Tuesday, June 30, 2015

नए व्यापारियों के तौर-तरीके

पिछले दिनों हमारे देश में व्यापार के नए तौर तरीकों को लेकर काफी चर्चाएं हुई हैं. जो लोग पारम्परिक तरीकों से व्यापार करते हैं, उनके हित इन नए खिलाड़ियों के आने से आहत हुए हैं, और इसलिए उनका इनके विरोध में आवाज़ उठाना समझ में आता है. इनसे कुछ शिकायतें सरकार की भी हैं. तौर-तरीके क्योंकि नए हैं इसलिए कुछ तो अस्पष्टताएं हैं और कुछ डण्डी मारने की प्रवृत्ति – जो हमारे स्वभाव का स्वाभाविक हिस्सा है. यह भी कि सरकार अपने नियंत्रक अधिकार और इंस्पेक्टर राज के वर्चस्व को भला क्यों छोड़ दे? कुछ और बातें भी इस बीच हुईं, मसलन एक नई कार टैक्सी सेवा में कुछ जगहों पर महिलाओं से बदसुलूकी हुई, तो इस तरह की सेवाओं के विरोध का माहौल बना.

लेकिन अपने हाल के कुछ अनुभव पहले आपसे साझा कर लूं, फिर इस बात को थोड़ा आगे बढ़ाना चाहूंगा. पिछले कई बरसों से मैं पास की एक दुकान से अण्डरवियर बनियान वगैरह  खरीदता हूं.  दुकानदार से जान-पहचान-सी हो गई है. खरीदरारी न करना हो तब भी उधर से गुज़रते हुए दुआ सलाम हो जाती है. अभी पिछले दिनों उसके पास अण्डरवियर खरीदने गया. साइज़ को लेकर कुछ अनिश्चितता लगी तो मैंने कहा कि मैं भुगतान करके ये चार अण्डरवियर ले जा रहा हूं,  अगर साइज़ को लेकर कोई दिक्कत हुई तो शाम तक लौटा दूंगा. बताता चलूं, उसके यहां ट्रायल रूम जैसी कोई सुविधा नहीं है. उसने कहा कि लौटा मैं भले ही दूं, वो नकद पैसे नहीं लौटायेगा, मुझे उतनी ही या उससे अधिक राशि की खरीदरारी ही करनी होगी. मुझे और कोई चीज़ खरीदनी नहीं थी. उसके अण्डरवियर लौटाए और अन्यत्र चला गया. ध्यान दें कि यहां उत्पाद को पहन कर देखने पर उसकी कोई आपत्ति नहीं थी. अगर होती तो वो कोई और चीज़ देने को क्यों तैयार होता. अब इसी के सामने रख कर देखें मेरा यह अनुभव. अपने वर्तमान ब्रॉडबैण्ड से असंतुष्ट हो मैंने दूसरे प्रदाता की सेवा लेने का फैसला किया. आवेदन की औपचारिकताएं पूरी कर लेने के बाद मुझे सलाह दी गई कि बेहतर हो वायरलेस मॉडेम सह राउटर मैं ही खरीद लूं. फिर वे आकर इंस्टॉलेशन कर देंगे. मैंने एक डॉट कॉम विक्रेता को एक राउटर का ऑर्डर भेज दिया, तीसरे दिन वो राउटर मुझे डिलीवर हो गया, और पांचवें दिन ब्रॉडबैण्ड कम्पनी का तकनीशियन इंस्टॉलेशन करने मेरे घर आ गया. उसने राउटर देखते ही कहा कि यह काम नहीं आएगा.  उससे बात करके मुझे समझ में आया कि मैंने ग़लत उत्पाद मंगवा लिया था. एक बार तो मन खराब हो गया कि ये पैसे बर्बाद हो गए! फिर उस विक्रेता  की साइट पर जाकर देखा तो पाया कि वहां खरीदे  हुए उत्पाद को लौटाने का भी प्रावधान है. बहुत सरल-सी प्रक्रिया पूरी की. ऑनलाइन प्रश्नावली में मुझसे यह तो पूछा गया कि मैं उनका उत्पाद क्यों लौटा रहा हूं लेकिन कोई ना-नुकर नहीं की गई. इतना ही नहीं, उनका आदमी आज सुबह मेरे घर आकर बाकायदा रसीद देकर वो उत्पाद मुझसे ले गया, यानि उसे लौटाने के लिए भी मुझे कोई कष्ट नहीं करना पड़ा. और बड़ा चमत्कार तो यह कि इस बात को बमुश्किल तीन घण्टे बीते हैं कि मेरे पास अपनी पूरी राशि के रिफण्ड होने की सूचना आ गई है.

अब एक अन्य प्रसंग. अभी तीन दिन पहले किसी पारिवारिक प्रसंग में रेल से कहीं जाना हुआ. जैसे ही रेल्वे स्टेशन से बाहर निकले हमेशा की तरह ऑटो  वालों ने घेर लिया. पूछने पर बताया कि मेरे घर तक पहुंचाने का वे एक सौ पचास रुपया लेंगे. जब मैंने कहा कि यह काफी ज़्यादा है तो वे लोग बोले कि हमने आपको सामान का पैसा तो बताया ही नहीं  है,  वो हम अलग चार्ज करते हैं. मुझे ऑटो में आना नहीं था. क्यों आता? विकल्प मुझे मालूम था. एक दिन पहले ही तो मैं घर से स्टेशन गया था. एकदम मुंह अन्धेरे मेरी ट्रेन थी. अपने स्मार्ट फोन पर एप के ज़रिये  टैक्सी कॉल की थी. ठीक साढ़े तीन मिनिट में टैक्सी आ गई थी (जबकि ऑटो बुलाने मुझे थोड़ी दूर जाना पड़ता) और घर से स्टेशन की अठारह मिनिट में पूरी हुई साढ़े आठ किलोमीटर की यात्रा का  बिल छियानवे रुपये का बना था.  कोई मुझे बताए कि एक वातानुकूलित टैक्सी कार आपको जो दूरी छियानवे रुपये में तै करवा रही हो उसी दूरी के लिए आप ऑटो को एक सौ पचास रुपये क्यों देना चाहेंगे?

मेरी सहानुभूति हमेशा बड़े खिलाड़ियों की तुलना में छोटे खिलाड़ियों के प्रति रहती है. बहुत बार यहां तक हुआ है कि ऑटो छोड़कर मैंने रिक्शा पकड़ा है. मॉल की बजाय नुक्कड़ का दुकानदार हमेशा मेरा प्रिय रहा है. लेकिन जब इस तरह के अनुभव होते हैं तो सोचना पड़ता है कि मेरी और मुझ जैसों की सहानुभूति के दम पर ये कब तक टिके रहेंगे?

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अन्तर्गत मंगलवार, 30 जून, 2015 को नए व्यापारियों के तौर-तरीके, अच्छी सेवा से ब्राण्ड बनाना शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, June 23, 2015

क्या ज़रूरी है हरेक के लिए शादी करना?

हाल में हैदराबाद के एक ऑनलाइन डेटिंग पोर्टल ‘क्वैक क्वैक’  ने ‘हैप्पीली सिंगल’ नाम से एक अभियान चलाया जो फेसबुक पर बहुत जल्दी वायरल हो कर लगभग  25 लाख लोगों तक पहुंच चुका है. इस अभियान में बैंगलूर के युवाओं से यह जानने की कोशिश की गई कि उनके मां-बाप क्या-क्या तर्क देकर उन पर शादी के बंधन में बंध जाने का दबाव बनाते हैं. इनमें से अधिकांश तर्क वे हैं जिन्हें  हम अपनी फिल्मों के चिर-परिचित संवादों के रूप में जानने के साथ-साथ अपने इर्द गिर्द भी कई दफा सुन चुके होंगे. ऐसे कुछ तर्कों का आनंद आप भी लीजिए:

अगर तुमने शादी नहीं की तो समाज में तुम्हारे पिता की प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल जाएगी./ तुम गैर ज़िम्मेदार और निकम्मे हो. शादी करने से ज़िम्मेदारी आ जाएगी./ जब तक तुम शादी नहीं कर लोगे तुम्हारी छोटी बहिन की भी शादी नहीं होगी./ लड़का अमीर खानदान का है. वो तुम्हें सुखी रखेगा./ मेरे दादाजी की अंतिम इच्छा  यही है कि न सही अपना पड़पोता, कम से कम वे पोते की शादी तो देख लें./ यह शिक्षा कैरियर, बिज़नेस सब बेकार है, अगर तुम्हारा अपना परिवार न हो./ तुम्हें शादी कर लेनी चाहिए क्योंकि हमारे पड़ोसी इस बात को लेकर बहुत बातें बनाने लगे  हैं./ तुम्हारे सारे दोस्तों की शादियां हो गई है, अब तो तुम भी कर  लो./ अपने कज़िन को ही देखो, उसकी शादी हो चुकी है और वो बहुत खुश है./ मेरे मां बाप बूढ़े हो रहे हैं इसलिए वे चाहते हैं कि अब तो मेरी देखभाल करने वाला कोई हो./ वो एक गोरी, खूबसूरत ब्राह्मण लड़की है. तुम्हें भला और क्या चाहिये?/ उम्र गुज़र जाने के बाद तुम्हें कोई लड़का नहीं मिलने वाला./ अगर तुमने देर से शादी की तो तुम्हारे बच्चे नहीं हो पाएंगे./ इससे पहले कि लड़की मुंह काला करवा दे, इसकी शादी कर डालो./ हमने तुम्हारे लिए इतना सब कुछ किया है और तुम हमारी यह एक छोटी-सी तमन्ना भी पूरी नहीं कर सकते?/ और आखिरी और सबसे ज्यादा पॉपुलर कथन है -  लोग क्या कहेंगे?

कहना अनावश्यक है कि इस बदले हुए समय में, जब विवाह की औसत आयु काफी ऊपर जा चुकी है, युवाओं के सपने नई ऊंचाइयां छूने लगे हैं, शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ कैरियर से जुड़ी आकांक्षाएं निरंतर बड़ी होती जा रही हैं, जीवन में भौतिक सुख सुविधाओं का महत्व बढ़ता जा रहा है, नैतिकता और दैहिक शुचिता के पुराने मानदण्ड अप्रासंगिक होते जा रहे हैं, युवाओं को अपने मां बाप से इस तरह के संवाद सुनना प्रीतिकर नहीं लगता है. कभी वे बातों को टालते हैं, कभी कम या ज़्यादा कड़ा प्रतिरोध करते हैं, और कभी उनके आगे समर्पण कर अपनी तमन्नाओं का खून भी हो जाने देते  हैं.

लेकिन मैं यह सारी चर्चा यह सवाल उठाने के लिए कर रहा हूं कि क्या विवाह आवश्यक है? और यह कितना उचित है कि मां-बाप अपनी संतान पर दबाव बनाएं या इमोशनल ब्लैक मेल करके उनको विवाह के लिए विवश करें? अब जबकि पढ़े लिखे परिवारों में सामान्यत: ठीक ठाक उम्र हो जाने तक युवा अपनी शादी के बारे में सोचते ही नहीं हैं, यानि तब तक वे खासे परिपक्व भी हो चुके होते हैं, तो फिर उनके शादी करने न करने का फैसला भी क्या उन पर ही नहीं छोड़ दिया जाना चाहिए? और स्पष्ट कहूं कि क्या शादी न करने के विकल्प को भी पारिवारिक और सामाजिक स्वीकृति नहीं मिल जानी चाहिए?

विवाह संस्था के समर्थन में जो तर्क अब तक दिये जाते रहे हैं, हम उनके विस्तार और पक्ष विपक्ष में न जाएं और केवल यह सोचें कि जिस देश में स्त्री-पुरुष अनुपात 943 है और इसमें लगातार गिरावट आती जा रही  है, वहां सबका विवाह तो वैसे ही मुमकिन नहीं है. लेकिन  ज़्यादा महत्व की बात यह है कि क्या अब मां-बाप के दायित्वों और सामाजिक संरचना  को नए सिरे से परिभाषित करने का समय नहीं आ गया है? एक समय था जब मां-बाप अपने बच्चों की शादी करके ही अपने आप को दायित्व मुक्त मानते थे, हालांकि दायित्व  मुक्त होते तब भी नहीं थे. क्या हर्ज़ है अगर अब वे अपने बच्चों को पढ़ा लिखाकर, आत्म निर्भर बना कर उनके जीवन के अन्य निर्णय खुद उन्हें करने के लिए स्वतंत्र छोड़ दें? अब तो कैरियर के मामले में भी यह हो रहा है कि जहां पहले मां-बाप यह कहते थे कि हम अपने बच्चों को ये बनाएंगे और वो बनाएंगे, उनकी जगह आज के समझदार मां-बाप कहने लगे हैं कि हमारे बच्चे जो बनना चाहेंगे वो बनने में हम उनको सहयोग देंगे. ऐसे में अगर कोई युवक या युवती विवाह न करने का फैसला करता है तो क्यों न उस फैसले को भी सहर्ष स्वीकार किया जाए!

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत  मंगलवार, 23 जून, 2015 को 'क्या शादी के लिए ज़रूरी है इमोशनल अत्याचार'  शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.         

Tuesday, June 16, 2015

महिलाएं ही क्यों बदलें अपना नाम

बात काफी पुरानी है. मैं शायद कॉलेज का विद्यार्थी था. एक कवियित्री की कविताएं मुझे बहुत अच्छी लगती थीं. फिर यकायक वे दृश्य से गायब हो गईं. वो मीडिया सक्रियता का ज़माना भी नहीं था कि कुछ पता चलता. फिर कुछ समय बाद एक और कवयित्री अवतरित हुईं जिनका प्रथम नाम वही था, लेकिन कुलनाम या सरनेम  भिन्न था. हमें यह बात पता लगने में काफी समय लग गया कि विवाह के बाद वे अपने पिता के कुलनाम  की जगह पति का कुलनाम  लगाने लगी थीं. वैसे भारतीय समाज में यह बात आम है. लड़कियां विवाह के बाद उस कुलनाम को जिसका प्रयोग वे अब तक कर रही थीं, त्याग कर अपने पति का कुलनाम लगाने लगती हैं.

कलाओं और शो बिज़ की दुनिया में ऐसा नहीं भी होता है. हेमा मालिनी हमेशा हेमा मालिनी ही रहती हैं और आशा भोसले भी आशा बर्मन नहीं हो जाती हैं. याद करें तो साहित्य की दुनिया से भी ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे. मन्नू भण्डारी मन्नू यादव नहीं हुईं और न सुधा अरोड़ा सुधा भाटिया बनीं. लेकिन हमारी  सामाजिक व्यवस्था में इन्हें अल्पसंख्यक अपवाद ही माना जाएगा. कई बार तो यह तक होता है कि विवाह के बाद लड़की को इसलिए अपना मूल नाम बदल लेना होता है कि उस नाम वाली कोई लड़की उसके नए परिवार में पहले से मौज़ूद थी.

लेकिन अब आहिस्ता-आहिस्ता यह स्थिति बदल भी रही है. शायद इसकी एक वजह यह भी है कि पहले विवाह कम उम्र में हो जाते थे और तब तक लड़की का अपना कोई व्यक्तित्व विकसित नहीं होता था, इसलिए उसे उसका विलयन नए परिवार में कर डालने में कोई असहजता अनुभव नहीं होती थी. लेकिन अब, जबकि लड़कियां जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों में पांव जमा लेने और अपनी हैसियत बना लेने के बाद शादी करने लगी हैं, वे भी इन पुरातन परिपाटियों पर सवाल उठाने, इन्हें चुनौती देने, और कई बार नकारने तक लगी हैं. अमरीका की सिलिकॉन वैली की एक मनोचिकित्सक कैथरीन वेल्ड्स  ठीक ही कहती हैं कि “जैसे-जैसे कामकाजी महिलाओं की संख्या में बढोतरी हुई है उनमें खुद की पहचान बनाने की इच्छा भी बढ़ी है.”   हमें भी अपने आस-पास ऐसी बहुत सारी महिलाएं मिल जाएंगी जिन्होंने या तो विवाह के बाद अपना कुलनाम बदलना ज़रूरी नहीं समझा या पति का कुलनाम अपनाने के बावज़ूद पिता के कुलनाम का भी त्याग नहीं किया. पुरानी परिपाटियों को चुनौती देने या अस्वीकार करने  के और बहुत सारे प्रमाण वेशभूषा और सुहाग चिह्नों के मामलों में भी देखे जा सकते हैं. वही सवाल कि सुहाग चिह्न की अनिवार्यता केवल स्त्री के लिए ही क्यों? 

और इसी सवाल से मुझे याद आई यह बात कि हाल में एक अमरीकी अभिनेत्री ज़ोई साल्डान्या के पति ने अपनी तरह से परम्पराओं को चुनौती दे डाली. उनके पति मार्को पेरेगो ने विवाह के बाद अपना नाम बदलकर मार्को साल्डान्या कर दिया. लेकिन समाज, चाहे वो अमरीका का ही क्यों न हो, भला इस तरह के गैर पारम्परिक क़दमों को आसानी से कहां  स्वीकार करता है? वहां भी मार्को के इस काम की खूब आलोचना हुई, उनका मज़ाक उड़ाया गया. और तब मार्को ने अपने फेसबुक पेज पर इन लोगों को यह जवाब दिया: “इसमें इतनी हैरानी की क्या बात है? क्या इसलिए कि एक आदमी अपनी पत्नी का कुलनाम स्वीकार करेगा?” ख़ास बात तो उन्होंने आगे कही है: “पुरुषों! अपनी पत्नी का कुलनाम ले लेने से आपका वज़ूद ख़त्म नहीं हो जाएगा. बल्कि  इसके साथ ही आप बदलाव के साथ खड़े होने वालों की सूची में याद किए जाएंगे.

और जैसा साहस मार्को ने दिखाया वैसा ही साहस  स्कॉटलैण्ड के ग्लासगो के एक म्यूज़िक प्रमोटर  बेन कॉगहिल ने भी दिखाया. बत्तीस वर्षीय बेन का कहना है कि “मुझे अपनी पत्नी रोवान मार्टिन के नाम का उच्चारण काफी पसन्द है इसलिए  उसे बदल कर मैं  बर्बाद नहीं करना चाहता." उन्होंने यह और कहा कि “यह दिखाता है कि मैं पुरुष प्रधान समाज का विचार नहीं मानता और जो मैं हूं उससे खुश हूं.

लेकिन यह सब कहते हुए मैं इस बात को भी छिपाना नहीं चाहता कि परम्परा से चले आ रहे रीति रिवाज़ों ने हमारी चेतना में बहुत गहरे तक जगह बना रखी है. सन 2013 में एक मेट्रीमोनियल वेबसाइट टॉपनॉट डॉट कॉम ने तेरह हज़ार दुल्हनों पर किए एक सर्वे के बाद बताया था कि अस्सी प्रतिशत महिलाएं अपने पति के कुलनाम को ही अपनाना पसन्द करती हैं. ऐसे में कम से कम मुझे तो बीबीसी के एक प्रोड्यूसर एण्ड्री  ब्राउन का यह क़दम बहुत पसन्द  आया कि  जब उन्होंने हेलेन स्टोन से शादी की तो दोनों के कुलनाम को मिलाकर एक संयुक्त कुलनाम ब्राउनस्टोन्स बनाकर अपने नाम के साथ जोड़ लिया. विवाह अगर दो आत्माओं का मिलन होता है तो दो कुलनामों का भी मिलन क्यों न हो?


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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 16 जून, 2015 को पति ने लगाया पत्नी का सरनेम तो हंगामा क्यों शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, June 9, 2015

कबीर कह गए हैं: हम न मरैं मरिहैं संसारा

इधर कुछ दिनों से मेरा ध्यान रह-रहकर श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास ‘राग दरबारी’ की तरफ जा रहा है. इस बेहद रोचक, बहु प्रशंसित  और चर्चित उपन्यास को खोलते ही पहले पन्ने पर आप पढ़ते हैं:

सड़क  के एक ओर पेट्रोल-स्टेशन था; दूसरी ओर छप्परों, लकड़ी और टीन के सड़े टुकड़ों और स्थानीय क्षमता के अनुसार निकलने वाले कबाड़ की मदद से खड़ी की हुई दुकानें थीं. पहली निगाह में ही मालूम हो जाता था कि दुकानों की गिनती नहीं हो सकती. प्राय: सभी में जनता का एक मनपसन्द पेय मिलता था जिसे वहां गर्द, चीकट, चाय की कई बार इस्तेमाल की हुई पत्ती और खौलते पानी आदि के सहारे  बनाया जाता था. उनमें  मिठाइयां भी थीं जो दिन-रात आंधी-पानी और मक्खी मच्छरों के हमलों का बहादुरी से मुकाबला करती थीं. वे हमारे देसी कारीगरों के हस्तकौशल का और उनकी वैज्ञानिक दक्षता का सबूत देती थीं. वे बताती थीं कि हमें एक अच्छा रेज़र-ब्लेड बनाने का नुस्खा भले ही मालूम न हो, हर कूड़े को स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों में बदल देने की तरक़ीब सारी दुनिया में अकेले  हमीं को आती है.

लगता है लेखक स्वर्गीय श्रीलाल शुक्ल जी को मिठाइयों से कुछ ज़्यादा ही मोह  था. हो सकता है इसकी एक वजह उनका पण्डित होना भी हो. अब देखिये ना, आगे भी एक जगह वे लिखते हैं:

मिठाई और चाट की दुकानों के आगे काफ़ी भीड़ थी. भारतीय मिठाइयों की सौन्दर्य-साम्राज्ञी बर्फ़ी ढेर-की-ढेर लगी थी  और हर लड़का जानता था कि मारपीट में इसका इस्तेमाल पत्थर के टुकड़े-जैसा किया जा सकता है. इन मिठाइयों के बनाने में हलवाइयों और फूड इंस्पेक्टरों को बड़े-बड़े वैज्ञानिक अनुसंधान करने पड़े थे, उन्होंने बड़े परिश्रम  से मालूम किया  था कि खोये की जगह घुइयां, आलू-चावल का आटा, मिट्टी या गोबर तक का प्रयोग किया जा सकता है. वे सब समन्वयवाद के अनुयायी थे और उन्होंने क़सम खा ली थी कि वे बिना मिलावट के न तो कोई चीज़ बनायेंगे और न बेचेंगे.

आप समझ ही गये होंगे कि मुझे इस महान उपन्यास की याद इन दिनों क्यों आ रही है! वैसे, इस उपन्यास पर बहुत सारे आलोचकों ने भारतीय जीवन के यथार्थ के प्रति असंवेदनशील होने के आरोप भी लगाए हैं, लेकिन कम से कम इन पंक्तियों को पढ़ते  हुए तो लगता है कि वे यथार्थ को जस-का तस रख रहे हैं. कभी-कभी मुझे लगता है कि जैसे सफाई हमारे जीवन का मूल्य है ही नहीं. सफाई भी और शुद्धता भी. सफाई अगर मूल्य होता और हमारे जीवन में शामिल होता तो देश के नए बने प्रधानमंत्री को भी उसके लिए अलग से एक अभियान चलाने की ज़रूरत नहीं पड़ती. सफाई और शुद्धता जैसे एक सिक्के के ही दो पहलू हैं. पेयजल जैसी आधारभूत वस्तु जहां शुद्ध रूप में सुलभ न हो, और आम जन की  तो छोड़िये, जहां सितारे वाले होटल भी आपको खाना परोसने से पहले यह पूछते हों कि आप पानी सादा लेंगे या बॉटल्ड, तो यह केवल व्यावसायिक तकाज़ा कहकर टाल देने वाली बात नहीं रह जाती है, इसका एक अर्थ यह भी निकलता है कि खुद उन्हें अपने यहां सुलभ पेय जल की गुणवत्ता पर संदेह है. स्ट्रीट फूड के निर्माण और जिस स्थितियों में उसे  बेचा और खाया जाता है, उसकी बात न भी करें, तो विवाह जैसे सार्वजनिक और बड़े आयोजनों में अगर आप खाना बनते हुए देख लें तो शायद उसे खाने की हिम्मत न कर पायें, और यह जानते हुए भी आप उसे बिना किसी झिझक के खाते हैं. होली दिवाली जैसे बड़े त्योहारों पर मावे और मिठाई में मिलावट की खबरों ने अब हमें चौंकाना भी बन्द कर दिया है.  नाले के पानी में उगी और ज़रूरत से ज़्यादा रसायनों वाली सब्ज़ियां, हानिकारक रसायनों द्वारा पकाये गये फल, मिलावटी और अवधिपर की दवाइयां - क्या है हमारे आस-पास जो शुद्ध और विश्वसनीय है?

ऐसे में कल रात व्हाट्सएप पर जब यह संदेश मिला तो लगा कि दास कबीर बहुत पहले सही ही कह गए थे. क्या कह गए थे, यह जानने से पहले कल रात मिला संदेश पढ़ लीजिए:

सड़े तेल में डूबे भटूरे और समोसे, सल्फर के तेज़ाब वाले पानी के गोलगप्पे, बर्ड फ्लू वाले जख्मी मुर्गे की चांप, एक ही पत्ती से कई बार बनी चाय, डिटर्जेण्ट पाउडर वाला दूध, धूल वाली सड़क पे खुले कटे फलों  की चाट, नाली किनारे  बिकती सब्ज़ियां, कभी ना साफ हुई टंकी की प्याऊ का पानी, खुजलाते हाथों की ढाबे की रोटियां, मरे मच्छरों  की चाशनी में डूबी जलेबियां, और सूखे दूध के नकली मेवे की मिठाई जिसका बाल भी बांका नहीं कर सके, उसका मैगी की लीड  क्या बिगाड़ लेगी?

कबीर बहुत पहले कह गए थे: हम न मरैं मरिहैं संसारा.  

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत इसी शीर्षक से आज मंगलवार, 09 जून, 2015 को प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, June 2, 2015

आपसे ज्यादा महत्व है आपके डेटा का

आप किसी स्टोर में खरीददारी करने जाते हैं और जब बिलिंग की बारी आती है तो आपसे नाम पूछने के बाद प्राय: आपका मोबाइल नम्बर भी पूछा जाता है. आप सहज रूप से बता देते हैं. आप इण्टरनेट पर किसी सेवा, चाहे वो ई मेल खाता हो, कोई सोशल नेटवर्किंग साइट हो या कुछ और, के लिए साइन इन करते हैं तब आपके सामने एक बॉक्स आता है, जिसके आगे छपा होता है – आई एक्सेप्ट यानि मैं स्वीकार करता हूं. आप उस पर टिक कर देते हैं. हममें से शायद ही कोई इतना जागरूक या धैर्यवान हो कि वह उस पूरी इबारत को पढ़े जिसे उसने स्वीकार किया है.

ये और इस तरह की बहुत सारी निरापद लगने वाली हरकतें करते समय हम शायद ही इस बात से वाक़िफ हों कि ऐसा करते हुए हम न केवल दूसरों को अपनी निजता में ताका झांकी करने का अधिकार सौंप रहे हैं, अनजाने में ही उस परिघटना का शिकार भी हो रहे हैं जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन के ज्ञान और प्रबंधन के निदेशक नजीब अल शोराबजी ने अपने एक भाषण में ‘डेटा कोलोनियलिज़्म’ का नाम दिया था. कोलोनियलिज़्म यानि उपनिवेशवाद का नाम आते ही हमारे कान खड़े हो जाते हैं. क्या है यह डेटा कोलोनियलिज़्म? इन नजीब अल शोराबजी ने तो डेटा कोलोनियलिज़्म संज्ञा का प्रयोग उस स्थिति के लिए किया था जिसमें पश्चिमी  देश अफ्रीकी राष्ट्रों के स्वास्थ्य विषयक डेटा का दोहन कर रहे हैं, बिना अफ्रीकी देशों को इसका तनिक भी लाभ दिये. लेकिन यह तस्वीर का बहुत छोटा हिस्सा  है. इस डेटा कोलोनियलिज़्म का आकार कितना बड़ा हो चुका है इसका अन्दाज़ आप सिर्फ इस जानकारी से लगा लीजिए कि इस बरस यानि 2015 में अकेले भारत में इसका मूल्य एक बिलियन डॉलर यानि करीब सात हज़ार करोड़ रुपये  आंका गया है.

असल में आज की दुनिया में डेटा एक कमोडिटी बन गया है, एक ऐसी वस्तु  जिसका मोल सोने से भी ज़्यादा है. यह जो उन तमाम वेबसाइट्स का मायाजाल है जो आपके सामने आकर गिड़गिड़ाती हैं कि आप अपने स्मार्ट फोन पर उनकी एप डाउनलोड कर लें – क्या यह बेवजह है? मुझे बहुत खुशी होती है जब किसी एप की वजह से तुरंत मेरी गैस बुक हो जाती है या बिना यह बताए कि मैं कहां खड़ा हूं, मेरी बुलाई हुई कैब आकर मेरे सामने खड़ी हो जाती है. लेकिन यह सब तस्वीर का एक पहलू ही है. दूसरा पहलू जो ज्यादा चौंकाने और विचलित करने वाला है वह यह है कि इस तरह मेरे पूरे बर्ताव पर नजर रखी जा रही है. क्या आपने कभी नोट किया है कि जब आप अपने किसी ई मेल में किसी हिल स्टेशन पर जाने की बात लिखते हैं, तो उसी समय उस पेज के दाहिनी तरफ  उसी हिल स्टेशन के होटलों के विज्ञापन क्यों दिखाई देने  लगते हैं? जब आप किसी पुस्तक विक्रेता की साइट पर किसी किताब को तलाश करते हैं तो उससे मिलती जुलती किताबों के सुझाव कैसे आने लगते हैं? जब आप कोई पोर्न साइट विज़िट करते हैं तो क्यों और कैसे उसी समय आपके शहर का नाम लेते हुए आपको यह सूचनाएं मिलने लगती हैं कि वहां  रास रचाने की सुविधाएं आपके इंतज़ार में हैं. ये चन्द उदाहरण हैं जिनसे  आप अनुमान लगा सकते हैं कि आपके अनजाने में आपके क्रिया कलाप पर नज़र रखी जा रही है.

और इसी ताका-झांकी के खेल, बल्कि बड़े कारोबार की तरफ मैं आपका ध्यान खींचना चाह रहा हूं.  दरअसल इस तरह डेटा संग्रहण करते हुए भविष्य की एक ऐसी संरचना की कल्पना की जा रही है जिसमें मानवीय विवेक को इन सूचनाओं के संसाधन द्वारा प्राप्त निष्कर्षों पर कुर्बान कर दिया जाएगा. जन्म से मृत्यु तक आपकी हर गतिविधि को लगातार रिकॉर्ड और संसाधित किया जाएगा और उसी के अनुसार तमाम गतिविधियों जिनमें व्यावसायिक और प्रशासनिक सभी तरह की गतिविधियां शामिल हैं, संचालित किया जाएगा. ऊपर से यह बात भले ही आकर्षक लगे, इसमें जो ख़तरे निहित हैं उनकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती. मसलन यह कि सोच और अनुभव को डेटा विस्थापित कर डाले और यह भी कि अगर इन डेटा को तोड़ मरोड़ कर मनचाहे निष्कर्ष निकाल लिये जाएं तो? वायर्ड  पत्रिका के पूर्व मुख्य सम्पादक क्रिस एण्डरसन ने जब अपने एक चर्चित लेख में यह कहा था कि इस तरह आंकड़ों   पर अत्यधिक निर्भरता कार्य कारण पद्धति को अप्रासंगिक कर देगी, तो  को दुनिया का चौंक जाना स्वाभाविक ही था. चिंता की बात यह है कि हम अपने अनजाने में आहिस्ता-आहिस्ता उसी व्यवस्था की तरफ बढ़ते जा रहे हैं जिसमें डेटा निर्माण के कच्चे माल यानि ‘लोगों’ की आवाज़ को न सुनकर सिर्फ डेटा की आवाज़ को ही सुना जाएगा. हताशा की बात यह है कि इस चिंताजनक स्थिति में हम अपने आपको बेबस पा रहे हैं.  

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 02 जून, 2015 को डेटा कोलोनियलिज़्म: आज़ादी का दुश्मन शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.