बॉलीवुड की चकाचौंध और ‘कुछ हटके के नाम पर वही का वही करने वालों से भरी दुनिया
में जो थोड़े-से नाम अपनी मौलिकता के लिए जाने जाते हैं विशाल भारद्वाज उनमें से एक
है. विशाल ने अपनी दो फिल्मों ‘मक़बूल’ और ‘ओमकारा’ में अपने अनूठे अन्दाज़ में
शेक्सपियर के अमर नाटकों क्रमश: मैकबेथ और ऑथेलो को भारतीय परिवेश के पैराहन में
पेश कर खासी नामवरी हासिल की, और अब उन्हीं विशाल भारद्वाज ने शेक्सपियर के एक और,
और
कदाचित सर्वाधिक लोकप्रिय नाटक हैमलेट
पर एक फिल्म बनाई है – ‘हैदर’. होने और न होने के, टू बी ओर नॉट टू बी के द्वन्द्व से जूझते नायक की इस कालजयी महागाथा को विशाल भारद्वाज डेनमार्क से
कश्मीर ले आए हैं और उसके द्वन्द्व को आतंकवाद
के साये में जी रहे 1995 के कश्मीर में कुछ इस तरह से चित्रित किया है कि सिने कला
के कद्रदां उसकी तारीफ किए बग़ैर नहीं रह सके हैं. विशाल भारद्वाज ने यह करने के लिए एक जाने-माने
पत्रकार बशारत पीर की भी मदद ली है. लेकिन
जब भी किसी जानी-मानी साहित्यिक कृति पर
कोई फिल्म बनती है तो स्वाभाविक तौर पर कृति और फिल्म की तुलना होने लगती है और
बहुतों को लगता है कि साहित्य के साथ न्याय नहीं हो सका है. ऐसा ‘हैदर’ के सन्दर्भ
में भी है. लेकिन जो लोग किसी फिल्म को एक स्वतंत्र कृति के रूप में देखने के
पक्षधर हैं वे इसे एक क्लासिक फिल्म घोषित कर रहे हैं. बहरहाल, हर कलाकृति की तरह किसी
संज़ीदा फिल्म को अगर कुछ लोग पसन्द करते हैं तो कुछ नापसन्द भी करते हैं और सबके
अपने-अपने तर्क भी होते हैं.
लेकिन मैं आज इस फिल्म की चर्चा नहीं करना
चाह रहा हूं. विशाल भारद्वाज ने अपने कलाकारों से कितना उम्दा काम कराया है, इस
बात की भी चर्चा नहीं कर रहा हूं. मैं बात करना चाह रहा हूं विशाल भारद्वाज और उनकी गायिका पत्नी रेखा
भारद्वाज की. और इनकी भी नहीं, इनकी संवेदनशीलता की. और यह बात करने के लिए मुझे
विशाल और रेखा के अलावा एक और शख्स का ज़िक्र करना होगा. गुलज़ार के काम में रुचि
रखने वालों के लिए पवन झा का नाम क़तई अनजाना नहीं है. पवन जयपुर में रहते हैं और
सूचना प्रौद्योगिकी के माहिरों के बीच उनका नाम विशेष सम्मान के साथ लिया जाता है.
इस क्षेत्र में उनके नाम के साथ जो अनेक बड़ी कामयाबियां जुड़ी हुई हैं उनका ज़िक्र
करने की कोई ज़रूरत अभी नहीं है. इन्हीं पवन झा ने गुलज़ार के लिए एक वेबसाइट तब
बनाई थी जब कम्प्यूटर हममें से ज़्यादातर लोगों के लिए बहुत दूर की चीज़ था. और ये
ही पवन हिन्दी फिल्म संगीत में इतना गहरा दखल रखते हैं कि इस विधा के ज्ञानी इन्हें एन्साइक्लोपीडिया ऑफ हिन्दी फिल्म
म्यूज़िक कहने में भी संकोच नहीं करते हैं. पवन बहुत लम्बे समय तक बीबीसी पर हिन्दी
फिल्म संगीत की समीक्षा भी करते रहे हैं, यदा-कदा अब भी करते हैं. और ये ही पवन,
आजकल रक्त कैंसर की चपेट में आकर अपनी गतिविधियों को सीमित रखने को मज़बूर हैं.
तो इन्हीं पवन झा ने भी ‘हैदर’ की चर्चा पढ़ी-सुनी और हिन्दी फिल्म संगीत के एक
अन्य रसिक कौस्तुभ पिंगले की फेसबुक वॉल पर किसी चर्चा के बीच यह लिख दिया कि वे
भी बहुत चाहते हैं कि ‘हैदर’ देखें, लेकिन उनके चिकित्सक ने कीमोथैरेपी के बाद के
दुष्प्रभावों से उन्हें बचाये रखने के लिहाज़ से सिनेमा हॉल जैसी किसी भी सार्वजनिक जगह पर जाने की मनाही कर रखी
है. वैसे स्वाभाविक रूप से पवन झा अपनी बीमारी की चर्चा से बचते हैं, लेकिन चर्चा का
सिलसिला कुछ ऐसा बना कि अनायास वे यह लिख गए. इसमें कोई ख़ास बात भी नहीं थी. ऐसी
चर्चाएं चलती रहती हैं.
खास बात तो इसके बाद हुई. वह ख़ास बात
जिसने मुझे भी यह लिखने के लिए मज़बूर कर दिया. संयोग से पवन झा की यह पोस्ट विशाल भारद्वाज की निगाहों
से भी गुज़री और उन्होंने और रेखा भारद्वाज ने, फौरन ही पवन के लिए जयपुर में
‘हैदर’ का एक एक्सक्लूसिव शो रखवा दिया. आज जब हम अपने चारों तरफ बड़े लोगों के छोटेपन
के अनेक वृत्तांत देखते-पढ़ते-सुनते हैं, विशाल और रेखा का यह बड़प्पन मेरे दिल को
छू गया. मेरे मन में तुरंत यह बात आई कि एक अच्छा इंसान ही एक अच्छा सर्जक भी हो
सकता है. मैंने ‘हैदर’ फिल्म अभी नहीं देखी है. देखने पर यह ज़रूरी नहीं है कि वह
मुझे भी पसन्द आए. बहुतों को नहीं आई है. लेकिन विशाल और रेखा ने यह जो किया है
उसकी वजह से मेरी निगाह में उनका क़द बहुत बड़ा हो गया है!
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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर में मंगलवार दिनांक 07 अक्टोबर, 2014 को एफबी पोस्ट से हुई हैदर की स्पेशल स्क्रीनिंग शीर्षक से प्रकाशित लेख का मूल पाठ.