अपने लगभग पौने चार दशकों में फैले सेवा
काल में मुझे बहुत सारे जन प्रतिनिधियों के सम्पर्क में आने का अवसर मिला. 1967 से
शुरु हुए मेरे सेवाकाल के प्रारम्भ में न तो मेरे काम की प्रकृति इस बात की ज़रूरत
पैदा करती थी कि किसी जन प्रतिनिधि से सम्पर्क करना पड़े और न राज्य कर्मचारियों की
आचार संहिता इस बात की अनुमति देती थी कि हम उनसे सम्पर्क साधें. बहुत लम्बे समय
तक तबादलों वगैरह के लिए जन प्रतिनिधियों या राजनीतिक दलों से सम्पर्क करना
निषिद्ध था. लेकिन धीरे-धीरे हालात बदले और आज स्थिति यह है कि बिना जन
प्रतिनिधिगण की ‘डिज़ायर’ के किसी तबादले की कल्पना ही नहीं की जा सकती.
अपनी नौकरी के उत्तर काल में, जब मैं
शिक्षक से पदोन्नत होकर अधिकारी बना तो जन प्रतिनिधिगण से सम्पर्क के अवसर भी बढ़े.
लेकिन इनके साथ सम्पर्क के मेरे अनुभव बहुत अच्छे रहे. मैं अब भी कृतज्ञतापूर्वक
इस बात को स्मरण करता हूं कि जब मैं एक कॉलेज का प्राचार्य था तो स्थानीय विधायक
प्राय: मुझे किसी न किसी के प्रवेश की अनुशंसा में फोन करती थीं. लेकिन उनकी भाषा
आदेशात्मक न होकर अनुरोधात्मक होती थी:
‘देखिये, अगर ऐसा हो सके...’. एक दिन जब किसी सामाजिक आयोजन में उनसे
मुलाकात हुई तो मैंने उनसे कहा कि हमारे यहां प्रवेश के नियम इतने सख़्त हैं कि
प्राचार्य अपने स्तर पर कुछ भी नहीं कर सकता है. वे बोलीं, “मैं इस बात को जानती
हूं. लेकिन क्या करें! हम जन प्रतिनिधियों को भी तो अपने समर्थकों के सामने अपनी
छवि बनाये रखनी पड़ती है. इसीलिए मैं आपको फोन करती हूं. लेकिन आप तनिक भी फिक्र न
करें, और जो आपके नियमानुसार सम्भव हो वो ही करें.”
जिस कॉलेज का यह प्रसंग है, उसी नगर के एक
अन्य कॉलेज में पदोन्नत होकर जब मैं प्राचार्य के रूप में पहुंचा तो दूसरे तीसरे
दिन किसी काम से स्थानीय विधायक को फोन करना पड़ा. वे छूटते ही बोले कि “देखिये आप
मेरी इच्छा के विरुद्ध इस कॉलेज में आ तो गए हैं, लेकिन मैं आपको यहां रहने नहीं
दूंगा.” उनके इस कोप की पृष्ठभूमि यह थी कि जब मैंने उनसे उस कॉलेज में पदस्थापित
होने की अपनी इच्छा ज़ाहिर की थी तो उन्होंने यह कहते हुए अपनी असमर्थता व्यक्त की
थी कि वे पहले से किसी और से वचनबद्ध हो चुके हैं. लेकिन मैंने फिर भी प्रयास किये
और संयोग से मैं अपने प्रयासों में कामयाब भी हो गया. अपने कोप को उन्होंने बहुत
जल्दी साकार भी कर दिया, लेकिन हम दोनों की
पारस्परिक सद्भावना को कोई आंच नहीं आई और इस प्रसंग के लगभग पन्द्रह बरस बाद भी
हमारे रिश्ते जस के तस हैं.
राज्य की राजधानी में उच्च प्रशासनिक पद
पर रहते हुए तीन बरसों में तो शायद ही कोई
दिन ऐसा बीता हो जब किसी जन प्रतिनिधि से भेंट न हुई हो. विभागीय मंत्रीगण
से तो खैर दिन में एकाधिक बार भी सम्पर्क होता रहा, और कभी कोई बदमज़गी नहीं हुई, हालांकि
बहुत बार उनकी इच्छा के अनुरूप काम न करने की विवशता भी रही. जन प्रतिनिधिगण मेरे
ऑफिस में आते या फोन करते, सामान्य शिष्टाचार का निर्वाह होता, और बस. वे अपना काम
लेकर आते और हम यथानियम काम करते या नहीं भी कर पाते. बल्कि सच तो यह है कि सामान्य और हो जाने वाले
काम के लिए तो शायद ही कोई आता. वे आते ही ऐसे कामों के लिए जो किसी न किसी वजह से
नहीं हो पाते, और उनके आने या कहने के बाद भी नहीं ही होते. लेकिन मज़ाल है जो
किसी ने कभी ऊंची आवाज़ में भी बात की हो. हां, इतना ज़रूर कि अगर उनका काम न
होने योग्य होता तो मैं स्पष्ट रूप से अपनी मज़बूरी बता देने में कोई संकोच नहीं
करता.
पीछे मुड़ कर देखता हूं तो बस एक प्रसंग
याद आता है जब किसी जन प्रतिनिधि ने मेरे साथ नाराज़गी भरा बर्ताव किया. इतना लम्बा
अर्सा बीत गया है लेकिन वो मंज़र अभी भी मेरी यादों में सजीव है. मैं अपने ट्रांसफर
के लिए स्थानीय विधायक के पास जयपुर आया था. हम लोग सचिवालय में मिले, जो करणीय था
वह किया गया और मैं उनके साथ ऑटो में सर्किट
हाउस –जहां वे ठहरे थे- लौटा. जैसे
ही हम उतरने को हुए, मैंने ऑटोवाले को पैसे देने के लिए जेब में हाथ डाला. विधायक
जी ने फौरन मेरा हाथ पकड़ा और गुस्से से बोले, “उतर जाइये आप. चले जाइये.” मुझे समझ
में नहीं आया कि क्या ग़लती हो गई? बोले, “आप पैसे क्यों देंगे?” ओह! तो यह बात थी! मैंने क्षमा याचना की. उन्होंने
पैसे चुकाये, अपने कमरे में मुझे लेकर गये, चाय पिलाई और प्यार से विदा किया.
क्या इतनी जल्दी हालात इतने बिगड़ गये हैं?
या फिर कुछ मछलियों की वजह से पूरा तालाब बदनाम हो रहा है?
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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 23 दिसम्बर, 2014 को हालात बिगड़े या कुछ की वजह से माहौल खराब हुआ शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.