Tuesday, March 24, 2015

हमारे परिवेश की देन है नकल

बिहार में मैट्रिक की परीक्षा में अपने परिजनों को नकल करवाने के लिए दीवार पर चढ़े अभिभावकों और शुभ चिंतकों की तस्वीर इण्टरनेट पर और अन्य समाचार माध्यमों में आने के बाद एक बार फिर से परीक्षाओं में नकल को लेकर गम्भीर चर्चाएं शुरु हो गई हैं. बात किसी एक राज्य की या अन्य राज्यों की तुलना में उसके बदतर होने या न होने की नहीं है. शिक्षा से जुड़े लोग इस बात  से भली भांति अवगत हैं कि आम तौर पर जो शिक्षा एवम परीक्षा प्रणाली हमारे यहां प्रचलन में है  उसमें नकल को रोक पाना लगभग असम्भव है. हर परीक्षार्थी नकल नहीं करता है और हर जगह नकल करने वालों की संख्या भी समान नहीं होती है, लेकिन अगर कोई यह कहता है कि सिर्फ अमुक जगह ही नकल होती है तो स्पष्ट ही वह उस जगह विशेष के साथ अन्याय कर रहा है.
अपने लगभग साढ़े तीन दशकों लम्बे अध्यापन काल में मैंने नकल के अनेक रूप देखे हैं. कुछ विद्यार्थी नकल के लिए अपने कौशल का, छल का इस्तेमाल करते हैं तो कुछ बाहु बल का. और ऐसा भी नहीं है कि सारा दोष विद्यार्थियों का ही है. बहुत बार शिक्षक या संस्था प्रमुख, और विशेष रूप से निजी संस्थाओं वाले अपने विद्यार्थियों को नकल करने की सुविधा उपलब्ध करते हैं या नकल करने में उनकी सहायता करते हैं. हम सब अंतत: एक ही समाज और एक ही परिवेश की उपज हैं इसलिए इसे बहुत अस्वाभाविक भी नहीं माना जाना चाहिए. जब कोई रिश्वत लेकर या देकर काम करवा सकता है तो भला उसे नकल से क्यों गुरेज़ होगा?

यह लिखते हुए मुझे एक प्रसंग याद आ रहा है. मैं एक कॉलेज का प्राचार्य था और इसलिए स्वभावत:  अपने कॉलेज के परीक्षा केन्द्र का अधीक्षक भी था. सरकार ने नकल रोकने के लिए जो बहुत सारे कदम उठाये थे उनमें से एक यह भी था कि जो भी परीक्षार्थी नकल करते हुए पकड़ा जाए उसके खिलाफ पुलिस में एफ आई आर भी अनिवार्यत: दर्ज़ करवाई जाए. इस वजह से स्थानीय पुलिस प्रशासन से कई कई दफा सम्पर्क भी होता रहता था. एक दिन स्थानीय पुलिस के एक अधिकारी जी का फोन आया और उनके स्वर में जो अतिरिक्त मिठास थी, उसने मुझे अनायास ही चौकन्ना कर दिया. पहले तो वे इधर उधर की बातें करते रहे, फिर बड़े सहज भाव से बोले कि उनका साला भी मेरे केन्द्र से परीक्षा दे रहा है और उसकी परीक्षा अभी शुरु होने ही वाली है. मैंने अपनी मासूमियत को बरक़रार रखते हुए साले साहब  के लिए उन्हें बेस्ट ऑफ लक कहा, और बात को दूसरी तरफ मोड़ना  चाहा, लेकिन वे वहीं रुके रहे, और फिर बोले कि मैं उसका ध्यान रखूं. अब मैं समझ गया था कि वे क्या चाहते थे! लेकिन उस वक़्त  नासमझ बना रहना ही सुविधाजनक था, इसलिए मैंने उनसे कहा कि वे आश्वस्त रहें, हमारे यहां उसे कोई असुविधा नहीं होगी. सारे कमरों में पंखे हैं, और पानी भी ठण्डा ही पिलाया जाता है. अब उन्हें भी सीधे ही अपनी बात कहना ज़रूरी लगा, सो बोले: “नहीं सर, वो ऐसा है कि इस साल वो ठीक से पढ़ाई नहीं कर सका है, इसलिए आप उसका ज़रा ध्यान रख लें तो.....”  बात बिल्कुल साफ थी. अब मैं भी कुछ मज़े लेने के मूड में आ चुका था. तुरंत बोला, “अरे हां, मुझे भी एक काम याद आ गया है.”  पुलिस अधिकारी जी तो ऑब्लाइज़ करने के लिये जैसे तैयार ही बैठे थे. “‘सर हुक्म कीजिए”. “वो ऐसा है कि मेरा  भी एक साला है. ज़्यादा पढ़ लिख नहीं सका, और घर की आर्थिक स्थिति भी ठीक नहीं है. अगर आप आज रात उसे कहीं सेंध लगा लेने दें तो...”  और मैं अपना  वाक्य पूरा करता उससे पहले ही उन्होंने फोन काट दिया. मेरा मकसद तो पूरा हो ही गया था.

और नकल की बात करते हुए मुझे अपने स्कूली जीवन के एक सहपाठी  की और याद आ रही है. बहुत ही कुशल नकलची था वो. तेज़ से तेज़ वीक्षक की आंखों में धूल झोंककर नकल कर लेने में माहिर. लेकिन फिर भी नकल का कोई लाभ उसके परिणाम में देखने को नहीं मिलता. आखिर हमने अपने एक शिक्षक से इस बात का राज़ पूछ ही लिया. उन्होंने बताया कि वह बन्दा अपने आगे-पीछे वाले किसी अन्य परीक्षार्थी से पूछता कि किताब में कहां से कहां तक टीपना है और फिर यथावत कॉपी में उतार डालता. परिणाम यह कि ‘बच्चों, तुम पिछले अध्याय में पढ़ चुके हो’ और ‘देखो चित्र संख्या  7’ जैसे वाक्य भी उसकी उत्तर पुस्तिका में पाए जाते. अब ऐसे अतुलनीय विद्यार्थी को तो कोई असाधारण परीक्षक ही पुरस्कृत कर सकता था.

तो अनंत है यह नकल पुराण. मुझे तो इसका समाधान परीक्षा प्रणाली में बदलाव में ही नज़र आता है, और उसकी फिलहाल कोई सम्भावना नज़र नहीं आती.


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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत  मंगलवार, 24 मार्च, 2015 को 'नकल करवानी है तो लगवाने दो सेंध' शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.      

Tuesday, March 17, 2015

दही बड़ा, कटोरी और पार्किंग

इधर  लगातार तीन शादियों में, मतलब शादी की दावतों में, जाने का मौका मिला और तीनों जगह एक जैसे अनुभव हुए. उन अनुभवों के बारे में मैं इस कॉलम में नहीं लिखता, अगर एक और अनुभव ने मुझे यह बात कह डालने को विवश न कर दिया होता. पहले शादी की दावतों का अनुभव. अपनी प्लेट में सलाद सब्ज़ियां वगैरह लेकर जब दही बड़े के काउण्टर तक पहुंचा तो इधर उधर नज़र दौड़ाई कि कहीं कटोरियां रखी हुई मिल जाएं. जब मुझे नज़र न आई तो वहां खड़े बैरे से पूछा, और उसने जवाब दिया कि कटोरियां दाल की काउण्टर पर है, सब लोग वहां से ला रहे हैं. अगर चाहूं तो मैं भी वहां जाकर ले आऊं. और ठीक यही अनुभव जब बाद की दो दावतों में भी हुआ तो मैं सोचने को मज़बूर हुआ कि आखिर केटरर्स को यह बात समझ में क्यों नहीं आती कि जहां दही बड़े रखे हैं वहीं उनके लिए कटोरियां भी रख दी जाएं! आखिर दही बड़ा तो कोई प्लेट में रखकर खाएगा नहीं.

और इस बात की तरफ मेरा ज़्यादा ध्यान जिस अनुभव से गया, वह यह है. इधर तीन दिन में दो बार जयपुर हवाई अड्डे पर जाने का अवसर आया. जिन्हें नहीं मालूम है उनकी जानकारी के लिए यह बात बताता चलूं कि जयपुर हवाई अड्डे पर निजी वाहनों के लिए एक ख़ास व्यवस्था है. जैसे ही आप हवाई अड्डा परिसर में प्रवेश करते हैं आपको एक पार्किंग टिकिट दिया जाता है जिस पर आपके प्रवेश करने का समय अंकित होता  है. अगर आपको सिर्फ किसी को हवाई अड्डे पर छोड़ना या वहां से लेकर  आना है  तो जल्दी से जल्दी से जल्दी यह काम कर लौट आएं, निकास पर अपनी वह पर्ची दें और अगर आपको आठ मिनिट से कम का समय लगा है तो बिना कोई शुल्क चुकाए चले आएं. इस तरह के सामान्य काम के लिए यह अवधि पर्याप्त है.  लेकिन अगर आप किसी के विदा होने तक वहां रुकना चाहते हैं, या वहां पहले पहुंच कर अपने अतिथि के आने की प्रतीक्षा करना और उन्हें लेकर आना चाहते हैं तो ज़ाहिर है कि आपको आठ मिनिट से ज्यादा का वक़्त लगेगा और तब आपको साठ रुपया पार्किंग शुल्क देना होगा. प्रीमियम पार्किंग के लिए तो यह शुल्क और अधिक है. तो अपनी इन दोनों हवाई अड्डा यात्राओं में मैंने पाया कि जवाहर सर्कल से थोड़ा आगे बढ़ते ही और ख़ास तौर पर टर्मिनल 2 वाली सीधी सड़क पर एक पूरी लेन एक के पीछे एक खड़ी हुए कारों से भरी हुई रहती है. होता यह है कि अपने मेहमानों को लेने आने वाले लोग बजाय साठ रुपया पार्किंग शुल्क खर्च करने के सड़क किनारे अपनी गाड़ी खड़ी कर उसी में बैठे रहते हैं और जैसे ही उनका अतिथि हवाई अड्डे से मय लगेज बाहर निकल कर उन्हें फोन करता है वे अन्दर  जाकर उसे लिवा लाते हैं. कहना अनावश्यक है कि इस काम के लिए जितने समय गाड़ी हवाई अड्डे के भीतर रहती है उसके लिए पार्किंग शुल्क देय नहीं होता है. यानि सड़क किनारे खड़ी गाड़ियों की यह कतार पार्किंग शुल्क बचाने वालों की होती है. उस सड़क पर यह नज़ारा आम है.

इस मंज़र को देखते हुए मुझे कुछ बरस पहले की अपनी अमरीका यात्रा की याद हो आई. वहां के सिएटल-टकोमा हवाई अड्डे पर मैंने पाया कि सामान्य सशुल्क पार्किंग एरिया के अतिरिक्त एक सेल पार्किंग एरिया और है जहां वही सुविधा बाकायदा सुलभ है जिसको जयपुर के नागरिकों ने अवैध तरह से हासिल कर रखा है. यानि आप गाड़ी खड़ी कीजिए, उसमें बैठे रहिये (यह ज़रूरी है) और जैसे ही आपके अतिथि का कॉल आए, जाकर उन्हें लिवा लाइये. वहां गाड़ी खड़ी रखने के लिए आपको कोई पार्किंग शुल्क  नहीं देना होता है. इतना ज़रूर है कि  उस सेल पार्किंग एरिया में आप अधिकतम तीस मिनिट तक अपनी गाड़ी खड़ी रख सकते हैं. लेकिन वहां के प्रशासन को इस तीस मिनिट की अवधि का निर्वाह करवाने के लिए कोई व्यवस्था नहीं करनी पड़ती है. लोग स्वत: इस समय सीमा का पालन  कर लेते हैं.

अब अमरीका के इस अनुभव को याद करते हुए मैं सोचता हूं कि आखिर क्यों हम लोगों की ज़रूरत को देख समझ तदनुसार व्यवस्था नहीं करते हैं? जब लोग जयपुर हवाई अड्डे पर पार्किंग शुल्क से बचने के लिए उस तेज़ यातायात वाली सड़क की एक लेन रोकने की अवांछित हरकत करने को मज़बूर हैं तो क्या प्रशासन को उनकी ज़रूरत को समझ तदनुसार व्यवस्था नहीं कर देनी चाहिए? और चलिये प्रशासन से तो संवेदनशीलता और सूझ-बूझ की  उम्मीद करना बहुत व्यावहारिक नहीं होगा, हमारे केटरर और शादियों पर इतना ज़्यादा खर्च  करने वालों को भी अगर यह नहीं सूझता कि दही बड़ों के पास कटोरियां भी रख दी जाएं,  तो मान लेना चाहिए कि गड़बड़ हमारी मानसिक बनावट में ही है.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 17 मार्च, 2015  को दही बड़े की कटोरियों जैसा पार्किंग का सवाल शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.     

Tuesday, March 10, 2015

क्या अतीत एक शरणगाह है?

ऐसे अनुभव बहुत बार होते हैं. कल फिर हुआ. कल अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस था ना! एक  आयोजन में शामिल होने का मौका अपन को भी मिला. मैं जब भी किसी आयोजन में जाता हूं मुझे शादी की दावत याद आए बिना नहीं रहती है. मुझे शादी की सारी दावतें एक जैसी लगती हैं. एक जैसा मेन्यू और एक जैसा माहौल. फर्क़ होता है तो बस अंकों का. कहीं तीन मिठाइयां तो कहीं पांच. और ऐसा ही अनुभव वैचारिक अथवा अकादमिक आयोजनों में जाकर  भी होता है. वही स्वागत, वही माल्यार्पण, वही लम्बे-लम्बे भाषण, वही आभार प्रदर्शन, वही स्मृति चिह्न समर्पण, वही समय की कमी की शिकायत और वही पारस्परिक तारीफें. अंतर  सिर्फ इस बात का कि इस आयोजन में मंच पर तीन विशिष्ट जन और उसमें सात.  फिर भी इसे शिकायत न माना जाए! असल में हमने अपने कार्यक्रमों का एक सांचा गढ़ लिया है और हर सम्भव कोशिश करते हैं कि जो भी करें वो उसी सांचे के अनुरूप हो. अंग्रेज़ी में जिसे आउट ऑफ द बॉक्स कहते हैं उस तरह से सोचने या करने का साहस हम कर  नहीं पाते हैं, इसलिए जैसा चलता आ रहा है वैसा ही चलता चला जाता है. और इस सबके बावज़ूद मैं इन कार्यक्रमों में जाता हूं, सोत्साह जाता हूं, शिरकत करता हूं और हर बार कुछ न कुछ नया जान-सीख-ले कर लौटता हूं. प्राय: यह भी सोचता हूं कि अगर मुझे कोई कार्यक्रम करना होगा तो मैं कौन नौ की तेरह कर लूंगा! वो सांचा तो मेरे भी सामने रहेगा.

तो मैं बात कल के कार्यक्रम की कर रहा था. कार्यक्रम के दो भाग थे. कुछ विशिष्ट महिलाओं का सम्मान और एक विचार गोष्ठी. उस विचार गोष्ठी में इन सम्मानित महिलाओं में से कुछ और कुछ अन्य स्त्री-पुरुष वक्ता  थे. अवसर के अनुरूप विचार गोष्ठी का विषय महिला सशक्तिकरण के आकलन से सम्बद्ध था. संयोग से इस गोष्ठी का पहला वक्ता मैं था और मैंने बहुत बेबाकी से यह बात कही कि यह विषय ऐसा नहीं है कि आप अधिकार पूर्वक कोई एक पक्ष चुन सकें. आप न तो यह कह सकते हैं कि महिला सशक्तिकरण के मामले में हालात जस के तस हैं, और न यह कह सकते हैं कि आज की महिला पूरी  तरह से सशक्त और समर्थ हो चुकी है. मेरे बाद बोलने वाले वक्ताओं ने अपनी अपनी दृष्टि से स्थिति का आकलन प्रस्तुत किया और मुझे स्वीकार करना चाहिए कि हरेक की बातों में कुछ न कुछ नया और  विचारोत्तेजक था. और इसी नए के लिए तो हम इस तरह के आयोजनों में जाते हैं!

लेकिन एक वक्ता का वक्तव्य इन सबसे हटकर था. वे ‘देवभाषा’  के विद्वान थे और उन्होंने अपनी बात शास्त्रों में गाई गई स्त्री महिमा से शुरु की. एक वक्ता के रूप में हममें से बहुतों को बहुत बार वर्तमान तक आने के लिए अतीत का सीढ़ी की मानिंद प्रयोग करना पड़ता है. लेकिन थोड़ी देर में लग गया कि वे अतीत के स्वर्णकाल में ही विचरण करना चाहते हैं. अतीत से उनका मोह  इतना प्रगाढ़ और तृप्त कर डालने वाला था कि वर्तमान तक आने की उन्हें कोई आवश्यकता ही महसूस नहीं हो रही थी. और अतीत भी तथ्य कथन या सजीव चरित्रों के माध्यम से नहीं, सुभाषितों के माध्यम से. यानि कुछ कुछ इस तरह कि जब हमारे शास्त्रों में लिख दिया गया है कि स्त्रीदेवी है, शक्ति  स्वरूपा है, तो बस है! अब और सोच विचार की ज़रूरत ही क्या है?

जैसा कल इस वक्तव्य के रूप में सामने आया, वैसा उन बहुत सारी गोष्ठियों में सामने आता है जिनमें समकाल की किसी अवस्था पर विचार किया जा रहा होता है. और गोष्ठियों में ही क्यों? हमारे रोज़मर्रा के जीवन में भी बहुत बार ऐसा होता है कि जब बात हमारी हो रही होती है तो हम उसे खींच कर अपने पुरखों तक ले जाते हैं. हमारे टू बी एच के के फ्लैट में कोई आता है तो हम बलपूर्वक यह बताए बिना नहीं रहते हैं कि हमारे पुरखे तो हवेलियों के स्वामी थे. मेरे पड़ोस में एक बच्चा था, कोई ढाई तीन साल का. अक्सर मेरे पास आ जाता था. मैं जब भी उससे उसके बारे में कुछ पूछता, जैसे यह कि तेरे पास कितनी पेंसिलें हैं, तो उसका जवाब हमेशा अपने बड़े भाई के बारे में होता, कि गौरव के पास सात पेंसिलें हैं. उस बच्चे के मन में कोई चालाकी नहीं थी, लेकिन फिर भी वो अपने सहज बोध से अपनी हीनता को छिपाने के लिए अपने भाई की आड़ लेता था. लेकिन हम जो पढ़े लिखे हैं, और बहुत सोच-विचार के बाद कुछ कहते हैं, वे भी जब वर्तमान की बात करने के लिए अतीत की आड़ लेते हैं तो इसे क्या कहा जाए?

शुतुरमुर्ग के बारे में तो सुना है ना आपने!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, दिनांक 10 मार्च, 2015 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.   

Tuesday, March 3, 2015

किताबें अब झांकती हैं फेसबुक की दीवारों से

गुलज़ार साहब की एक बहुत मशहूर नज़्म है – किताबें झांकती हैं बन्द अलमारी के शीशों से/ बड़ी हसरत से ताकती हैं, महीनों अब मुलाकातें नहीं होतीं.  किताबों के परिदृश्य में पिछले चन्द  बरसों में जो बदलाव आया है उसे देखते हुए मुझे यह नज़्म पुरानी लगने लगी है. बहुत पुरानी बात नहीं है जब मेरी भाषा हिन्दी में सामान्यत: किताब का एक संस्करण ग्यारह सौ प्रतियों का होता था. तब जो मुद्रण तकनीक प्रचलित थी उसके लिहाज़ से भी शायद इतनी प्रतियों से कम छापना व्यावहारिक नहीं होता था. बहुत सारी किताबों की, जिनमें पाठ्य पुस्तकें और लुगदी साहित्य का ज़िक्र ख़ास तौर पर किया जा सकता है, इससे काफी ज़्यादा प्रतियां भी छपती  थीं. लोकप्रिय उपन्यासकार गुलशन नन्दा के एक उपन्यास ‘झील के उस पार’  की पांच लाख प्रतियों के छपने और बिकने की चर्चा काफी समय तक होती रही थी. और बात ऐसी भी नहीं है  कि सिर्फ लुगदी साहित्य ही बिकता रहा है. हिन्दी में ही तुलसी और प्रेमचन्द की बात तो छोड़िये, धर्मवीर भारती का ‘गुनाहों का देवता’, भगवतीचरण वर्मा का ‘चित्रलेखा’, श्रीलाल शुक्ल का ‘राग दरबारी’, शिवानी और नरेन्द्र कोहली के अनेक उपन्यास, दुष्यंत कुमार का ग़ज़ल  संग्रह ‘साये में धूप’  उन बहुत सारी किताबों में से कुछ हैं जो खूब बिकी हैं और अब भी बिकती हैं. संस्करण, और पुनर्मुद्रण की इस चर्चा को आगे बढ़ाने से पहले इस बात का ज़िक्र भी करता चलूं कि विदेशी हैरी पॉटर वगैरह को तो छोड़िये, हमारे अपने मुल्क के लोकप्रिय कथाकार चेतन भगत के हालिया प्रकाशित उपन्यास ‘हाफ़ गर्लफ्रैण्ड’ की बीस लाख प्रतियों के पहली खेप में और एक  साल में इससे दस लाख और प्रतियों के बिकने की चर्चाएं खूब हो चुकी हैं. और यह बात तब जब हम यह कहते नहीं थकते हैं कि अंग्रेज़ी इस देश के मात्र दो प्रतिशत की भाषा है. 

लेकिन इन्हीं तमाम बातों  के बरक्स यह एक त्रासद सच्चाई है कि हिन्दी की आम किताब  का संस्करण अब ग्यारह सौ प्रतियों से सिकुड़ते-सिकुड़ते तीन सौ, बल्कि उससे भी कम तक आन पहुंचा है. और यह कहते हुए मैं उस नए प्रिण्ट ऑन डिमाण्ड नामक फिनोमिना की बात नहीं कर रहा हूं जिसमें संख्या की कोई बात रह ही नहीं गई है:  अगर आपको एक प्रति चाहिये तो एक छाप कर दे दी जाती है. बेशक यह बात मुमकिन हुई  है नई मुद्रण तकनीकी की वजह से जहां पुस्तक के पाठ को कम्पोज़ करके कम्प्यूटर में सेव करना और यथावश्यकता प्रतियां मुद्रित कर लेना सम्भव हो गया है. अब भला क्यों कोई प्रकाशक ज़्यादा प्रतियां छापने में अपने कागज़, लागत तथा गोदाम की स्पेस को ब्लॉक करे? और इसी स्थिति ने हिन्दी में एक नई प्रजाति को पनपाया है. उस नई प्रजाति ने अपना नाम तो अभी पुराने वाला  ही रखा है – प्रकाशक, लेकिन असल में काम वह मुद्रक का करता है. जैसे पहले आप किसी प्रिण्टर के पास जाकर अपनी बिल बुक, शादी या मौत मरण का कार्ड छपवा लाते थे, वैसे ही अब इस नए प्रकाशक के पास जायें, और पैसे देकर अपने लिखे को छपवा लें. उसे इस बात से कोई मतलब नहीं है कि आप कैसा, क्या और क्यों छपवा रहे हैं? आपने पैसे दिये, उसने छाप दिया. बेचने की परवाह भी उसे नहीं करनी है. इसलिए वो ज़्यादा प्रतियां भी नहीं छापता  है. उतनी ही  छापता  है जितनी छापने  के आपने पैसे दिये हैं. दस-बीस प्रतियां अपने पास रखकर शेष सारी वो आपको दे देता है. और आपके पास भी  उन्हें बेचने का कोई तंत्र तो है नहीं, सो कुछ प्रतियां आप दोस्तों, रिश्तेदारों को सप्रेम  भेंट करते हैं, कुछ माननीय समीक्षकों को सादर ‘समीक्षार्थ’ प्रेषित करते हैं और बस हो जाते हैं साहिबे दीवान! अरे, यह सब कहते हुए मैं एक ख़ास बात तो भूल ही गया. किताब छपवा लेने के बाद दो ज़रूरी काम आप सबसे पहले करते हैं. पहला तो यह कि फेसबुक और ट्विट्टर जैसे सोशल मीडिया पर उस किताब की खबर प्रसारित  कर ‘सबको मालूम है सबको खबर हो गई’ का माहौल बनाते हैं और फिर उसके लोकार्पण का जुगाड़ बिठाते हैं. लोकार्पण चाहे जैसा और चाहे जिस स्तर का हो, उसकी सचित्र खबर भी इन माध्यमों पर एकाधिक बार प्रसारित करना आप नहीं भूलते. अनेक लोकार्पण तो इतने हास्यास्पद होते हैं कि कुछ पूछिये मत. लेकिन वह ज़िक्र फिर कभी.  आपकी किताब चाहे किसी लाइब्रेरी और किसी पाठक तक न भी पहुंचे, फेसबुक आदि की दीवार से उसकी छवि ज़रूर नुमायां होती रहती है, और इसीलिए मुझे लगता है कि मैं गुलज़ार साहब की इस  नज़्म को संशोधित करके कहूं – किताबें झांकती हैं फेसबुक की दीवारों से.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 03 मार्च, 2015 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.