Tuesday, August 19, 2014

एक अनूठा बिज़नेस मॉडल और सरकारें

आज सुबह फेसबुक पर किसी ने मात्र एक मिनिट ग्यारह  सेकण्ड के  एक वीडियो का लिंक भेजा तो सहज जिज्ञासा वश उसे देख ही लिया. बहुत मज़ेदार,  लेकिन विचारोत्तेजक भी. कहा गया कि यह वीडियो मुम्बई की एक औरत की कहानी है. उसके अनूठे व्यवसाय की कहानी. रोज़ सुबह वो औरत अपनी चार गायों और थोड़ी-सी घास को लेकर उस जगह पर आती है. पुण्य करने के इच्छुक  लोग उस औरत से घास खरीदते हैं और पास ही बंधी हुई गायों के आगे डाल देते हैं. शाम होते-होते उस औरत की सारी घास  बिक जाती है, और उसी के साथ उसकी गायों का पेट भी भर जाता है. बात यहीं खत्म नहीं हो जाती. वे गायें जो दूध देती हैं, उसे  भी वो औरत बेच लेती है. तो यह है व्यापार का एक अनूठा मॉडल. अगर आप ध्यान से देखें तो इसमें ग़लत कुछ भी नहीं है. मुम्बई जैसे महानगर में वो औरत चन्द लोगों को पुण्य करने का अवसर प्रदान कर रही है. उन्हें पुण्य करने के लिए घास खरीदने दूर नहीं जाना पड़ रहा. गाय और घास दोनों पास-पास. वह औरत कोई छल नहीं कर रही. किसी को धोखा नहीं  दे रही. दानियों को इस बात से क्या फर्क़ पड़ता है कि वे गायें किसकी हैं? और इस तरह वो औरत अपने बहुत साधारण लेकिन अनूठे बिज़नेस सेंस से अपनी ज़िन्दगी की गाड़ी चला रही है. हो सकता है आपको भी अपने आस-पास ऐसी ही कोई अनूठी कहानी मिल जाए!  

लेकिन इस वीडियो को देखते-देखते मेरा ध्यान एक और बात की तरफ चला गया. इस वीडियो को देखते-देखते मुझे खयाल आया कि सारी दुनिया की सरकारें भी तो इसी मॉडल पर चलती हैं! ज़रा सोचिये. सारा का सारा टैक्स हम देते हैं, और सरकारें इस बात का श्रेय लेती हैं कि उन्होंने हमारे लिए ये किया और वो किया. सड़कें बनवाई और अस्पताल चलाए! वेलफेयर स्टेट यानि कल्याणकारी राज्य! जब चाहा टैक्स लगा दिया और जितना चाहा उसे बढ़ा दिया. तर्क यह कि बिना टैक्स कोई भी योजना कैसे पूरी की जा सकती है! और आपने-हमने जो टैक्स दिया उससे सिर्फ हमारा-आपका ही भला नहीं हुआ! खुद सरकार का भी कम भला नहीं हुआ. सरकार यानि मंत्री, सांसद, विधायक और पूरा का पूरा सरकारी अमला. जो टैक्स आप हम देते हैं उसी में से वे खुद पर भी खर्च करते हैं और अच्छी खासी दरियादिली से खर्च करते हैं. उनके वेतन भत्ते, उनकी सारी सुख सुविधाएं, उनकी सुरक्षा, उनके घर-बार, उनकी हारी-बीमारी, उनकी देश-विदेश की यात्राएं, उनकी पेंशन सब कुछ उसी पैसे से तो होता है जो हम लोग बतौर टैक्स सरकार को देते हैं. है ना वही का वही मॉडल.

और जैसे इतना भी पर्याप्त नहीं है. हम पैसा देते हैं, और अगर हम प्रजातांत्रिक व्यवस्था में रह रहे हों तो हम ही उन्हें चुनते हैं (चुनने का सारा खर्च भी हम ही उठाते हैं!), और अगर दूसरी व्यवस्था हो तो वे खुद को हम पर थोप लेते हैं, लेकिन हर व्यवस्था में यह दावा ज़रूर किया जाता है कि यह सब हमारी ही बेहतरी के लिए है. प्रजातंत्र में अपनी सरकार चुनने का अधिकार हमारे हाथों में सौंपना भी एक तरह से हम पर किया गया एक उपकार बताया जाता है. और अगर यह व्यवस्था न हो तो किसी महान परम्परा का निर्वाह बता कर उस भिन्न  व्यवस्था को  भी महिमा मण्डित किया जाता है. लेकिन ज़रा खुले मन से सोचिये कि क्या कोई भी सरकार अपनी जनता पर किया हुआ उपकार होती है? अगर वो किसी और स्रोत से वित्त पोषित होती तो मैं उसे उपकार मानने के बारे में सोचता. लेकिन जब वो मेरे ही संसाधनों से चलती है तो उसे उपकार के रूप में स्वीकार करने में मुझे तो संकोच होगा.  

असल में सरकारों ने, शायद यही बात उनके हित में हो, लम्बे समय से एक ऐसा माहौल बना रखा है कि सभी देशों की जनता उन्हें अपने हित में और अपरिहार्य मानने लगी  है. मुझे याद आता है कि कुछ समय पहले एक भारतीय साप्ताहिक पत्रिका ने एक कवर स्टोरी की थी  ‘डू वी रियली नीड अ गवर्नमेण्ट?’  क्या हमें वाकई  किसी सरकार की ज़रूरत है? यह सवाल आज फिर मेरे जेह्न में उठ रहा है.  इसलिए भी उठ रहा है दुनिया के बहुत सारे देशों में सरकारें अपने बहुत सारे काम निजी क्षेत्र को सौंपती जा रही हैं. ग्लोबल विलेज की अवधारणा का मूर्त होना विदेश नीति की ज़रूरत भी कम करता जा रहा है. और अगर सरकारें न हों तो शायद रक्षा महकमे की भी ज़रूरत न रहे! सभी जानते हैं कि लड़ती सरकारें हैं, जनता नहीं. तो  ऐसे में क्या उस औरत से कहा जा सकता है कि हमें तुमसे घास नहीं खरीदनी है?
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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अन्तर्गत मंगलवार, 19 अगस्त, 2014 को इसी शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.