कॉमेडी के भी अनेक रूप हैं और उन
रूपों में से एक है रोस्टिंग. बताया जाता
है कि इसकी शुरुआत 1949 में न्यूयॉर्क में हुई और फिर यह कॉमेडी रूप पूरी दुनिया
में प्रचलन में आ गया. रोस्टिंग का अर्थ है भूनना, और इस कॉमेडी रूप में किसी
जाने-माने व्यक्ति के साथ बतौर कॉमेडी यही सुलूक किया जाता है. मैं यहां रोस्टिंग
का ज़िक्र वर्ली, मुम्बई में हाल ही में हुए एक बहुचर्चित कार्यक्रम के सम्बन्ध में
कर रहा हूं. देश के एक जाने-माने स्टैण्डअप कॉमेडियन समूह जिसका पूरा नाम लिखने
में मुझे संकोच हो रहा है, ने ए आई बी रोस्ट नाम से एक चैरिटी कार्यक्रम का आयोजन
किया जिसमें दो फिल्म स्टारों अर्जुन कपूर और रणवीर सिंह को रोस्ट किया गया. मास्टर
शेफ की भूमिका निबाही करण जोहर ने और उनका
साथ दिया इस समूह ए आई बी की पूरी टीम ने, जिसमें एक महिला कॉमेडियन भी थीं. पता
चला कि इस शो का टिकिट चार हज़ार रुपये का था और करीब चार हज़ार दर्शकों ने इस शो को
लाइव देखा.
जैसा कि यह समूह हमेशा करता है, शो के बाद
इसने शो की रिकॉर्डिंग यू ट्यूब पर अपने चैनल पर पोस्ट कर दी. और बस वहीं से
हंगामे की शुरुआत हो गई. सोशल मीडिया पर तो इस कार्यक्रम को लेकर गरमा गरम बहसें
हुई ही, कुछ लोग अदालत तक भी जा पहुंचे. कुछ की धार्मिक भावनाएं आहत हुईं तो कुछ
को इस कार्यक्रम की विषय वस्तु और भाषा शैली पर गम्भीर आपत्तियां थीं. जब बात
निकली तो उसे दूर तक जाना ही था. वह अभिव्यक्ति की आज़ादी के जाने-पहचाने मुकाम तक
भी जा पहुंची.
इस कार्यक्रम में ऊपर उल्लिखित दो
कलाकारों का जी भर कर मखौल उड़ाया गया, बल्कि कहें उनकी ऐसी-तैसी की गई. न केवल
उनके साथ ऐसा किया गया, वहां उपस्थित अनेक फिल्मी सितारों के साथ भी यही सुलूक
किया गया. मंच पर मौज़ूद इस कॉमेडी ग्रुप के सदस्यों ने जहां औरों के साथ भरपूर
बदतमीज़ी की, उन्होंने खुद पर भी कोई रहम नहीं किया. यानि कुछ-कुछ होली का-सा माहौल
रहा वहां कि जो भी सामने आए उसे रंग दो. रंग नहीं तो कीचड़ ही सही. वहां न
स्त्री-पुरुष का कोई लिहाज़ था, न भाषा का कोई संयम. आप जितनी खुली, नंगी और अशालीन
भाषा की कल्पना कर सकते हैं उससे भी ज़्यादा निर्वसन और आहत करने वाली भाषा वहां
थी.
लेकिन इसके बावज़ूद, अगर यू ट्यूब वाले उस
वीडियो को, जिसे आपत्तियों के बाद अब हटा लिया गया है, प्रमाण मानें, तो वहां
उपस्थित सभी लोगों ने इसका भरपूर मज़ा
लिया. जिन्हें रोस्ट किया गया वे तो इतना ज़्यादा उछल रहे थे कि लग रहा था यह उनके
जीवन का सर्वश्रेष्ठ अवसर है. हो सकता है
उन्हें यही करने के लिए पैसे दिये गए हों! लेकिन वहां मौज़ूद दर्शक? वे भी तो भरपूर
लुत्फ ले रहे थे!
और यहीं से मैं भी उलझन में पड़ जाता हूं.
मैं बहुत दूर तक अभिव्यक्ति की आज़ादी का समर्थक हूं. वहां तक जहां कि वह किसी और की
आज़ादी का अतिक्रमण न करे. इन चार हज़ार लोगों को इस रोस्टिंग से कोई आपत्ति नहीं
थी. बल्कि उन्होंने इसका खूब आनंद लिया. और ये कोई मासूम बच्चे नहीं थे. कार्यक्रम
सार्वजनिक न होकर केवल उनके लिये था जो जानते हैं कि उसकी विषय वस्तु क्या है. यू
ट्यूब पर जो वीडियो पोस्ट किया गया उसके प्रारम्भ में ही बहुत स्पष्टता से बाद की
विषय वस्तु की सूचना देते हुए दर्शकों को सावचेत कर दिया गया था. ये ही बातें हैं
जो मुझे उलझन में डाल रही हैं.
बेशक, मुझे इस कार्यक्रम की विषय वस्तु और
भाषा आदि तनिक भी पसन्द नहीं आए. बल्कि मैंने आहत ही महसूस किया. लेकिन किसी ने
मुझे बाध्य तो नहीं किया कि मैं उसे देखूं. बल्कि किसी ने निमंत्रित भी नहीं किया.
मेरी मर्जी थी कि मैंने उसे देखा. जीवन में बहुत सारी चीज़ें होती हैं, मसलन कोई फिल्म, कोई किताब, कोई गाना, कोई
तस्वीर, कोई फल, कोई सब्ज़ी, कोई नेता, कोई अभिनेता - जिन्हें मैं देखता हूं और
पसन्द नहीं कर पाता हूं, लेकिन क्या मैं उन पर रोक लगाने की मांग करता हूं? बहुत
मुमकिन है कि जो मुझे पसन्द न आए उसे भी बहुत सारे लोग पसन्द करते हों!
हम यह देख रहे हैं कि असहिष्णुता तेज़ी से
पैर पसार रही है. जो बात हमें पसन्द नहीं उसे हम समूल नष्ट कर देना चाहते हैं – यह
भूलकर कि किसी को वो पसन्द भी हो सकती है. ऐसे में क्या एक बार फिर उस वाल्तेयर को
याद नहीं किया जाना चाहिए जिसने कहा था कि “हो सकता है मैं आपके विचारों से सहमत न
हो पाऊं फिर भी विचार प्रकट करने के आपके अधिकार की रक्षा करूंगा.”
आप क्या सोचते
हैं?
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार दिनांक 10 फरवरी 2015 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.