कहा जाता है कि हमारा समय आत्म प्रचार का
समय है. जो दिखता है वो बिकता है से भी आगे, जो बोलता है वो बिकता है के अनगिनत
उदाहरण हम अपने चारों तरफ देखते हैं. और
जब आप बोलते हैं, अनवरत बोलते हैं तो भला किसे इतनी फुर्सत है कि यह जांचे कि आपके
बोले में दूध कितना है और पानी कितना! आप तो बस बोलते रहिये. जीवन के तमाम
क्षेत्रों में यह हो रहा है. साहित्य और कलाओं का क्षेत्र भी इस प्रवृत्ति से
अछूता नहीं है. साहित्य में तो किताबों के लोकार्पण के आयोजन इस प्रवृत्ति के
बेहतरीन उदाहरण के रूप में देखे जा सकते हैं. और लोकार्पण से भी थोड़ा पीछे चलें तो
आजकल तो अपने खर्चे से छपवाई गई किताबों की जैसी बाढ़ आई हुई है वह भी आत्म प्रचार
की ही एक और छवि प्रस्तुत करती है. पहले आप अपनी जेब से दस-बीस हज़ार खर्च कर एक
किताब छपवा लें, फिर अपनी हैसियत के अनुसार खर्चा कर भव्य या भव्यातिभव्य लोकार्पण
समारोह आयोजित कर लें, जिसमें आपके दोस्त लोग आपको अपनी भाषा का न भूतो न भविष्यति
लेखक साबित कर दें, और फिर जैसे-तैसे करके कुछ पत्र-पत्रिकाओं में अपनी किताब की
प्रशंसा, जिसे समीक्षा कहा जाता है, प्रकाशित करवा लें. हो गए आप महान लेखक. इस पर
भी मन न भरे तो प्रचार का एक और माध्यम आपके पास है – फेसबुक. हर रोज़ किसी महान
लेखक के हाथ में अपनी किताब देकर फोटो पोस्ट करते रहें, लोगों को लगेगा कि सारी
दुनिया सिर्फ और सिर्फ आपकी ही किताब पढ़ रही है.
पता नहीं संचार माध्यमों को लेखक की कितनी ज़रूरत होती है, लेखकों
को तो संचार माध्यमों की चिरौरी करते हमने खूब देखा है. संचार माध्यमों से जुड़े लोगों को यशाकांक्षी लेखकगण जिस तरह भाव देते हैं
उससे उनकी नीयत बहुत साफ हो जाती है. और इन माध्यमों में जो लोग हैं, वे भी
इस बात को भली-भांति समझते हैं इसलिए नाकाबिले बर्दाश्त हरकतें तक कर जाते हैं.
कुछ बरस पहले ऐसे ही एक मंज़र का
प्रत्यक्षदर्शी होने का मौका मुझे अनायास मिल गया. हिन्दी के जाने-माने कथाकार
राजेन्द्र यादव किसी आयोजन में भाग लेने जयपुर आए हुए थे. कार्यक्रम शुरु होने में
कुछ विलम्ब था और वे पहली पंक्ति में बैठे थे. मैं उनसे कुछ गपशप कर रहा था. तभी
एक सुकन्या खट-खट करती हुई आई और कॉन्वेण्टी लहज़े में अपना परिचय देने के बाद उनसे कुछ सवाल जवाब करने की
अनुमति चाही. राजेन्द्र जी ने सहर्ष अनुमति दी तो पहला सवाल उसने उनसे यह पूछा कि
आपका नाम क्या है! राजेन्द्र जी ने शायद सवाल सुना नहीं, लेकिन मैंने उस कन्या से
कहा कि ये राजेन्द्र यादव हैं. मेरा खयाल
था कि इस नाम को सुनकर उसे बहुत कुछ याद आ जाएगा. लेकिन मुझे उस कन्या की महानता
का अन्दाज़ नहीं था. उसने दूसरा सवाल फिर राजेन्द्र जी से ही पूछा – क्या आप भी
लिखते हैं? राजेन्द्र जी ने मुस्कुराते
हुए गर्दन हिलाई तो उसने तुरंत तीसरा
सवाल दागा- आप क्या लिखते हैं? मुझे लगा कि अब ज़रूर राजेन्द्र जी उखड़
जाएंगे, और शायद वे उखड़ भी गए होते, अगर उसी क्षण मंच से उन्हें बुला न लिया गया
होता.
ऐसे ही एक प्रसंग का साक्षी रहने का
सौभाग्य मुझे और मिला था. मैं दूरदर्शन केन्द्र पर अपनी एक रिकॉर्डिंग के लिए गया हुआ था. स्टूडियो खाली
होने में कुछ देर थी तो प्रतीक्षा कक्ष में जा बैठा. एक अफसरनुमा सज्जन और एक
सुमुखी वहां पहले से बिराजे हुए थे. शायद
उन्हें मेरी उपस्थिति नागवार गुज़री, लेकिन कहते भी क्या? मैं चोर आंखों-कानों से उनकी बातचीत देख सुन रहा था. जो बात समझ में
आई वो यह कि वे सज्जन किसी विभाग के उच्चाधिकारी थे और बतौर लेखक अपना साक्षात्कार
रिकॉर्ड करवाने आए थे. उस भद्र महिला को उनका साक्षात्कार लेना था. जो बात सबसे
रोचक थी वह यह कि वे सज्जन एक स्क्रिप्ट अपने साथ लाए थे और उस महिला को यह सिखा
पढ़ा रहे थे कि वे क्या सवाल पूछेंगी और सज्जन क्या जवाब देंगे. यानि ‘ये रहे आपके
सवाल और ये रहे मेरे जवाब’ वाला मामला था!
लेकिन इस सारे परिदृश्य के बीच यह जानना
एक अलग तरह के गर्व की अनुभूति कराता है
कि हमारे ही समय में कम से कम एक लेखक तो ऐसा हुआ है जो न तो कभी किसी भी माध्यम
को कोई इण्टरव्यू देता था और न अपने फैन्स से मिलना पसन्द करता था. अलबत्ता साधारण
जन से मिलने और बतियाने में उन्हें कोई गुरेज़ नहीं था, बशर्ते वे भी बिना टेप
रिकॉर्डर नोटबुक वगैरह पत्रकारी उपकरणों के उनके पास जाएं. जानते हैं कौन थे यह
लेखक? आर के नारायण! वे ही आर के जिन्हें हम मालगुड़ी डे’ज़ और द गाइड के लेखक के
रूप में जानते हैं!
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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 14 अक्टोबर, 2014 को आत्मप्रचार के समय में भी नहीं दिया इण्टरव्यू शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.