इधर कुछ दिनों से मेरा ध्यान रह-रहकर श्रीलाल
शुक्ल के उपन्यास ‘राग दरबारी’ की तरफ जा रहा है. इस बेहद रोचक, बहु प्रशंसित और चर्चित उपन्यास को खोलते ही पहले पन्ने पर
आप पढ़ते हैं:
सड़क के एक ओर पेट्रोल-स्टेशन था; दूसरी ओर छप्परों,
लकड़ी और टीन के सड़े टुकड़ों और स्थानीय क्षमता के अनुसार निकलने वाले कबाड़ की मदद
से खड़ी की हुई दुकानें थीं. पहली निगाह में ही मालूम हो जाता था कि दुकानों की
गिनती नहीं हो सकती. प्राय: सभी में जनता का एक मनपसन्द पेय मिलता था जिसे वहां
गर्द, चीकट, चाय की कई बार इस्तेमाल की हुई पत्ती और खौलते पानी आदि के सहारे बनाया जाता था. उनमें मिठाइयां भी थीं जो दिन-रात आंधी-पानी और मक्खी
मच्छरों के हमलों का बहादुरी से मुकाबला करती थीं. वे हमारे देसी कारीगरों के हस्तकौशल
का और उनकी वैज्ञानिक दक्षता का सबूत देती थीं. वे बताती थीं कि हमें एक अच्छा
रेज़र-ब्लेड बनाने का नुस्खा भले ही मालूम न हो, हर कूड़े को स्वादिष्ट खाद्य
पदार्थों में बदल देने की तरक़ीब सारी दुनिया में अकेले हमीं को आती है.
लगता है लेखक
स्वर्गीय श्रीलाल शुक्ल जी को मिठाइयों से कुछ ज़्यादा ही मोह था. हो सकता है इसकी एक वजह उनका पण्डित होना
भी हो. अब देखिये ना, आगे भी एक जगह वे लिखते हैं:
मिठाई और चाट की दुकानों के आगे काफ़ी भीड़
थी. भारतीय मिठाइयों की सौन्दर्य-साम्राज्ञी बर्फ़ी ढेर-की-ढेर लगी थी और हर लड़का जानता था कि मारपीट में इसका
इस्तेमाल पत्थर के टुकड़े-जैसा किया जा सकता है. इन मिठाइयों के बनाने में हलवाइयों
और फूड इंस्पेक्टरों को बड़े-बड़े वैज्ञानिक अनुसंधान करने पड़े थे, उन्होंने बड़े परिश्रम
से मालूम किया था कि खोये की जगह घुइयां, आलू-चावल का आटा, मिट्टी
या गोबर तक का प्रयोग किया जा सकता है. वे सब समन्वयवाद के अनुयायी थे और उन्होंने
क़सम खा ली थी कि वे बिना मिलावट के न तो कोई चीज़ बनायेंगे और न बेचेंगे.
आप समझ ही गये होंगे कि मुझे इस महान उपन्यास
की याद इन दिनों क्यों आ रही है! वैसे, इस उपन्यास पर बहुत सारे आलोचकों ने भारतीय
जीवन के यथार्थ के प्रति असंवेदनशील होने के आरोप भी लगाए हैं, लेकिन कम से कम इन
पंक्तियों को पढ़ते हुए तो लगता है कि वे
यथार्थ को जस-का तस रख रहे हैं. कभी-कभी मुझे लगता है कि जैसे सफाई हमारे जीवन का
मूल्य है ही नहीं. सफाई भी और शुद्धता भी. सफाई अगर मूल्य होता और हमारे जीवन में
शामिल होता तो देश के नए बने प्रधानमंत्री को भी उसके लिए अलग से एक अभियान चलाने
की ज़रूरत नहीं पड़ती. सफाई और शुद्धता जैसे एक सिक्के के ही दो पहलू हैं. पेयजल
जैसी आधारभूत वस्तु जहां शुद्ध रूप में सुलभ न हो, और आम जन की तो छोड़िये, जहां सितारे वाले होटल भी आपको खाना परोसने
से पहले यह पूछते हों कि आप पानी सादा लेंगे या बॉटल्ड, तो यह केवल व्यावसायिक
तकाज़ा कहकर टाल देने वाली बात नहीं रह जाती है, इसका एक अर्थ यह भी निकलता है कि
खुद उन्हें अपने यहां सुलभ पेय जल की गुणवत्ता पर संदेह है. स्ट्रीट फूड के
निर्माण और जिस स्थितियों में उसे बेचा और
खाया जाता है, उसकी बात न भी करें, तो विवाह जैसे सार्वजनिक और बड़े आयोजनों में
अगर आप खाना बनते हुए देख लें तो शायद उसे खाने की हिम्मत न कर पायें, और यह जानते
हुए भी आप उसे बिना किसी झिझक के खाते हैं. होली दिवाली जैसे बड़े त्योहारों पर
मावे और मिठाई में मिलावट की खबरों ने अब हमें चौंकाना भी बन्द कर दिया है. नाले के पानी में उगी और ज़रूरत से ज़्यादा
रसायनों वाली सब्ज़ियां, हानिकारक रसायनों द्वारा पकाये गये फल, मिलावटी और अवधिपर
की दवाइयां - क्या है हमारे आस-पास जो शुद्ध और विश्वसनीय है?
ऐसे में कल रात व्हाट्सएप पर जब यह संदेश
मिला तो लगा कि दास कबीर बहुत पहले सही ही कह गए थे. क्या कह गए थे, यह जानने से
पहले कल रात मिला संदेश पढ़ लीजिए:
सड़े तेल में डूबे भटूरे और समोसे, सल्फर
के तेज़ाब वाले पानी के गोलगप्पे, बर्ड फ्लू वाले जख्मी मुर्गे की चांप, एक ही
पत्ती से कई बार बनी चाय, डिटर्जेण्ट पाउडर वाला दूध, धूल वाली सड़क पे खुले कटे फलों
की चाट, नाली किनारे बिकती सब्ज़ियां, कभी ना साफ हुई टंकी की प्याऊ
का पानी, खुजलाते हाथों की ढाबे की रोटियां, मरे मच्छरों की चाशनी में डूबी जलेबियां, और सूखे दूध के
नकली मेवे की मिठाई जिसका बाल भी बांका नहीं कर सके, उसका मैगी की लीड क्या बिगाड़ लेगी?
कबीर बहुत पहले कह
गए थे: हम न मरैं मरिहैं संसारा.
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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत इसी शीर्षक से आज मंगलवार, 09 जून, 2015 को प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.