Tuesday, November 25, 2014

भारत में आकर बदल गया फास्ट फूड

दुनिया की और उसमें भी अमरीका की और भारत की खान-पान संस्कृतियों में सबसे बड़ा अंतर मुझे एकरूपता बनाम निजी विशेषताओं का लगता है.  जहां अमरीकी खान-पान पद्धति में सारा ज़ोर मानकीकरण और एकरूपता पर है भारत में मामला इसका उलट है. हर अमरीकी फास्ट फूड चेन भरसक यह कोशिश करती है कि दुनिया भर में उसके उत्पादों का स्वाद और उनकी प्रस्तुति एक-सी हो वहीं हमारे देश का हर छोटा से छोटा हलवाई अपने अलग स्वाद के लिए जाना जाता है. लेकिन इधर एक बड़ा चमत्कार यह हो रहा है कि भारत जैसे तीसरी दुनिया के देश अमरीका जैसी महाशक्ति के दैत्याकार फास्ट फूड निर्माताओं को बदलने पर मज़बूर कर रहे हैं. और ऐसा केवल खान-पान के मामले में ही नहीं हो रहा है.  अन्य कई मामलों में भी हो रहा है. अपनी बात की शुरुआत एक इतर प्रसंग से करता हूं.

जब बरसों पहले रूपर्ट मर्डोक भारत में अपना स्टार चैनल लेकर आए तो उनके मन में विचार यह था कि चैनल की विषय वस्तु वही रहेगी, बस भाषा बदल जाएगी. और शुरुआत उन्होंने की  भी कुछ इसी अन्दाज़ में, लेकिन बहुत जल्दी उन्हें अपनी ग़लती का एहसास हो गया और आज हम स्टार टीवी के जिन चैनलों को देखते हैं उनकी विषय वस्तु पूरी तरह से भारतीय है. अब मैं लौटता हूं खान-पान वाली बात पर.

जब पहली दफा भारत में मैक्डोनल्ड ने अपने आउटलेट खोलने की योजना बनाई तो उनके मन में एक ही बात  थी, और वह यह कि उनके दुनिया भर में विख्यात बर्गर, जिनकी टिक्की बीफ़  की होती है, भारत में स्वीकार नहीं किए जाएंगे, इसलिए बर्गर वही रहे, बस उनमें टिक्की बीफ़ की बजाय मटन की कर दी जाए, और उसका नाम भी थोड़ा-सा बदल कर महाराजा  मैक कर दिया जाए. मैक्डोनल्ड को यह सलाह दी अमित जटिया ने. बहुत मज़ेदार बात यह कि अमित जटिया खुद शाकाहारी हैं  और उन्होंने इस मुख्यत: ग़ैर शाकाहारी उत्पाद में निवेश किया. अमित ने मैक्डोनल्ड वालों को पूर्णत: शाकाहारी बर्गर के लिए भी मनाया, क्योंकि उनका विश्वास था कि आधे भारतीय शाकाहारी हैं और उनकी परवाह किए बग़ैर कोई फास्ट फूड चेन कामयाब नहीं हो सकती. और अमित की पहल पर भारत में मैक्डोनल्ड ने आलू टिक्की बर्गर पेश किया और उसका मूल्य रखा गया मात्र बीस रुपये. असल में यह भारतीय मसालों के स्वाद वाला पिसे आलू और मटर के कटलेट वाला बर्गर था और इसे अपने आप में पूरे खाने के रूप में पेश किया गया था. वैसे यह भारत में सड़क के किनारे मिलने वाले उत्पादों का ही थोड़ा परिष्कृत संस्करण था, लेकिन कम कीमत पर एक अंतर्राष्ट्रीय पहचान वाले उत्पाद को भारतीय रंग में रंग कर बेचने का यह फार्मूला काम कर गया. एक बड़े बाज़ार को मद्दे नज़र रखकर एक बहुत बड़ी भोजन श्रंखला ने अपने उत्पादों को भारतीय रंग में रंग डाला.

और इसका लाभ भी उन्हें खूब मिला. यहीं यह बात बताना भी बहुत ज़रूरी लगता है कि जहां ज़्यादातर पश्चिमी देशों में कोई  भी ढंग का आदमी मैक्डोनल्ड या केएफसी जैसे फास्ट फूड ठिकानों पर जाना पसन्द नहीं करता, क्योंकि इन्हें सड़क छाप उत्पाद माना जाता है और यह माना जाता है कि केवल नीचे तबके के लोग ही इनके  उपभोक्ता हैं, वहीं भारत में ये उत्पाद  स्टेट्स सिम्बल के रूप में स्थापित हो गए हैं. स्कूल कॉलेजों के हाई फाई किशोर अगर मैक्डी में जाना गर्व की बात मानते हैं तो मध्य वर्ग के लोग अपने बच्चों के देखने दिखाने के लिए भी इन  जगहों को उपयुक्त मानते हैं.

भारत में इन फास्ट फूड श्रंखलाओं ने लोगों की और विशेष रूप से युवा पीढ़ी की खान-पान की आदतों में बहुत तेज़ी से बदलाव किया है. भले ही सेहत की परवाह करने वाले लोग और सजग मां-बाप इन उत्पादों के दुष्प्रभावों का कितना ही  रोना रोएं, युवा पीढ़ी इनसे कुछ इस तरह से जुड़ गई है कि वो किसी भी तरह की दूरी कायम करने को तैयार नहीं है.

और शायद यही वजह है कि एक के बाद एक अनेक विदेशी फास्ट फूड श्रंखलाएं  भारत को अपना अगला मुकाम बना चुकी हैं या बनाने की तैयारी में हैं. इन विदेशी श्रंखलाओं के भारत में आने का एक और रोचक परिणाम यह हुआ है कि पढ़े लिखे तबके के बहुत सारे युवा, जो शायद अन्यथा किसी भोजनालय में काम करने से गुरेज़ करते, बड़े उत्साह के साथ इनमें काम करने को लालायित नज़र आने लगे हैं. शायद  उन्हें यहां के अंग्रेज़ी तौर तरीके और अपेक्षाकृत उच्च वर्गीय माहौल अपनी तरफ खींचता  है.

इस तरह खान पान न केवल हमारी आदतें बदल रहा है, हमारी जीवन शैली पर भी असर डाल रहा है और यह करते हुए वो खुद को भी बदल रहा है. है न दिलचस्प बात!

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत 25 नवम्बर, 2014 को भारत में आकर बदल गया फास्ट फूड शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.