गुलज़ार
साहब की एक बहुत मशहूर नज़्म है – किताबें झांकती हैं बन्द अलमारी के शीशों से/
बड़ी हसरत से ताकती हैं, महीनों अब मुलाकातें नहीं होतीं. किताबों के परिदृश्य में पिछले चन्द बरसों में जो बदलाव आया है उसे देखते हुए मुझे
यह नज़्म पुरानी लगने लगी है. बहुत पुरानी बात नहीं है जब मेरी भाषा हिन्दी में
सामान्यत: किताब का एक संस्करण ग्यारह सौ प्रतियों का होता था. तब जो मुद्रण तकनीक
प्रचलित थी उसके लिहाज़ से भी शायद इतनी प्रतियों से कम छापना व्यावहारिक नहीं होता
था. बहुत सारी किताबों की, जिनमें पाठ्य पुस्तकें और लुगदी साहित्य का ज़िक्र ख़ास
तौर पर किया जा सकता है, इससे काफी ज़्यादा प्रतियां भी छपती थीं. लोकप्रिय उपन्यासकार गुलशन नन्दा के एक उपन्यास ‘झील के उस पार’ की पांच लाख प्रतियों के छपने और बिकने की चर्चा
काफी समय तक होती रही थी. और बात ऐसी भी नहीं है
कि सिर्फ लुगदी साहित्य ही बिकता रहा है. हिन्दी में ही तुलसी और प्रेमचन्द
की बात तो छोड़िये, धर्मवीर भारती का ‘गुनाहों का देवता’, भगवतीचरण वर्मा का
‘चित्रलेखा’, श्रीलाल शुक्ल का ‘राग दरबारी’, शिवानी और नरेन्द्र कोहली के अनेक
उपन्यास, दुष्यंत कुमार का ग़ज़ल संग्रह
‘साये में धूप’ उन बहुत सारी किताबों में
से कुछ हैं जो खूब बिकी हैं और अब भी बिकती हैं. संस्करण, और पुनर्मुद्रण की इस
चर्चा को आगे बढ़ाने से पहले इस बात का ज़िक्र भी करता चलूं कि विदेशी हैरी पॉटर
वगैरह को तो छोड़िये, हमारे अपने मुल्क के लोकप्रिय कथाकार चेतन भगत के हालिया
प्रकाशित उपन्यास ‘हाफ़ गर्लफ्रैण्ड’ की बीस लाख प्रतियों के पहली खेप में और एक साल में इससे दस लाख और प्रतियों के बिकने की
चर्चाएं खूब हो चुकी हैं. और यह बात तब जब हम यह कहते नहीं थकते हैं कि अंग्रेज़ी
इस देश के मात्र दो प्रतिशत की भाषा है.
लेकिन इन्हीं तमाम बातों के बरक्स यह एक त्रासद सच्चाई है कि हिन्दी की
आम किताब का संस्करण अब ग्यारह सौ
प्रतियों से सिकुड़ते-सिकुड़ते तीन सौ, बल्कि उससे भी कम तक आन पहुंचा है. और यह
कहते हुए मैं उस नए प्रिण्ट ऑन डिमाण्ड नामक फिनोमिना की बात नहीं कर रहा हूं
जिसमें संख्या की कोई बात रह ही नहीं गई है: अगर आपको एक प्रति चाहिये तो एक छाप कर दे दी
जाती है. बेशक यह बात मुमकिन हुई है नई
मुद्रण तकनीकी की वजह से जहां पुस्तक के पाठ को कम्पोज़ करके कम्प्यूटर में सेव
करना और यथावश्यकता प्रतियां मुद्रित कर लेना सम्भव हो गया है. अब भला क्यों कोई
प्रकाशक ज़्यादा प्रतियां छापने में अपने कागज़, लागत तथा गोदाम की स्पेस को ब्लॉक
करे? और इसी स्थिति ने हिन्दी में एक नई प्रजाति को पनपाया है. उस नई प्रजाति ने
अपना नाम तो अभी पुराने वाला ही रखा है –
प्रकाशक, लेकिन असल में काम वह मुद्रक का करता है. जैसे पहले आप किसी प्रिण्टर के
पास जाकर अपनी बिल बुक, शादी या मौत मरण का कार्ड छपवा लाते थे, वैसे ही अब इस नए
प्रकाशक के पास जायें, और पैसे देकर अपने लिखे को छपवा लें. उसे इस बात से कोई
मतलब नहीं है कि आप कैसा, क्या और क्यों छपवा रहे हैं? आपने पैसे दिये, उसने छाप
दिया. बेचने की परवाह भी उसे नहीं करनी है. इसलिए वो ज़्यादा प्रतियां भी नहीं
छापता है. उतनी ही छापता
है जितनी छापने के आपने पैसे दिये
हैं. दस-बीस प्रतियां अपने पास रखकर शेष सारी वो आपको दे देता है. और आपके पास भी उन्हें बेचने का कोई तंत्र तो है नहीं, सो कुछ
प्रतियां आप दोस्तों, रिश्तेदारों को सप्रेम
भेंट करते हैं, कुछ माननीय समीक्षकों को सादर ‘समीक्षार्थ’ प्रेषित करते
हैं और बस हो जाते हैं साहिबे दीवान! अरे, यह सब कहते हुए मैं एक ख़ास बात तो भूल
ही गया. किताब छपवा लेने के बाद दो ज़रूरी काम आप सबसे पहले करते हैं. पहला तो यह
कि फेसबुक और ट्विट्टर जैसे सोशल मीडिया पर उस किताब की खबर प्रसारित कर ‘सबको मालूम है सबको खबर हो गई’ का माहौल
बनाते हैं और फिर उसके लोकार्पण का जुगाड़ बिठाते हैं. लोकार्पण चाहे जैसा और चाहे
जिस स्तर का हो, उसकी सचित्र खबर भी इन माध्यमों पर एकाधिक बार प्रसारित करना आप
नहीं भूलते. अनेक लोकार्पण तो इतने हास्यास्पद होते हैं कि कुछ पूछिये मत. लेकिन
वह ज़िक्र फिर कभी. आपकी किताब चाहे किसी
लाइब्रेरी और किसी पाठक तक न भी पहुंचे, फेसबुक आदि की दीवार से उसकी छवि ज़रूर
नुमायां होती रहती है, और इसीलिए मुझे लगता है कि मैं गुलज़ार साहब की इस नज़्म को संशोधित करके कहूं – किताबें झांकती हैं
फेसबुक की दीवारों से.
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 03 मार्च, 2015 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.
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