Tuesday, February 24, 2015

विवाह, विदाई और वर-वधू

कोई पांचेक साल बाद फिर अहमदाबाद जाने का सुयोग जुटा. पिछली बार गया था तो साबरमती आश्रम के माहौल और अदालज री बाव की सुखद स्मृतियां बहुत दिनों तक मन प्राण को मुदित करती रही थीं. इस बार अमदावाद नी गुफा, जिसे हुसैन दोषी गुफा के नाम से भी जाना जाता है,  सूची में सर्पोपरि थी. जाने की वजह इस बार भी वही थी:  एक विवाह समारोह में सहभागिता. हम मध्यमवर्गीय लोगों के जीवन में अधिकांश यात्रा प्रसंग तो इन्हीं सामाजिक वजहों से आते हैं. याद आया कि पिछली बार की यात्रा में वरमाला के बाद वर-वधू को ‘आशीर्वाद’ यानि लिफाफा  देने और फोटो खिंचवाने के लोग किस तरह पंक्तिबद्ध अपनी बारी की शालीन प्रतीक्षा कर रहे थे! जब एक जन फोटो वगैरह खिंचवा कर हटता तभी दूसरा आगे जाता. मेरे लिए यह दृश्य विलक्षण और परम आनंदपूर्ण था. इस बार फिर इसी दृश्य को देख कर मुदित होने का आकांक्षी था. परिवार और आयोजन स्थल वही थे  अत: स्वाभाविक है कि अतिथि समुदाय भी कमोबेश वही था. लेकिन मेरे सुख की पुनरावृत्ति नहीं हुई. आप कुछ और समझें उससे पहले ही स्पष्ट कर दूं कि होस्ट परिवार ने वैसी कोई व्यवस्था रखी ही नहीं. और एक तरह से तो अच्छा ही हुआ. मैं तो हर शादी में जाकर बेचारे वर-वधू के बारे में सोच कर दुखी होता हूं कि इतने सारे मेहमानों के साथ फोटो खिंचवा कर स्माइल देते-देते वे कितने पस्त हो जाते  होंगे! असल में शादी का यह फोटो सेशन एक ऐसी बेकार की रिवायत है जिससे जितनी जल्दी छुटकारा पा सकें, पा लिया जाना चाहिये. न घर वाले कभी उन तस्वीरों को देखते होंगे न मेहमानों को कभी वे तस्वीरें देखने को मिलती होंगी! फिर इतनी ज़हमत किस लिए?

इस विवाह का एक दृश्य मुझे बहुत लम्बे समय तक याद रहेगा. हम लोग विवाह में वधू पक्ष की तरफ से सम्मिलित थे. अंतरजातीय विवाह था. वर और वधू दोनों पक्षों ने सहज स्वाभाविक उल्लास से इस रिश्ते को स्वीकार किया और पूरे मन से विवाह समारोह का आयोजन किया. विवाह की रस्में दोनों समाजों की प्रथानुसार सम्पन्न की गईं. दृश्य यह था. वर वधू मंच पर खड़े थे. वधू की मां ने कन्यादान की रस्म पूरी की और मंच से नीचे उतरते उतरते उनकी रुलाई बहुत ज़ोर से फूट पड़ी. उन्हें यह लगा होगा कि बस, अब इस क्षण से मेरी बेटी ‘पराई’ हो गई. इस प्रतीति पर भला कौन होगा जो द्रवित होने से खुद को रोक सके. बहुत स्वाभाविक था यह. लेकिन तभी मेरी नज़र दुल्हन की तरफ चली गई. और मुझे यह देखकर अत्यधिक अचरज हुआ कि वह  इस भाव प्रवाह से एकदम अछूती, अपने अनुराग में मुदित-मगन थीं. जी, आप ग़लत न समझें. यह लिखते हुए मेरे मन में उस युवती  के प्रति किसी भी तरह की शिकायत  का कोई भाव नहीं है. यह एक छवि भर है.

असल में, इस दृश्य के बारे में लिखने की ज़रूरत मुझे इसलिए महसूस हुई कि इसने दो एक महीने पहले सम्पन्न एक और विवाह की याद मेरे मन में ताज़ा कर दी. उस विवाह में हम लोग वर पक्ष की ओर से सम्मिलित थे. वह विवाह भी हमारे बाद वाली पीढ़ी की संतति का ही था, और प्रेम  विवाह ही था जो दोनों पक्षों के अभिभावकों की आनंदपूर्ण सम्मति से सम्पन्न हुआ था. उस विवाह के बाद वर या वधू किसी ने फेस बुक पर जो बहुत सारी तस्वीरें पोस्ट की थीं उनमें से एक तस्वीर और उस पर आई हुई बहुत सारी मज़ेदार प्रतिक्रियाओं की स्मृति ने मुझे इस दृश्य के बारे में लिखने को प्रेरित किया. वह तस्वीर विदाई के क्षणों  की थी जिसमें वधू के साथ-साथ वर भी लगभग रुदन मुद्रा में था. इसी बात को लेकर वर-वधू के मित्रों ने अपनी प्रतिक्रियाओं में वर की मैत्रीपूर्ण खिंचाई की थी. हम सब जानते हैं कि रोना बहुत संक्रामक होता है. अगर आपके पास कोई रोने लगे तो आप अपने को भी वैसा ही करने से रोक नहीं पाते हैं. तो उस समय जब दुल्हन अपने मां-बाप से विदा लेते हुए रोने लगी होगी तो उसके वियोग भाव से दूल्हा भी अप्रभावित नहीं रहा होगा और उसी क्षण को फोटोग्राफर ने कैद कर लिया था. लेकिन हमारे यहां इस बात को कोई कैसे स्वीकार कर ले कि जब दुल्हन विदा हो रही  है तो दूल्हा भी रुंआसा हो जाए! तो ये थी विवाहों की दो छवियां. और हां, बात तो मैंने अमदावाद नी गुफा के ज़िक्र से शुरु की थी. गूगल कर चुकने के बाद भी हम यह न जान पाए थे कि उसे शाम चार बजे से पहले नहीं देख सकते, इसलिए भरी दोपहर वहां जाकर भी उसे देखे बिना लौटना पड़ा. यानि अहमदाबाद एक बार  और जाने का  कम से कम एक आकर्षण  तो मन में है ही!

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत 24 फरवरी, 2015 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.   

Tuesday, February 17, 2015

जैसी दुनिया इधर है वैसी ही उधर भी है


इधर हाल ही में दूरस्थ देश हंगरी की एक ख़बर पढ़ी तो बड़े कष्ट के साथ यह अनुभूति हुए बग़ैर नहीं रही कि कुछ मामलों में दुनिया एक-सी है. पहले ख़बर तो बता दूं आपको. हंगरी के शहर माको में एक व्यवस्था है कि साल के पहले जन्मे बच्चे को मेयर द्वारा ढाई सौ पाउण्ड की राशि प्रदान की जाती है. इस साल इस राशि का हक़दार बना रिकार्डो रैक्ज़ नामक बच्चा, और उसके मां-बाप के साथ उसकी तस्वीर वहां के अखबारों में छपी. यहां तक तो सब ठीक था. इस तस्वीर के छपने के बाद हंगरी की दक्षिणपंथी जोब्बिक पार्टी के उपनेता इलोड नोवाक ने अपने फेसबुक पन्ने पर इस नवजात और इसकी मां की तस्वीर इस सूचना के साथ लगाई कि यह बालक  23 वर्षीया जिप्सी मां की तीसरी संतान है. उन्होंने यह भी लिखा कि “हंगरी मूल के लोगों की आबादी दिन पर दिन कम होती जा रही है और बहुत जल्दी हम अपने ही देश में अल्पसंख्यक  बन जाएंगे. फिर एक दिन ऐसा आएगा जब वे हंगरी का नाम बदलने का फैसला लेंगे. उस वक़्त हम देश की सबसे बड़ी समस्या  से रू-ब-रू होंगे.” और यहीं आपको यह भी बता दूं कि इस जोब्बिक पार्टी के  समर्थक जिप्सियों के लिए अक्सर यह कहते हैं कि “ये चूहों और परजीवियों की तरह पैदा होते हैं.” इलोड नोवाक के इस वक्तव्य पर खूब  प्रतिक्रियाएं हुईं. आशा है कि आपको अब तक यह बात तो स्पष्ट हो ही गई होगी कि क्यूं इस प्रसंग से मुझे अपने देश की कष्टप्रद अनुभूति हुई. इस बात को और आगे बढाऊं उससे पहले क्यों न मशहूर शायरा फहमीदा रियाज़ की एक लोकप्रिय नज़्म की कुछ पंक्तियां आपको सुनाता चलूं? वे लिखती हैं:

तुम बिल्कुल हम जैसे निकले
अब तक कहाँ छिपे थे भाई
वो मूरखता, वो घामड़पन
जिसमें हमने सदी गंवाई
आखिर पहुँची द्वार तुम्हारे 
अरे बधाई, बहुत बधाई।

इसी नज़्म के एक अन्य बंद में वे कहती हैं:

कौन है हिंदू, कौन नहीं है
तुम भी करोगे फ़तवे जारी
होगा कठिन वहाँ भी जीना
दाँतों आ जाएगा पसीना
जैसी तैसी कटा करेगी
वहाँ भी सब की साँस घुटेगी

यानि क्या भारत, क्या इसके पड़ोसी मुल्क और क्या अन्य देश – सबके हाल एक जैसे हैं. चलिये फिर से हंगरी वाले प्रसंग पर लौट जाएं!

इस पूरे प्रसंग का मानवीय पक्ष उभरता है इस बालक रिकार्डो के मां-बाप सिल्विया और पीटर के वक्तव्यों से. पीटर का परिवार मोका शहर के किनारे बसे एक छोटे-से गांव में रहता है और वहां का एकमात्र रोमा (जिप्सी) परिवार है. पीटर सामुदायिक काम करते हैं और ट्रैक्टर तथा  हार्वेस्टर चलाना सीख रहे हैं. उनकी दोनों बेटियां अभी किण्डरगार्टेन  में हैं. पीटर एक ऐसी सुकूनभरी ज़िन्दगी के आकांक्षी हैं जिसमें मीडिया और राजनीति का कोई दखल न हो. उनका कहना है कि हमें, यानि जिप्सियों और हंगेरियनों को,  सिर्फ चमड़ी के रंग के आधार पर अलग किया जाता है जबकि हमारे दिल, खून और हमारी आत्मा सब एक हैं. पीटर और सिल्विया दोनों ही बार-बार यह बात कहते हैं कि हो सकता है हंगरी में कोई नस्लवाद हो, लेकिन उन्होंने इससे पहले कभी उसका अनुभव नहीं किया. “हम इस शहर में रहना पसन्द करते हैं. यहां सभी हमारे प्रति बहुत दयालु हैं.”  लेकिन असल मार्के की बात कही सिल्विया ने. उनके एक-एक शब्द से उनकी पीड़ा व्यक्त होती है. उन्होंने कहा, “लोगों को उनके जन्म के वक़्त से ही निशाना नहीं बनाना  चाहिए. मेरा बच्चा जब 18 साल का हो जाएगा तो वह यह फ़ैसला लेगा कि उसे रोमा के रूप में पहचाना जाए या नहीं. इसमें उसकी क्या ग़लती अगर वो पिछले साल के आखिरी दिन मध्यरात्रि  के कुछ लमहों के बाद इस दुनिया  में आया.”

यह बात बहुत विडम्बनापूर्ण लगती है कि जिसे आपने नहीं चुना है, जैसे अपना जन्म, उससे  जुड़ी तमाम बातें बिना आपकी सम्मति के आप पर लाद दी जाएं! इस बालक रिकार्डो रैक्ज़ ने यह चुनाव नहीं किया है कि वो रोमा है या हंगेरियन, लेकिन इलोड नोवाक महोदय उसे रोमा होने का दण्ड देने के लिए ज़रा भी इंतज़ार नहीं करना चाहते. इसी सन्दर्भ में अपने  सुधि पाठकों को याद दिला दूं कि हिन्दी में बनी कम से कम दो फिल्में तो मुझे तुरंत याद आ रही  हैं जो इस तरह की विडम्बनापूर्ण स्थितियों को सामने लाती हैं. एक है आचार्य चतुरसेन शास्त्री के इसी नाम के उपन्यास पर 1961 में यश चोपड़ा द्वारा बनाई गई ‘धर्मपुत्र’ और दूसरी भावना तलवार निर्देशित 2007 में रिलीज़ हुई ‘धर्म’. फिलहाल हम तो यही आशा कर सकते हैं कि जब हंगरी का यह बालक रिकार्डो बड़ा होगा  तो उसे आज से बेहतर दुनिया मिलेगी.
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जयपुर से प्रकाशित  लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत इसी शीर्षक से आज 17 फरवरी, 2015 को प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.

Tuesday, February 10, 2015

जो नापसन्द उसके भी हक़ में खड़ा हूं मैं

कॉमेडी के भी अनेक रूप हैं और उन रूपों  में से एक है रोस्टिंग. बताया जाता है कि इसकी शुरुआत 1949 में न्यूयॉर्क में हुई और फिर यह कॉमेडी रूप पूरी दुनिया में प्रचलन में आ गया. रोस्टिंग का अर्थ है भूनना, और इस कॉमेडी रूप में किसी जाने-माने व्यक्ति के साथ बतौर कॉमेडी यही सुलूक किया जाता है. मैं यहां रोस्टिंग का ज़िक्र वर्ली, मुम्बई में हाल ही में हुए एक बहुचर्चित कार्यक्रम के सम्बन्ध में कर रहा हूं. देश के एक जाने-माने स्टैण्डअप कॉमेडियन समूह जिसका पूरा नाम लिखने में मुझे संकोच हो रहा है, ने ए आई बी रोस्ट नाम से एक चैरिटी कार्यक्रम का आयोजन किया जिसमें दो फिल्म स्टारों अर्जुन कपूर और रणवीर सिंह को रोस्ट किया गया. मास्टर  शेफ की भूमिका निबाही करण जोहर ने और उनका साथ दिया इस समूह ए आई बी की पूरी टीम ने, जिसमें एक महिला कॉमेडियन भी थीं. पता चला कि इस शो का टिकिट चार हज़ार रुपये का था और करीब चार हज़ार दर्शकों ने इस शो को लाइव देखा.

जैसा कि यह समूह हमेशा करता है, शो के बाद इसने शो की रिकॉर्डिंग यू ट्यूब पर अपने चैनल पर पोस्ट कर दी. और बस वहीं से हंगामे की शुरुआत हो गई. सोशल मीडिया पर तो इस कार्यक्रम को लेकर गरमा गरम बहसें हुई ही, कुछ लोग अदालत तक भी जा पहुंचे. कुछ की धार्मिक भावनाएं आहत हुईं तो कुछ को इस कार्यक्रम की विषय वस्तु और भाषा शैली पर गम्भीर आपत्तियां थीं. जब बात निकली तो उसे दूर तक जाना ही था. वह अभिव्यक्ति की आज़ादी के जाने-पहचाने मुकाम तक भी जा पहुंची.

इस कार्यक्रम में ऊपर उल्लिखित दो कलाकारों का जी भर कर मखौल उड़ाया गया, बल्कि कहें उनकी ऐसी-तैसी की गई. न केवल उनके साथ ऐसा किया गया, वहां उपस्थित अनेक फिल्मी सितारों के साथ भी यही सुलूक किया गया. मंच पर मौज़ूद इस कॉमेडी ग्रुप के सदस्यों ने जहां औरों के साथ भरपूर बदतमीज़ी की, उन्होंने खुद पर भी कोई रहम नहीं किया. यानि कुछ-कुछ होली का-सा माहौल रहा वहां कि जो भी सामने आए उसे रंग दो. रंग नहीं तो कीचड़ ही सही. वहां न स्त्री-पुरुष का कोई लिहाज़ था, न भाषा का कोई संयम. आप जितनी खुली, नंगी और अशालीन भाषा की कल्पना कर सकते हैं उससे भी ज़्यादा निर्वसन और आहत करने वाली भाषा वहां थी.

लेकिन इसके बावज़ूद, अगर यू ट्यूब वाले उस वीडियो को, जिसे आपत्तियों के बाद अब हटा लिया गया है, प्रमाण मानें, तो वहां उपस्थित सभी लोगों ने इसका  भरपूर मज़ा लिया. जिन्हें रोस्ट किया गया वे तो इतना ज़्यादा उछल रहे थे कि लग रहा था यह उनके जीवन का सर्वश्रेष्ठ अवसर  है. हो सकता है उन्हें यही करने के लिए पैसे दिये गए हों! लेकिन वहां मौज़ूद दर्शक? वे भी तो भरपूर लुत्फ ले रहे थे!

और यहीं से मैं भी उलझन में पड़ जाता हूं. मैं बहुत दूर तक अभिव्यक्ति की आज़ादी का समर्थक हूं. वहां तक जहां कि वह किसी और की आज़ादी का अतिक्रमण न करे. इन चार हज़ार लोगों को इस रोस्टिंग से कोई आपत्ति नहीं थी. बल्कि उन्होंने इसका खूब आनंद लिया. और ये कोई मासूम बच्चे नहीं थे. कार्यक्रम सार्वजनिक न होकर केवल उनके लिये था जो जानते हैं कि उसकी विषय वस्तु क्या है. यू ट्यूब पर जो वीडियो पोस्ट किया गया उसके प्रारम्भ में ही बहुत स्पष्टता से बाद की विषय वस्तु की सूचना देते हुए दर्शकों को सावचेत कर दिया गया था. ये ही बातें हैं जो मुझे उलझन में डाल रही हैं.

बेशक, मुझे इस कार्यक्रम की विषय वस्तु और भाषा आदि तनिक भी पसन्द नहीं आए. बल्कि मैंने आहत ही महसूस किया. लेकिन किसी ने मुझे बाध्य तो नहीं किया कि मैं उसे देखूं. बल्कि किसी ने निमंत्रित भी नहीं किया. मेरी मर्जी थी कि मैंने उसे देखा. जीवन में बहुत सारी चीज़ें होती हैं,  मसलन कोई फिल्म, कोई किताब, कोई गाना, कोई तस्वीर, कोई फल, कोई सब्ज़ी, कोई नेता, कोई अभिनेता - जिन्हें मैं देखता हूं और पसन्द नहीं कर पाता हूं, लेकिन क्या मैं उन पर रोक लगाने की मांग करता हूं? बहुत मुमकिन है कि जो मुझे पसन्द न आए उसे भी बहुत सारे लोग पसन्द करते हों!

हम यह देख रहे हैं कि असहिष्णुता तेज़ी से पैर पसार रही है. जो बात हमें पसन्द नहीं उसे हम समूल नष्ट कर देना चाहते हैं – यह भूलकर कि किसी को वो पसन्द भी हो सकती है. ऐसे में क्या एक बार फिर उस वाल्तेयर को याद नहीं किया जाना चाहिए जिसने कहा था कि “हो सकता है मैं आपके विचारों से सहमत न हो पाऊं फिर भी विचार प्रकट करने के आपके अधिकार की रक्षा करूंगा.” 

आप क्या सोचते हैं?

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़  टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार दिनांक 10 फरवरी 2015 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.  

Tuesday, February 3, 2015

वो कहते हैं ना कि हर चीज़ को देखने के दो नज़रिये होते हैं -   गिलास आधा खाली है, या गिलास आधा भरा हुआ है, तो जहां बहुत सारे मित्र इस बात से बहुत व्यथित हैं कि आज राजनीति में अभिव्यक्ति का स्तर बहुत गिर गया है और बड़े नेता भी बहुत छोटी बातें करने लगे हैं, मैं इस बात को इस तरह देख कर प्रसन्न हूं कि आज राजनीति के हवाले से भाषा और शब्दों पर भी गम्भीर विमर्श होने लगा है. लोग बहुत भावुकता के साथ उन दिनों को याद करते हैं जब बड़े नेता बड़े रचनाकार भी होते थे, गांधी, नेहरु राजेन्द्रप्रसाद आदि ने न केवल आत्मकथाएं लिखीं, साहित्यिक समुदाय ने भी उन आत्मकथाओं को हाथों-हाथ लिया. उस ज़माने के बहुत सारे राजनेता ऐसे थे जिनके साहित्य की दुनिया के बड़े हस्ताक्षरों से आत्मीय और अंतरंग रिश्ते थे. इनमें राममनोहर लोहिया का नाम बहुत ज़्यादा स्मरण किया जाता है. बहुत सारे राजनेताओं ने अपनी-अपनी तरह से साहित्य सृजन भी किया और साहित्यिक बिरादरी ने अगर लम्बा समय बीत जाने के बाद भी उन्हें याद रखा हुआ है तो माना जाना चाहिए कि उस सृजन में साहित्य भी रहा होगा, वर्ना जब आप कुर्सी पर होते हैं तो आपकी यशोगाथा गाने वाले आपको शून्य से शिखर पर पहुंचा कर भी दम नहीं लेते हैं, लेकिन आपके भूतपूर्व होते ही सारा मजमा उखड़ जाया करता है.


लेकिन मैं बात कुछ और कर रहा था. इधर हममें से बहुतों को लगता है कि हमारे बड़े (और छोटे भी) राजनेताओं को शायद अपनी तर्क क्षमता पर कम भरोसा रह गया है इसलिए वे फूहड़, अभद्र और अस्वीकार्य भाषिक अभिव्यक्ति का सहारा लेने को मज़बूर हो गए हैं. हममें से जो थोड़े बहुत भी पढ़े लिखे हैं वे अपने दैनिक जीवन में बहुत गुस्से की स्थिति में भी शायद कभी उस तरह की बातें नहीं करते हैं. आखिर शिक्षा आपको संस्कार तो देती ही है ना! वो आपको सलीके से बात कहने का कौशल भी सिखाती है. अगर आपको कभी भाषिक कौशल की बेहतरीन बानगियां देखने का मन करे तो मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास ‘कुरु कुरु स्वाहा’ को कहीं से भी पढ़ना शुरु कर दें. लेकिन इधर हमारे माननीय गण जिस तरह की  भाषा में अपनी बात कह रहे हैं वो एक तरफ़ और हममें से बहुत सारे उनकी कही बातों को जिस तरह समझ कर लाठियां या तलवारें भांजने में जुटे हैं वो दूसरी तरफ. बहुत बार तो वह हो जाता है जिसे फिल्म ‘प्यासा’  के उस गाने में मरहूम साहिर लुधियानवी साहब ने बखूबी  कह दिया था – जाने क्या तूने कही, जाने क्या मैंने सुनी! असल में हो यह रहा है कि कहने वाला चाहे जो कहे, हम वही सुन रहे हैं जो हम सुनना चाहते हैं. फिर बेचारा वो लाख कहे कि ‘मैंने ऐसा तो नहीं कहा था’, हम अपने कानों में रुई डाल लेते हैं. और इधर जब से हमारे समाज में सोशल मीडिया का प्रचलन बढ़ा है स्थितियां और विकट होती जा रही हैं. अखबार तो चौबीस घण्टे में एक बार ही निकलता है, रेडियो दूरदर्शन पर बहुत संयम बरता जाता है, लेकिन यह जो नया औज़ार हमारे हाथों में आ गया है, बहुत बार लगता है जैसे वो  कहावत सही सबित हो गई है! कौन-सी? अरे भाई वही...आप समझ लीजिए ना. अगर मैं लिखूंगा तो पता नहीं किस-किस की भावनाएं आहत हो जाएं! इशारा कर देता हूं. वो कहावत जिसमें   किसी प्राणी के हाथ में दाढ़ी बनाने का औज़ार आ जाने वाली बात कही गई है. बेसब्री इतनी अधिक है कि पूरी बात पढ़े-सुने या समझे बिना ही वीर जन मैदान में कूद पड़ते हैं.

और शायद इसी बेसब्री का एक परिणाम यह भी हो रहा है कि जो बात एक बार कह दी जाती है, वही बार-बार गूंजती रहती है. जैसे किसी ने एक बार कह दिया कि पत्रकारों को तटस्थ होना चाहिए, तो बस जिसकी बात हमें पसन्द न आई उसपर हमने फौरन तटस्थ न होने का इल्ज़ाम मढ़ दिया. कोई यह सुनना या सोचना नहीं चाहता कि अखिर इस तटस्थ शब्द का सही अर्थ क्या है! तट पर स्थित. यानि जो धार में न हो, किनारे पर हो. यानि जो किसी एक का पक्ष न ले! अब, ज़रा एक बात सोचिये! क्या आप एक अपराधी और उसे दण्डित करने वाले में से किसी एक को नहीं चुनेंगे और तटस्थ रहेंगे? और यह भी याद रखिये कि ज़िन्दगी हमेशा स्याह और सफेद ही नहीं होती है. उसके और भी अनेक रंग होते हैं. तब आप अपने विवेक से ही चुनाव करते हैं. राष्ट्रकवि दिनकर ने क्या  खूब कहा है:

समर शेष है,  नहीं पाप का  भागी केवल व्याघ्र,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।

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लोकप्रिय अपराह्न  दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, दिनांक 03 फरवरी, 2015 को असम्बद्ध  भाषा, राजनीति और हम लोग शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.