अक्टोबर 2013 में 86 बरस की आयु में और मार्च 2014 में 99 वर्ष की आयु में दिवंगत हुए दो बड़े लेखकों
राजेन्द्र यादव और खुशवंत सिंह में और कोई समानता भले ही न हो इन दोनों का नाम आते
ही लोगों के चेहरों पर एक शरारत भरी हंसी ज़रूर तैर जाया करती थी. इस हंसी की वजह
होती थी इनकी सार्वजनिक छवि, जिसके बारे में यह कह पाना तो बहुत कठिन है कि वो
कितनी असल थी और कितनी निर्मित, लेकिन उस
छवि का सम्बन्ध महिलाओं में इनकी बहु प्रचारित दिलचस्पी से अवश्य था. यही वजह है
कि लोग बहुत मज़े लेकर राजेन्द्र यादव
द्वारा सम्पादित चर्चित पत्रिका ‘हंस’ को ‘हंसिनी’ कहा करते थे और खुशवंत
सिंह अपने खूब पढ़े जाने वाले कॉलमों में प्राय: किसी न किसी युवती से अपनी मुलाकात
का ज़िक्र कर लोगों के दिलों में ईर्ष्या की अग्नि प्रज्ज्वलित किया करते थे.
इन दोनों बेहद लोकप्रिय लेखकों की याद आई
मुझे 1982 की बासु चटर्जी निर्देशित मज़ेदार फिल्म
‘शौकीन’ के ज़िक्र से. जी हां, किसी तेलुगु फिल्म की रीमेक वही ‘शौकीन’ फिल्म
जिसमें तीन बुड्ढे अशोक कुमार, ए के हंगल और उत्पल दत्त एक युवती (रति अग्निहोत्री) के पीछे पागल रहते हैं. इसी
‘शौकीन’ फिल्म का एक रीमेक हाल ही में रिलीज़ हुआ है जिसका नाम समयानुसार बदल कर ‘द शौकीन्स’ कर दिया
गया है और जिसमें तीन नए बुड्ढे आ गए हैं – पीयूष मिश्रा, अन्नू कपूर और अनुपम
खेर. और जब बुड्ढे बदल गए हैं तो
स्वाभाविक है कि युवती भी बदल गई है. रति
की जगह लिज़ा हेडन ने ले ली है. वैसे तो यह बात भी मुझे कम दिलचस्प नहीं लग रही
है कि 42 बरसों के अंतराल ने कैसे ‘शौकीन’
का अंग्रेज़ीकरण कर उसे ‘द शौकीन्स’ बना दिया है, इस बात पर भी मेरा ध्यान गए बग़ैर
नहीं रहा कि 1982 में आकर्षण का केन्द्र रति (सन्दर्भ कामदेव) थी और 2014 में उसकी
जगह अंग्रेज़ी नाम वाली युवती आ गई है! देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान, कितना बदल गया इंसान!
लेकिन क्या वाकई समय के साथ सब कुछ बदलता
है? क्या स्त्री का पुरुष के प्रति और पुरुष का स्त्री के प्रति आकर्षण पहले नहीं
था और अब होने लगा है? मुझे तो ऐसा नहीं लगता है. बल्कि लगता यह है कि तमाम
बदलावों के बीच भी ज़्यादा कुछ नहीं बदलता. इस सन्दर्भ में तो यह बात कुछ अधिक ही
सत्य लगती है. मुझे अनायास याद आते हैं मिर्ज़ा ग़ालिब! उनका वो मशहूर शे’र है ना – आह
को चाहिए एक उम्र असर होने तक/ कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ के सर होने तक. यह शे’र
सीधे-सीधे उनकी बढ़ी उम्र की तरफ़ इशारा कर रहा है. न केवल उनकी बढ़ी उम्र की तरफ,
दोनों की उम्र के अंतराल की तरफ़ भी. और शायद इस शे’र के बाद वाली स्थिति इस शे’र में है – ग़ो
हाथ को ज़ुम्बिश नहीं, आंखों में तो दम है/ रहने दो सागर-ओ-मीना मेरे आगे! लगता
है कि यह शे’र कहते समय बड़े मियां करीब-करीब इस जहाने फानी को अलविदा कहने वाली
अवस्था में पहुंच चुके थे. वो ही स्थिति
जिसे मुंह में दांत नहीं, पेट में आंत नहीं कहा जाता है! लेकिन फिर भी देखिए कि
खुशनुमा मंज़र को वे अपनी आंखों के सामने रखना चाहते हैं.
और जब मैं ग़ालिब की बात कर रहा हूं तो
केशवदास अपने आप मेरे सामने चले आ रहे हैं! वही केशवदास जिनको कठिन काव्य का प्रेत
कहकर गरियाया जाता है, लेकिन जिनके काव्य कौशल का लोहा हर काव्य रसिक मानता है. सोलहवीं
शताब्दी के इस कवि के बारे में यह जनश्रुति विख्यात है कि एक बार अपनी वृद्धावस्था
में ये किसी कुएं के पास बैठे थे कि कुछ
युवतियां वहां आईं और उन्होंने इन्हें ‘बाबा’ कह कर सम्बोधित किया. तब
कविवर ने यह दोहा कहा: केशव केसनि अस करी जस अरि हूं न कराहिं/ चन्द्र वदनि मृग
लोचनी बाबा कहि कहि जाहिं अर्थात केशव
कहते हैं कि मेरे श्वेत केशों ने मेरे साथ जो दुर्व्यवहार किया है वैसा दुर्व्यवहार तो भला कोई शत्रु भी नहीं करता है!
और दुर्व्यवहार क्या किया? यह कि उनकी वजह से चांद जैसे मुखड़े वाली और मृग जैसे
नेत्रों वाली युवतियां भी मुझे बाबा कह कर सम्बोधित कर रही हैं.
और शायद ऐसे ही हालात में उर्दू के एक बड़े
शायर हफीज़ जालन्धरी को बाआवाज़े बुलन्द यह कहना पड़ा होगा – अभी तो मैं जवान हूं!
इसे मलिका पुखराज की लरज़ती आवाज़ में सुनकर
तो देखिये! मुझे तो लगता है कि इंसान मरने
से जितना नहीं डरता, उतना बूढ़ा होने से डरता है! याद है ना आपको, हमारे बिग बी ने
क्या कहा था – बूढा होगा तेरा बाप! और जब हम बूढ़े हुए ही नहीं हैं तो फिर यह लाजमी
है कि हम ‘शौकीन’ हो!
आपका क्या खयाल है इस बारे में - अंकल!
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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार दिनांक 11 नवम्बर, 2014 को आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.