साल 2015 के जयपुर लिटरेचर
फेस्टिवल का भी समापन हो गया. यह आयोजन हमारे समय की सबसे बड़ी सफलताओं की गाथा है.
सन 2005 में मात्र चौदह अतिथियों की उपस्थिति में प्रारम्भ हुआ यह आयोजन इतने कम
समय में दुनिया का सबसे बड़ा निशुल्क साहित्यिक उत्सव बन जाएगा – यह कल्पना तो इसके आयोजकों ने भी
नहीं की होगी. एक मोटे अनुमान के अनुसार इस बरस भी इस उत्सव में कुल उपस्थिति ढाई लाख के
करीब रही. यह आयोजन एक तरफ जहां
जयपुर और भारत को विश्व के मानचित्र पर प्रभावशाली तरीके से रेखांकित करता है,
पर्यटन और अन्य सम्बद्ध व्यवसायों की
उन्नति में योगदान करता है वहीं साहित्य, कलाओं और विचारों पर मुक्त चिंतन का विरल
अवसर भी प्रदान करता है. इस आयोजन की
सराहना इस बात के लिए भी की जानी चाहिए कि इसकी सफलता से प्रेरित होकर पूरे देश
में साहित्य उत्सवों का सिलसिला चल निकला है. हमारे अपने प्रांत में भी अनेक नए साहित्य
और कला उत्सव होने लगे हैं.
लेकिन गम्भीर साहित्य के कद्रदां इस आयोजन से तनिक भी प्रभावित नहीं हैं. बल्कि वे तो
इससे बहुत नाराज़ हैं. उन्हें न तो साहित्य का उत्सवीकरण पसन्द आता है न साहित्य की
परिधि का इतना विस्तार कि उसमें सब कुछ समा जाए. उन्हें लगता है कि राजनीति, खेल,
फिल्म, फैशन, ग्लैमर आदि की चर्चाएं लोगों
को भ्रमित और साहित्य से विमुख करती हैं.
हमारे समय के बेस्ट सेलर लेखकों की उपस्थिति
भी उन्हें पसन्द नहीं आती है, क्योंकि वे तो उन्हें लेखक ही नहीं मानते
हैं. गम्भीर साहित्यिक बिरादरी को इस आयोजन से एक बड़ी शिकायत इसके अंग्रेज़ी और
अंग्रेज़ियत की तरफ झुकाव से भी है. वे इसे भारतीय भाषाओं के प्रति आक्रामक षड़यंत्र
के रूप में भी देखते हैं. शुरु-शुरु में राजस्थानी साहित्यकार भी अपनी अवहेलना से
नाराज़ थे लेकिन आयोजकों ने उनकी सहभागिता बढ़ाकर उन्हें तो एक सीमा तक संतुष्ट कर
दिया है.
इन सब बातों के बावज़ूद, दुनिया भर के लेखकों और साहित्य प्रेमियों का इतनी बड़ी तादाद में इस आयोजन में
शरीक होना एक ऐसी परिघटना है जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता. पूरे पांच दिन तक हर
रोज़ छह स्थानों पर छह सत्रों का एकदम समय की पाबन्दी के साथ होना और उनमें बहुत
बड़े जन समूह का शिरकत करना साधारण बात नहीं है. इस साल सारे ही सत्र हाउस फुल से
कम नहीं थे और चर्चा के विषय या चर्चा करने वालों के बारे में उपस्थित जन की
जानकारियां चकित कर डालने वाली थी. उन्हें तमाशबीन कहना उनके असम्मान से अधिक अपने
पूर्वाग्रह का प्रदर्शन होगा. हां, इतने
बड़े आयोजन में तमाशबीनों या मौज मज़े के लिए आने वालों की तादाद भी कम नहीं रही. और
इसे अस्वाभाविक भी नहीं माना जाना चाहिए और न इस बात को भूला जाना चाहिए कि यह है
तो उत्सव ही.
हममें से जितना ताल्लुक साहित्य से है वे प्राय: साहित्य में लोगों की
घटती रुचि की शिकायत करते पाए जाते हैं. हम हिन्दी भाषी लेखकों (और हिन्दी
शिक्षकों) की शिकायत समाज अंग्रेज़ी के
बढ़ते जा रहे प्रचलन और प्रभाव को लेकर भी होती है. किसी खासे बड़े शहर में भी आपको
किताब की दुकान ढूंढनी पड़ती है और अगर दुकान मिल जाए तो वहां जाकर हिन्दी की किताब
ढूंढनी पड़ती है. हिन्दी प्रकाशक की आम शिकायत यह होती है कि लोग हिन्दी की किताबें
खरीदते ही नहीं हैं. और इसी के समानांतर हमारे ही समय और समाज में अंग्रेज़ी की
किताबें धड़ल्ले से बिक रही हैं और उनके लेखक अमीर और स्टार बनते जा रहे हैं. यानि
लोग किताबें तो खरीदते हैं मगर हिन्दी की नहीं, अंग्रेज़ी की.
क्या इस बात पर कोई विचार सम्भव है कि क्यों हिन्दी की किताबें कम और
अंग्रेज़ी की किताबें अधिक बिकती हैं? और यह भी कि क्या वाकई हिन्दी की किताबें कम बिकती हैं? पुस्तक मेलों
और प्रकाशकों की हालत को देखकर तो यह भी नहीं लगता. तो क्या गम्भीर और साहित्यिक
पुस्तकें कम बिकती हैं, और इतर किस्म की किताबें धड़ाधड़ बिक जाती हैं? और क्या यह
बात भी है कि हिन्दी में लोकप्रिय लेखन का अभाव है? या इस बात के सूत्र प्रकाशकों
के अपने गणित से जुड़ते हैं?
मुझे लगता है कि जयपुर साहित्य उत्सव हमें बहुत सारी बातों पर गम्भीर
विमर्श के लिए भी प्रेरित करता है. इस
उत्सव की सार्थकता, प्रासंगिकता, इसकी उपलब्धियों, इसकी खामियों इन सब पर विचार
करते हुए क्या हर्ज़ है अगर हम इस बात पर
भी विचार करें कि कैसे लोगों को पुस्तकों की तरफ आकृष्ट किया जा सकता है और कैसे
लेखक-पाठक के बीच की खाई को छोटा किया जा सकता है? इधर साहित्य उत्सवों के कारण
पूरे देश में जो माहौल बना है उसका अपनी
भाषा के बेहतर और गम्भीर साहित्य के प्रचार-प्रसार के लिए भी किया जाना चाहिए.
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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगल्वार, 27 जनवरी, 2015 को जयपुर साहित्य उत्सव: बात निकली है तो दूर तक जाएगी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.