकरण असल में एक मोबाइल रखने का एक पाउच है. जैसे ही आप किसी कंसर्ट-नाटक  आदि में जाते हैं प्रवेश द्वार पर आपसे आपका मोबाइल लेकर इस पाउच में रख दिया जाता है और पाउच को सील करके आपको सौंप दिया जाता है. पाउच इस तरह से बनाया गया है कि अगर आपका कोई कॉल आता है तो अपको पता चल जाता है और अगर आप चाहें तो सभा कक्षा से बाहर जाकर, पाउच खुलवा कर उसे सुन सकते हैं. जब सभा  समाप्त होती है तो दरवाज़े पर उपस्थित कर्मचारी पाउच में से आपका फोन निकाल कर आपको सौंप देते हैं. इस सुविधा का नाम है यॉण्डर. और यह तेज़ी से लोकप्रिय होती जा रही है. डुगोनी इस सेवा के लिए प्रति व्यक्ति प्रतिदिन दो डॉलर शुल्क लेते हैं. अभी उन्होंने  इस तरह के पाउच बेचना शुरु नहीं किया है, लेकिन निकट भविष्य में वे ऐसा भी कर सकते हैं.

डुगोनी की इस सेवा का उपयोग करने वाले जाने-माने कॉमेडियन डेव चैपल का कहना है कि इस सुविधा के आ जाने के बाद से उन्हें अपनी प्रस्तुतियों में नया ही आनंद मिलने लगा है. लेकिन जहां कलाकार इस सुविधा से प्रसन्न हैं वहीं दर्शक इससे नाखुश भी हैं. उनमें से अनेक का कहना है कि अगर आप अपने प्रोग्राम  को रिकॉर्ड  नहीं करने देते हैं तो फिर मज़ा ही क्या है! इस तरह की प्रतिक्रिया देने वाले दर्शकों में ऐसे भी अनेक उत्साही दर्शक हैं जिनका दावा है कि पिछले बीस बरसों में वे  जितने भी कंसर्ट्स  में गए हैं, उन सबको उन्होंने रिकॉर्ड भी किया है. ज़ाहिर है कि लोग कंसर्ट्स को रिकॉर्ड कर अपने सोशल मीडिया के पन्नों पर पोस्ट भी करते हैं. इतना ही नहीं, कम प्रसिद्ध बैण्ड्स तो इस बात से  खुश भी होते हैं कि उनके उत्साही दर्शकों की वजह से उन्हें मुफ्त में प्रचार भी मिल रहा है. 

लेकिन इस सुविधा का निर्माण करने के पीछे डुगोनी का सोच यह भी रहा है कि लोगों का इस तरह से अपने मोबाइल फोनों में डूबे रहना उनके सामाजिक सम्बन्धों पर प्रतिकूल असर डाल रहा है. इसके अलावा उन्हें यह  भी लगा कि बहुत सारे लोग अपने मोबाइल फोनों के कैमरों  का इस्तेमाल दूसरों की निजता में अवांछित घुसपैठ करने के लिए भी करते हैं. इए प्रसंग साझा करते हुए वे बताते हैं कि किसी पार्टी में एक युवक धुत्त हो गया, और दो अन्य युवकों ने बिना उसकी जानकारी और अनुमति के उसकी हरकतों को न केवल कैमरे में कैद कर लिया, उस रिकॉर्डिंग को यू ट्यूब पर पोस्ट भी कर दिया. 

लेकिन जहां डुगोनी का यह सोच सकारात्मक है और कलाकार उसकी इस पहल का खुले मन से स्वागत कर रहे हैं, बहुत सारे दर्शक हैं जो इसके खिलाफ़ है. कुछ्के दर्शकों ने तो गेट पर अपना मोबाइल सौंपने की बजाय टिकिट के पैसे तक वापस  लौटाने की मांग कर डाली, और एक महाशय तो इतने क्रुद्ध हुए कि उन्होंने पाउच को ही चबा डाला. लेकिन डुगोनी अभी भी आश्वस्त और आशान्वित हैं. वे अपने इस काम को एक सामाजिक आन्दोलन की तरह देखते हैं और कहते हैं कि इससे लोग डिजिटल युग में कुछ इस तरह जी सकेंगे कि उनकी ज़िन्दगी बेमक़सद न हो जाए! 
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 18 अक्टोबर, 2016 को प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, October 11, 2016

किस्सा पेरिस के एक अनूठे बुक स्टोर का

हाल ही में पेरिस के बांये किनारे पर स्थित किताबों की एक अनूठी दुकान की रोचक दास्तान चार सौ पृष्ठों की एक किताब का विषय बनी है. शेक्सपियर एण्ड कम्पनी नामक यह दुकान छोटी-सी और जीर्ण-शीर्ण है लेकिन इसकी अहमियत इस बात से समझी जा सकती है कि इसी दुकान ने उस समय जब उसे कोई छापने को तैयार नहीं था,  जेम्स जॉयस की अब अमर हो चुकी कृति यूलिसिस को प्रकाशित करने का जोखिम उठाया था. कहा जाता है कि यह दुकान आधुनिक साहित्य के कुछ सबसे प्रखर लेखकों जैसे अर्नेस्ट हेमिंग्वे, एफ स्कॉट फिट्ज़ेरल्ड, जैक कैरुआक और एलेन गिंसबर्ग का अनौपचारिक बैठक कक्ष, और कभी-कभार तो  उनका शयन कक्ष भी रही है.
इस दुकान का अतीत बड़ा दिलचस्प है. इसके मालिक थे अमरीका में जन्मे जॉर्ज  व्हिटमैन जो सन 2011 में 98 साल की उम्र में दिवंगत होने तक इसी दुकान के ऊपर एक छोटे-से कमरे में रहते थे. उनके लिए यह दुकान महज़ एक व्यापारिक स्थल न होकर और भी बहुत कुछ थी. असल में वे इसे बुकस्टोर के आवरण में एक समाजवादी सपना मानते थे जिसके दरवाज़े हरेक के लिए खुले थे. वे इसे एक सजीव कलाकृति मानते थे. उन्होंने कहा था, “मैंने इस बुकस्टोर को ठीक वैसे ही सिरजा है जैसे कोई लेखक उपन्यास लिखता है. मैंने इसके हर कक्ष को उपन्यास के एक अध्याय की तरह रचा है. मैं चाहता हूं कि लोग इसके दरवाज़ों को वैसे ही खोलें जैसे वे वे किसी किताब को खोलते हैं,  उस किताब को जो उन्हें उनकी कल्पनाओं के जादुई लोक में ले जाती है.” 
वैसे व्हिटमैन इस दुकान के मूल संस्थापक नहीं थे. इस दुकान को इसके वर्तमान ठिकाने के नज़दीक ही सिल्विया बीच नामक एक युवती ने शुरु किया था. उसने 1941 तक इसका संचालन किया. इस साल पेरिस पर नाज़ी कब्ज़े के दौरान अन्य हज़ारों लोगों के साथ सिल्विया को भी नज़रबन्द कर दिया गया. पचास के दशक के उत्तरार्ध  में सिल्विया ने अपनी इस दुकान का मालिकाना हक़  जॉर्ज व्हिटमैन को दे दिया. जॉर्ज सिल्विया से इतने अधिक प्रभावित थे कि उन्होंने अपनी इकलौती संतान के नामकरण में भी उन्हें याद रखा. वही सिल्विया बीच व्हिटमैन अब 35 बरस की हैं और अपने साथी डेविड डिलानेट के साथ मिलकर इस दुकान को चलाती हैं. डेविड से उनकी पहली मुलाकात इसी दुकान में हुई थीं. सिल्विया का कहना है, मेरा खयाल है कि डेविड जल्दी ही इस बात को समझ गया कि अगर हमें साथ रहना है तो उसे इस दुकान को भी अपनी ज़िन्दगी में शामिल करना होगा. सिल्विया के पिता जॉर्ज द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पेरिस आए थे और यहीं के होकर रह गए. उनके पास खुद की किताबों का इतना बड़ा संग्रह था कि अंतत: उन्होंने किताबों की एक दुकान ही खोल डाली. अपनी डायरी में पचास के दशक में उन्होंने लिखा है, “मेरी तमन्ना है कि मैं कोई ऐसा ठिकाना बना सकूं जहां  से मैं दुनिया के त्रास और सौन्दर्य को एक साथ निहार सकूं.”  और यही कल्पना  उन्होंने शेक्सपियर एण्ड कम्पनी के रूप में साकार की. यहां लेखक अपनी रचनाओं का पाठ करते, डिनर पार्टियां होती और बाद के बरसों में ये जॉर्ज महाशय आगंतुक विशिष्ट जन के साथ अपने पाजामे में या कि उस बेल बूटेदार ब्लेज़र में, जो शायद ही कभी  ड्राइक्लीन हुआ हो, तस्वीरें भी खिंचवाते.
और आहिस्ता-आहिस्ता जॉर्ज का यह ठिकाना दुनिया भर के घुमंतू लेखकों की शरणगाह बन गया. जॉर्ज ऐसे लेखकों को टम्बलवीड्स कहते थे. यानि वे पौधे जो पतझड़ में हवाओं के साथ इधर-उधर भटकते रहते हैं. जॉर्ज कुछ शर्तों पर इन लेखकों को यहां टिकने की इजाज़त देते थे. मसलन, हर लेखक को हर रोज़ दो घण्टे काम करना होगा, साथ ही उसे हर रोज़ कम से कम एक किताब पढ़नी होगी. इन शर्तों को पूरा करने के वादे पर कोई भी लेखक यहां मुफ्त में ठहर  सकता था, किताबों की अलमारियों के बीच फंसाई  गई खाटों में से किसी  पर सो सकता था और पास के सार्वजनिक नल पर जाकर नहा सकता था. दुकान में एक बोर्ड लगा हुआ है जिस पर अंकित है: “अजनबियों के प्रति असत्कारशील न हों, क्या पता कोई देवदूत ही उनका छद्म वेश धर कर चला आया हो.” . और हां, यह बुक स्टोर अपने यहां ठहरने  वाले लेखकों  पर एक और शर्त लागू करता है.  शर्त यह है कि यहां ठहरने के बदले में उन्हें एक पृष्ठ की आत्मकथा लिख कर देनी  होगी, जिसे वे वहां रखे हुए हल्के नीले रंग के कागज़ पर दुकान के टाइपराइटर पर टाइप करके  दे सकते हैं. कहना अनावश्यक है कि शेक्सपियर एण्ड कम्पनी के पास ऐसे हज़ारों पन्नों का विशाल संग्रह है. वस्तुत: इस संग्रह की बहुत सारी रोचक सामग्री ‘द रैग एण्ड बोन शॉप ऑफ द हार्ट’  शीर्षक वाली इस किताब में शामिल की गई है. 
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 11 अक्टोबर, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, October 4, 2016

जापानी पुरुष भी अनुभव करने लगे हैं स्त्रियों की व्यथा!

कुछ समय पहले बॉलीवुड के स्टार सलमान खान के एक कथित बयान को लेकर काफी विवाद हुआ था. खबरें आई थीं कि उस समय कुश्ती पर आधारित उनकी तब एक आने वाली फिल्म के सन्दर्भ में उन्होंने कहा था कि जब वे रिंग से बाहर निकलते थे तो उन्हें रेप की शिकार हुई महिला जैसा महसूस होता था क्योंकि वे सीधे  नहीं चल पाते थे. सलमान खान के इस बयान को कुरुचिपूर्ण, असंवेदनशील और स्त्री विरोधी माना गया था. लेकिन अगर इस बयान से हटकर देखें और सोचें तो पाएंगे कि दूसरों की जगह खुद को रखकर देखने की प्रवृत्ति सामान्य तथा स्वाभाविक है.   हम प्राय: लोगों से यह उम्मीद करते हैं कि वे खुद को उन स्थितियों में रखकर देखें जिनमें औरों को रहना  पड़ता है. ऐसा असुविधाजनक स्थितियों के सन्दर्भ में आम तौर पर होता है. यह सारी बात मुझे याद आई है जापान से आई एक खबर के सन्दर्भ में.
एक प्रतिष्ठित संगठन इण्टरनेशनल सोशल सर्वे प्रोग्राम ने अपनी एक रिपोर्ट में जब यह बात बताई कि जापानी पति घर का कोई काम न करने और बच्चों की देखभाल के दायित्व से दूरी बरतने के मामले में दुनिया भर के पतियों की बिरादरी में अग्रणी हैं, तो खुद जापान के ही कुछ पतियों को अपनी यह ‘ख्याति’ नागवार गुज़री और उन्हें लगा कि इस छवि को  बदलने के लिए कुछ किया जाना चाहिए. इसी रिपोर्ट में यह भी बताया गया था कि जापान के क्युशु और यामागुची क्षेत्र इस लिहाज़ से और भी अधिक गए गुज़रे हैं क्योंकि वहां के पतिगण तो शेष जापानी पतियों से भी गये बीते हैं. आंकड़ों की मदद से यह भी बताया गया कि वहां की बीबीयों को अपने पति देवों की तुलना में सात गुना काम करना पड़ता है. इस रिपोर्ट से लज्जित पतियों ने अब वहां एक अभियान शुरु किया है जिसका नाम है ‘क्युशु/यामागुची जीवन-कार्य संतुलन अभियान’. इस अभियान के माध्यम से इन क्षेत्रों के नागरिकगण को इस बात के लिए प्रोत्साहित और प्रेरित किया जाता है कि वे अपने कामकाजी जीवन और घरेलू जीवन को एक दूसरे के  ज़्यादा नज़दीक लाएं और अपनी कामकाजी दुनिया को इस लिहाज़ से अधिक लचीली बनाएं कि वह कामगारों के लिए उनके बच्चों के पालन-पोषण के लिए अधिक अनुकूल बन  सके.
इसी अभियान के एक और कदम के रूप में यह प्रयास भी किया जा रहा है कि पुरुष स्वयं यह अनुभव करें कि गर्भवती महिलाओं को किन असुविधाओं से दो-चार होना पड़ता है. और  इस अनुभव-अभियान में आगे आए हैं उस इलाके के तीन वर्तमान गवर्नर्स. सागा, मियाज़ाकी और यामागुची के इन गवर्नर्स ने खुद पहल करके सात दशलव तीन किलो वज़न वाले ऐसे जाकेट पहन लिये हैं जिनसे वे सात माह की गर्भवती स्त्री जैसे दिखने और अनुभव करने लगे हैं. इन जाकेटों को पहन कर वे खुद यह महसूस कर रहे हैं उतने भारी  बोझ और उभार के साथ नौकरी करना, बाज़ार में जाकर खरीददारी करना, कपड़े धोना, बर्तन माँजना वगैरह  सारे काम करना कितना असुविधाजनक और कष्ट साध्य होता है. कहना अनावश्यक है कि अब खुद उन्हें यह महसूस हुआ है कि गर्भावस्था में स्त्रियों को किन दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. साहित्य में जिसे परकाया प्रवेश कहते हैं, यह वैसा ही कुछ है.
ये गवर्नर्स जाकेट पहन कर अपने रोज़मर्रा के काम निबटा रहे हैं, उनकी एक वीडियो भी बना ली गई और उसके माध्यम से वहां के पुरुषों को यह दिखाया और समझाया जा रहा है कि गर्भावस्था में सीढियां  चढ़ने-उतरने या सिंक में बर्तन रखने-निकालने या किसी सुपरमार्केट की नीचे वाली शेल्फ से कोई चीज़ निकालने जैसे सामान्य काम भी कितने मुश्क़िल  हो जाते हैं.  पूरी देह असह्य पीड़ा से भर उठती है. मोजे पहनने उतारने, या कार में घुसने-निकलने जैसे बेहद ज़रूरी रोज़मर्रा के कामों में जो असुविधा होती है उसे इस वीडियो में बखूबी प्रदर्शित किया गया है. यामागुची के गवर्नर योशिनोरी ने ठीक ही अनुभव किया है कि हालांकि गवर्नर बनने के बाद उन्हें बहुत सारे नए अनुभव प्राप्त  हुए हैं, एक गर्भवती स्त्री के ये अनुभव उनसे बहुत अलहदा हैं और इन अनुभवों का उन पर बहुत गहरा असर पड़ा है.
बहुत सुखद बात यह है कि इस ‘क्युशु/यामागुची जीवन-कार्य संतुलन अभियान’ को वहां के लोगों ने खुले मन से अपनाया है और जिन पुरुषों ने इस अभियान से जुड़कर गर्भवती स्त्रियों की अनुभूति को जिया उनमें से 96.7 प्रतिशत ने यह स्वीकार किया है कि पुरुषों को भी घर के काम-काज और बच्चों की परवरिश में भागीदारी निबाहनी चाहिए. बेशक, सिर्फ भारी जाकेट पहन लेना वो सारे अनुभव प्रदान नहीं कर सकता जो एक गर्भवती स्त्री को वास्तविक जीवन में होते हैं, लेकिन इससे एक शुरुआत तो हुई ही है. स्त्री-पुरुष में एक दूसरे की सुविधाओं-असुविधाओं को लेकर समझ का विस्तार हो, इससे बेहतर और क्या बात हो सकती है!       

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर  कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 04 अक्टोबर, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, September 27, 2016

बहुत नाज़ुक होती है रिश्तों की डोर

विवाह को पवित्र और जन्म जन्मांतर का सम्बन्ध मानने वाले हम भारतीयों के लिए यह वृत्तांत कुछ चौंकाने और कुछ आहत करने वाला हो सकता है. हममें से कुछ को इस बात का संतोष भी हो सकता है कि उन्हें तो पहले से यह बात मालूम थी कि भौतिकवादी पश्चिम में रिश्ते क्षणभंगुर और स्वार्थ आधारित होते हैं. लेकिन इन बातों के बावज़ूद मैं यह वृत्तांत आपके सामने रख रहा हूं. क्यों? आप खुद समझ जाएंगे.

यह वृत्तांत मेक्सिको के एक युगल का है. लम्बी दोस्ती और अनगिनत मेल मुलाकातों के बाद उन्होंने शादी की और वे सुख पूर्वक अपना जीवन बिता रहे थे. इन्हीं मेल मुलाकातों के बीच लड़के ने मोनिका को यह भी बता दिया था कि उसकी देह में कुछ विकार है जिसकी वजह से भविष्य में कभी गम्भीर उपचार की भी ज़रूरत पड़ सकती है. खैर. उन्होंने शादी कर ली और सब कुछ ठीक चल रहा था. प्राय: वे बातें करते कि उनकी मुहब्बत औरों की मुहब्बत की तरह  कमज़ोर नींव पर नहीं टिकी थी. न उनमें कभी कोई गलतफहमी हुई और न कभी वे किसी बात को लेकर झगड़े. ज़रूरत पड़ने पर पति उपचार भी कराता रहा.  और तभी हुआ एक वज्रपात. डॉक्टरों ने बताया कि पति का रोग अब उस मुकाम तक पहुंच चुका है जहां डबल लंग ट्रांसप्लाण्ट ही एकमात्र विकल्प है. और यह ट्रांसप्लाण्ट मेक्सिको में मुमकिन नहीं है इसलिए उन्हें अमरीका जाना और काफी समय वहीं रहना भी पड़ेगा.
 
डॉक्टरों ने उन्हें इस उपचार के दौरान होने वाली तमाम  परेशानियों और इसके सम्भावित खतरों के बारे में भी विस्तार से बता दिया. डॉक्टरों ने यह बात भी उनसे छिपाई नहीं कि उपचार के दौरान या उसके बाद रोगी की  जान को भी खतरा हो सकता है. लेकिन इलाज तो करवाना ही था. वे दोनों अमरीका के स्टैनफोर्ड  शहर चले गए, सात माह के इंतज़ार के बाद सूचित किया गया कि नज़दीक ही एक व्यक्ति की मौत हुई है जिसके फेफड़े प्रत्यारोपित कर दिए जाएंगे. और सात घण्टे चले ऑपरेशन के बाद सफलतापूर्वक उस मृतक के फेफड़े प्रत्यारोपित कर भी दिए गए. हमारा कथानायक काफी  तेज़ी से स्वास्थ्य लाभ करने लगा. 

इस पूरे घटनाक्रम के दौरान मोनिका ने पूरी निष्ठा से उसकी सेवा की. यह समझा जा सकता है कि बेचारी उस युवती को किन तनावों, उलझनों, समस्याओं और तक़लीफों से गुज़रना पड़ा होगा. डॉक्टर और अस्पताल समस्याओं की चाहे जितनी  विस्तृत जानकारी दे दें, असल समस्याएं उनसे बहुत ज़्यादा ही होती हैं. और फिर देह और जेब की समस्याएं ही तो सब कुछ नहीं होती हैं. मन की समस्याएं तो इन सबसे परे और अधिक होती हैं. रोगी जिन तक़लीफों से गुज़रता है उसकी देखभाल करने वाला उनसे कई गुना ज़्यादा तक़लीफें झेलता है. हरेक की सहन करनी एक सीमा होती है. शायद मोनिका उस सीमा तक पहुंच चुकी थी. फेफड़ा  प्रत्यारोपण को मात्र दो माह बीते थे कि एक दिन अपनी डबडबाई आंखों को अपने पति की आंखों से मिलने से बचाते हुए उसने कह ही दिया कि अब उसके लिए और अधिक सहना मुश्क़िल है, इसलिए वह उसे छोड़ कर जा रही है. उसने वापसी के लिए हवाई टिकिट भी खरीद लिया था.

आसानी  से सोचा जा सकता है कि इस बात की उस व्यक्ति पर क्या प्रतिक्रिया हुई होगी जो अभी-अभी मौत के मुंह से निकल कर आया था और सामान्य होने की कोशिश कर रहा था. उसे लगा जैसे सब कुछ ढह गया है. सारी दुनिया थम गई है. लेकिन दुनिया थमती कहां है? दुनिया अपनी गति से चलती रही. मोनिका गई तो उसे सम्हालने मां आ गई. अपने घावों को सहलाता हुआ वह ठीक होने की राह पर आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता रहा. अलबत्ता कभी-कभी यह खयाल ज़रूर उसके मन में आ जाता कि आखिर मोनिका उसे छोड़कर गई क्यों? क्या यही प्यार है? क्या रिश्ते  इतने नाज़ुक होते हैं?

और जैसे यकायक मोनिका उसे छोड़कर गई वैसे ही अचानक एक दिन उसने बताया कि वो वापस आ रही है. उसकी ज़िन्दगी में भी. और वो लौट आई. आहिस्ता-आहिस्ता बहुत सारी बातें  हुईं उन दोनों में. गिले-शिकवे और एक दूसरे को समझने की कोशिशें!

और तब हमारे नायक को समझ में आया कि मोनिका का उसकी ज़िन्दगी से चला जाना विश्वासघात नहीं था. यह उसकी हार थी. वह मुश्क़िलों, उलझनों और तनावों के आगे हथियार डालने को मज़बूर हो गई थी. लेकिन जाने के बाद उसे महसूस हुआ कि इस पराजय में तो वह और भी ज़्यादा टूट और बिखर रही है. और इसलिए उसने लौट आने का फैसला किया. उसे लगा कि टूटने से बेहतर है जूझना. अब सब कुछ ठीक है. बस, इतना फर्क़ पड़ा है कि अब ये दोनों अपनी मुहब्बत को लेकर पहले जैसा गुमान नहीं करते हैं. इन्हें समझ में आ गया है कि रिश्तों की  डोर बहुत नाज़ुक होती है.

(ऐरिक गुमेनी के प्रति आभार के साथ.)               

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय  अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 27 सितम्बर, 2016 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.