Tuesday, September 29, 2015

एक पंथ दो काज

कहा जाता है कि थोड़ा पैसा व्यापारी को खा जाता है. लेकिन इसे अर्ध सत्य माना जाना चाहिए. व्यापार सिर्फ पैसों का ही खेल नहीं है, इसमें दिमाग और अक्ल की भूमिका भी कम नहीं है. अगर आपके पास अक्ल है और आप उसका सही इस्तेमाल  कर पाते हैं तो कम पूंजी के बावज़ूद आप कामयाब हो सकते हैं. व्यापार की दुनिया से देश से और विदेशों की ऐसी अनेक सफलता गाथाएं याद की जा सकती हैं जहां किसी व्यापारी ने अपनी बुद्धि के बल पर बड़े-बड़े पूंजीपतियों को पीछे छोड़ दिया.

यह बात याद आई है मुझे हाल ही की एक ख़बर पढ़ते  हुए.  खबर सात समुद्र पार यानि लंदन की है. वहां के एक व्यापारी डेव ने एक नया धन्धा शुरु किया है जो खूब फल फूल रहा है. उसने एक कम्पनी शुरु की है, जिसका नाम ‘वी बाय एनी  पोर्न’  -हम हर तरह की अश्लील सामग्री खरीदते है– है! डेव की  यह कम्पनी  उन लोगों के लिए वरदान साबित हो रही है जिन्होंने हाल में अपने किसी बुज़ुर्ग परिजन को खोया है और उनका सामान खंगालते हुए पाया है कि उनके पास प्लेबॉय, पेण्टहाउस जैसी अश्लील पत्रिकाओं और इसी तरह की अन्य सामग्री का खज़ाना था. हमारे पाठकों को यह बात स्मरण ही होगी कि इण्टरनेट के आगमन से पहले, अस्सी और नब्बे के दशक में इस तरह की पत्रिकाओं और अन्य मुद्रित  सामग्री का काफी क्रेज़ था और लोग न केवल रुचि पूर्वक इनका पारायण करते थे, इन्हें (अलबत्ता छिपाकर) सहेजकर भी रखते थे. भारत जैसे परम्परावादी देश में तो इस तरह की सामग्री प्रतिबंधित थी लेकिन दुनिया के बहुत सारे देशों में यह आसानी से सुलभ थी. हमारे यहां प्रतिबंध के बावज़ूद लोग येन केन प्रकारेण अपनी तलब पूरी कर ही लेते थे. इस तरह की सामग्री के औचित्य अनौचित्य पर बहुत कुछ कहा जाता रहा है और कहा जा सकता है, लेकिन फिलहाल हम बात कर रहे हैं इनसे सम्बद्ध व्यवसाय की.

तो हुआ यह कि इन डेव महाशय को लगा कि अब वो समय आ गया है जब अस्सी-नब्बे के दशक में इस सामग्री में रुचि रखने और इसका संग्रहण करने वाली पीढ़ी भगवान के घर का रुख कर रही है, तो क्यों न वे तो इस पीढ़ी के बच्चों के लिए अपने बुज़ुर्गों की इस विरासत से निजात पाने में मददगार बन जाएं!  परोपकार का परोपकार और धन्धे का धन्धा! इसी को तो कहते हैं एक पन्थ दो काज! आप कहेंगे कि भाई, इसमें परोपकार कहां से आ गया? मैं बताता हूं. हुआ यह कि डेव महाशय को पता चला कि एक बुज़ुर्ग के देहांत के बाद जब उनकी बेटी ने घर की सफाई की तो उसे अपने पिता के संग्रह में ऐसी काफी सारी सामग्री मिली. सामग्री कोई बहुत बुरी नहीं थी, सामान्य लोकप्रिय  पत्रिकाओं के संग्रह थे, लेकिन बेचारी बिटिया को लगा कि अगर उसकी मां को अपने स्वर्गीय पतिदेव के इस संग्रह के बारे में पता चलेगा तो वे बहुत शर्मिन्दा होंगी. उस बिटिया का संकोच डेव महाशय तक पहुंचा और उनके मन में इस तरह के परोपकार  का भाव जागा. उनका यह भाव तब और प्रबल हुआ जब किसी गांव के धर्म स्थल के एक प्रबन्धक ने उन्हें फोन कर बताया कि बहुत सारे लोग अपनी भौतिक सम्पदा उस धर्म स्थल के नाम कर इस जहाने फानी से कूच करते हैं. जब उस धार्मिक संगठन के लोगों ने इस तरह छोड़ी सम्पदा का अवलोकन किया तो अनेक घरों में इस तरह की पत्रिकाओं का ज़खीरा  भी उन्हें मिला.

इसी तरह के कुछ अन्य प्रसंगों और अनुभवों  ने डेव महोदय को अपना यह व्यापार शुरु करने की प्रेरणा दी. ये महाशय लगभग गुमनाम रहकर अपना व्यापार करते हैं ताकि उनके सम्पर्क में आने वालों को लज्जित  न होना पड़े. तरीका यह है कि अगर किसी को अपने यहां पड़ी इस तरह की सामग्री से निजात पाना  है तो वह इन्हें फोन करता है, ये पहुंच कर उस सामग्री का अवलोकन कर उसका मोल आंकते हैं, और अगर बात बन जाती है तो मूल्य चुकाकर वो सामग्री ले आते हैं. लाते भी ऐसे ट्रक में भरकर हैं जिस पर कोई पहचान अंकित नहीं होती है. लाने के बाद जो सामग्री इन्हें अनुपयुक्त लगती है उसे तो वे नष्ट कर देते हैं, शेष सामग्री को उत्तरी लंदन स्थित अपनी एक अन्य दुकान के हवाले कर देते हैं जिसकी ख्याति विचित्र और कामोत्तेजक साहित्य के संग्राहक के रूप में  है.   

डेव महाशय के व्यवसाय को अभी मात्र एक बरस हुआ है लेकिन इसी अल्प अवधि में इन्होंने संतुष्ट और कृतज्ञ ग्राहकों की एक बड़ी जमात जुटा ली है. है न बिना हर्र फिटकरी के चोखा रंग ले आने वाला मामला!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अन्तर्गत मंगलवार, 29 सितम्बर, 2015 को  'परोपकार' का अजब-गज़ब व्यवसाय' शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.               

Tuesday, September 22, 2015

देर आयद दुरुस्त आयद

साहित्य को लेकर जो दो बातें सबसे ज्यादा दुहराई जाती हैं वे हैं – 1. साहित्य समाज का दर्पण है, और 2. साहित्य समाज को राह दिखाने वाली मशाल है.  वैसे समझदार और विद्वान लोग इन दोनों ही बातों से काफी असहमति भी रखते हैं. लेकिन इसके बावज़ूद हम पाते हैं कि जब भी हमारे समाज में ऐसा कुछ घटित होता है, जिससे मिलता जुलता कुछ भी अतीत में किसी ने लिख दिया था, तो हम मशाल वाली इस बात को ज़रूर याद कर लेते हैं. अगर आज कोई हत्याकाण्ड हो जाए और हमें अनायास याद आ जाए कि ऐसी ही कहानी किसी कहानीकार ने तीस-चालीस साल पहले लिखी थी तो बस! हमारे चेहरे चमक उठते हैं! यह सारी बात करने की ज़रूरत मुझे भी ऐसे ही एक सन्दर्भ की वजह से पड़ी है.

कुछ बरस पहले हिन्दी में विमर्शों का दौर चला था और जो विमर्श बेहद चर्चित हुए उनमें से एक था स्त्री विमर्श. हालांकि यह खासा गम्भीर और सोद्देश्य मुद्दा था, कुछेक नासमझों ने इसे उच्छ्रंखलता की सीमा को छूने वाले वाली स्त्री की यौनिक स्वतंत्रता तक भी सीमित करके देखा था. इधर हाल में जब अमरीका में स्त्रियों की वियाग्रा कही जाने वाले फ्लिबरांसर नामक एक गोली को एफडीए की अनुमति हासिल हो जाने की खबर को स्त्री मुक्ति का पर्याय बताने की बातें पढ़ी तो मुझे अपने स्त्री विमर्श का वह दौर भी बेसाख़्ता याद आ गया और सच कहूं तो इस बात की किंचित खुशी भी हुई एक बार फिर साहित्य समय से आगे साबित हो गया.

हम चाहे इस बात को स्वीकार करें या न करें, यह एक तल्ख सच्चाई है कि मानव जाति के यौनिक व्यवहार पर पुरुष वर्चस्व हावी है. सब कुछ पुरुष के कोण से ही देखा, जाना और किया जाता है. स्त्री की भूमिका तो बस चीज़ों को जस का तस स्वीकार कर लेने भर की है. न उसकी हां की कोई अहमियत होती है और न उसे ना कहने का कोई हक होता है. उसे तो बस प्रजनन का एक उपकरण या पुरुष के आनंद का एक साधन भर होना है. पश्चिम के नारी मुक्ति आन्दोलन को इस बात का श्रेय तो दिया ही जाना चाहिए कि उसने इस असमानतापूर्ण और अन्याय भरे व्यवहार की तरफ ध्यान खींचा और कदाचित उस आन्दोलन के बाद से ही स्त्रियां इस मामले पर अपनी आवाज़  बुलन्द करने लगी. सिमोन द बुवा ने बहुत सही कहा कि मानवीय दैहिक संसर्ग के मामले में पुरुष स्वामी की भूमिका में होता है और उसे अपने दास की अनुमति की कोई ज़रूरत महसूस नहीं  होती है.

लेकिन यह स्थिति धीरे-धीरे बदल रही है. स्त्रियां अपनी ज़रूरत और अपनी महत्ता को समझने और उसके लिए आग्रह करने लगी हैं और पुरुष भी इस बात को स्वीकार करने लगे हैं. इसी सोच के आगे बढ़ने की परिणति यह भी हो रही है कि जिस बात  की तरफ अब तक किसी का ध्यान नहीं गया, अब उसे भी सोचा और समझा जाने लगा है.  अब दुनिया भर में यह बात समझी जाने लगी है कि जिस तरह  यौनिक संसर्ग के मामले में यदा-कदा पुरुष अक्षम होता है उसी तरह स्त्रियां भी होती या हो सकती हैं. और दोनों  ही  के मामले में उपचार के बारे में सोचा जाना चाहिए. पुरुषों के मामले में वियाग्रा इसी उपचार की एक कड़ी है. और अब स्त्रियों के लिए भी इसी तरह के उपचार के बारे में सोचा जाने लगा है.

और यहीं से बात कई इतर मोड़ भी लेने लगती है. एक तो यह कि अकूत मुनाफे की सम्भावनाओं को देख बाज़ार इसमें कूद पड़ा है. नई नई शोध हो रही हैं और चीज़ों  को नित नए तरीकों से विज्ञापित किया जा रहा है. दूसरा यह कि इस मेडिकल फिनोमिना को स्त्री-पुरुष के असमान वर्चस्व वाले कोण दे देखा परखा जा रहा है और यह सवाल भी उठाया जा रहा है कि क्या वजह है कि पुरुष वियाग्रा के आविष्कारकों को तो नोबल पुरस्कार से नवाज़ा गया था जबकि स्त्री वियाग्रा की चर्चा उपहास का विषय बनती  है!  इतना ही नहीं इस बात की तरफ भी ध्यान दिलाया जाता है कि पुरुष यौनिकता पर शोध में जितनी राशि खर्च की गई है उसका बहुत छोटा हिस्सा भी स्त्री यौनिकता पर शोध में खर्च नहीं किया गया है.  

शिकायतें अपनी जगह, हम तो इस बात से ही प्रसन्न हो लेते हैं कि चलो देर से ही सही, एक सही और अब तक अलक्षित रहे मुद्दे की तरफ दुनिया का ध्यान जा रहा है!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में  मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 22 सितम्बर, 2015 को  उनकी इच्छा की बात, साहित्य फिर दर्पण साबित  शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.