साहित्य को लेकर जो दो बातें सबसे ज्यादा
दुहराई जाती हैं वे हैं – 1. साहित्य समाज का दर्पण है, और 2. साहित्य समाज को राह
दिखाने वाली मशाल है. वैसे समझदार और
विद्वान लोग इन दोनों ही बातों से काफी असहमति भी रखते हैं. लेकिन इसके बावज़ूद हम
पाते हैं कि जब भी हमारे समाज में ऐसा कुछ घटित होता है, जिससे मिलता जुलता कुछ भी
अतीत में किसी ने लिख दिया था, तो हम मशाल वाली इस बात को ज़रूर याद कर लेते हैं.
अगर आज कोई हत्याकाण्ड हो जाए और हमें अनायास याद आ जाए कि ऐसी ही कहानी किसी
कहानीकार ने तीस-चालीस साल पहले लिखी थी तो बस! हमारे चेहरे चमक उठते हैं! यह सारी
बात करने की ज़रूरत मुझे भी ऐसे ही एक सन्दर्भ की वजह से पड़ी है.
कुछ बरस पहले हिन्दी में विमर्शों का दौर
चला था और जो विमर्श बेहद चर्चित हुए उनमें से एक था स्त्री विमर्श. हालांकि यह
खासा गम्भीर और सोद्देश्य मुद्दा था, कुछेक नासमझों ने इसे उच्छ्रंखलता की सीमा को
छूने वाले वाली स्त्री की यौनिक स्वतंत्रता तक भी सीमित करके देखा था. इधर हाल में
जब अमरीका में स्त्रियों की वियाग्रा कही जाने वाले फ्लिबरांसर नामक एक गोली को
एफडीए की अनुमति हासिल हो जाने की खबर को स्त्री मुक्ति का पर्याय बताने की बातें
पढ़ी तो मुझे अपने स्त्री विमर्श का वह दौर भी बेसाख़्ता याद आ गया और सच कहूं तो इस
बात की किंचित खुशी भी हुई एक बार फिर साहित्य समय से आगे साबित हो गया.
हम चाहे इस बात को स्वीकार करें या न
करें, यह एक तल्ख सच्चाई है कि मानव जाति के यौनिक व्यवहार पर पुरुष वर्चस्व हावी
है. सब कुछ पुरुष के कोण से ही देखा, जाना और किया जाता है. स्त्री की भूमिका तो
बस चीज़ों को जस का तस स्वीकार कर लेने भर की है. न उसकी हां की कोई अहमियत होती है
और न उसे ना कहने का कोई हक होता है. उसे तो बस प्रजनन का एक उपकरण या पुरुष के
आनंद का एक साधन भर होना है. पश्चिम के नारी मुक्ति आन्दोलन को इस बात का श्रेय तो
दिया ही जाना चाहिए कि उसने इस असमानतापूर्ण और अन्याय भरे व्यवहार की तरफ ध्यान
खींचा और कदाचित उस आन्दोलन के बाद से ही स्त्रियां इस मामले पर अपनी आवाज़ बुलन्द करने लगी. सिमोन द बुवा ने बहुत सही कहा
कि मानवीय दैहिक संसर्ग के मामले में पुरुष स्वामी की भूमिका में होता है और उसे
अपने दास की अनुमति की कोई ज़रूरत महसूस नहीं
होती है.
लेकिन यह स्थिति धीरे-धीरे बदल रही है.
स्त्रियां अपनी ज़रूरत और अपनी महत्ता को समझने और उसके लिए आग्रह करने लगी हैं और
पुरुष भी इस बात को स्वीकार करने लगे हैं. इसी सोच के आगे बढ़ने की परिणति यह भी हो
रही है कि जिस बात की तरफ अब तक किसी का
ध्यान नहीं गया, अब उसे भी सोचा और समझा जाने लगा है. अब दुनिया भर में यह बात समझी जाने लगी है कि
जिस तरह यौनिक संसर्ग के मामले में यदा-कदा
पुरुष अक्षम होता है उसी तरह स्त्रियां भी होती या हो सकती हैं. और दोनों ही के
मामले में उपचार के बारे में सोचा जाना चाहिए. पुरुषों के मामले में वियाग्रा इसी
उपचार की एक कड़ी है. और अब स्त्रियों के लिए भी इसी तरह के उपचार के बारे में सोचा
जाने लगा है.
और यहीं से बात कई इतर मोड़ भी लेने लगती
है. एक तो यह कि अकूत मुनाफे की सम्भावनाओं को देख बाज़ार इसमें कूद पड़ा है. नई नई
शोध हो रही हैं और चीज़ों को नित नए तरीकों
से विज्ञापित किया जा रहा है. दूसरा यह कि इस मेडिकल फिनोमिना को स्त्री-पुरुष के
असमान वर्चस्व वाले कोण दे देखा परखा जा रहा है और यह सवाल भी उठाया जा रहा है कि
क्या वजह है कि पुरुष वियाग्रा के आविष्कारकों को तो नोबल पुरस्कार से नवाज़ा गया
था जबकि स्त्री वियाग्रा की चर्चा उपहास का विषय बनती है! इतना
ही नहीं इस बात की तरफ भी ध्यान दिलाया जाता है कि पुरुष यौनिकता पर शोध में जितनी
राशि खर्च की गई है उसका बहुत छोटा हिस्सा भी स्त्री यौनिकता पर शोध में खर्च नहीं
किया गया है.
शिकायतें अपनी जगह, हम तो इस बात से ही
प्रसन्न हो लेते हैं कि चलो देर से ही सही, एक सही और अब तक अलक्षित रहे मुद्दे की
तरफ दुनिया का ध्यान जा रहा है!
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 22 सितम्बर, 2015 को उनकी इच्छा की बात, साहित्य फिर दर्पण साबित शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.