Tuesday, August 5, 2014

हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी

हर आदमी में होते हैं    दस-बीस आदमी
 जिसको भी देखना  हो  कई बार देखना |
आज जाने क्यों निदा फाज़ली साहब का यह शे’र बहुत याद आ रहा है. क्या आपके साथ भी कभी ऐसा होता है कि बिना किसी बात के कोई बात याद आ जाए? और जब यह शे’र याद आ गया तो मुझे बहुत सारे ऐसे लोकप्रिय गायक याद आने लगे जिनकी लोकप्रियता उनके गाये बड़े हल्के, बल्कि चालू गानों की वजह से है, लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता पता चला कि असल में तो वे बड़े संज़ीदा और गुणी गायक हैं. जब गुणी होने से  रोजी रोटी का जुगाड़ नहीं बैठा तो अपनी गाड़ी को दूसरी दिशा में ले जाने को विवश  हुए. कुछ ऐसा ही हाल हमारे  बहुत सारे कवियों का भी है. आज उनकी जो छिछोरी और लगभग अस्वीकार्य छवि बन गई है, वह कदाचित उनकी विवशता की देन है. अब इस बात पर तो बहस हो सकती है कि क्या वह विवशता वाकई विवशता थी, या अधिक वैभव पूर्ण जीवन की ललक उन्हें उस तरफ़  ले गई, लेकिन उनकी समझ, उनकी संवेदनशीलता और उनकी काबिलियत असंदिग्ध है. यह बात करते हुए मुझे अनायास काफी पुराना एक प्रसंग याद आ रहा है. अपनी नौकरी के शुरुआती बरसों में, सन सत्तर के दशक के पूर्वार्द्ध  तक  मैं चित्तौड़ में पदस्थापित रहा. उस ज़माने में चित्तौड़-भीलवाड़ा में कवि सम्मेलन खूब ही हुआ करते थे.  बहुत बड़े-बड़े कवि सम्मेलन. दस-पन्द्रह हज़ार की उपस्थिति और सारी-सारी रात चलने वाले. नीरज, काका हाथरसी, बालकवि बैरागी,  सोम ठाकुर, संतोषानंद  आदि उन दिनों कवि सम्मेलनों के सुपर  स्टार हुआ करते थे. अगर कोई कवि लालकिले पर आयोजित होने वाले कवि सम्मेलन में काव्य पाठ कर आता था तो जैसे उसके सुर्खाब के पर लग जाया करते थे.

तो हुआ यह कि किसी कवि सम्मेलन में नीरज हमारे शहर में आए. तब तक फिल्मों में भी वे काफी कामयाब हो चुके थे और हर कवि सम्मेलन में उनसे मेरा नाम जोकर, शर्मीली, प्रेम पुजारी, छुपा रुस्तम वगैरह के उनके लिखे लोकप्रिय गीतों को सुनाने की फरमाइश की जाती थी और वे भी खुशी-खुशी उन फरमाइशों को पूरा करते थे. ज़ाहिर है कि इस तरह की रचनाओं और कुछ और लोकप्रिय गीतों जैसे कारवां गुज़र गया वगैरह में ही सारा समय बीत जाता और वे  नया कुछ तो कभी सुना ही नहीं पाते. मैं उनसे मिलने गया और बातों का सिलसिला कुछ ऐसा  चला कि मैं उनसे यह कह बैठा कि कवि सम्मेलनों में उनसे  फिल्मी गाने सुन कर मुझे बहुत निराशा होती है. और भी काफी कुछ कह दिया मैंने उनसे. उन्होंने बहुत धैर्य से मेरी बातें सुनी और फिर बड़ी शालीनता से मुझसे दो बातें कही. एक तो यह कि इन सब बातों से वे भी परिचित हैं, लेकिन यह उनकी मज़बूरी है कि जिन लोगों ने अच्छे  खासे पैसे देकर उन्हें बुलाया है, उन्हें वे खुश करें. और दूसरी यह कि उनके पास भी अच्छी और नई कविताएं हैं, लेकिन उन्हें सुनने वाले कहां हैं? इसके जवाब में मैंने उनसे कहा कि सुनने वाले तो हैं लेकिन उनके पास आपको देने के लिए  बड़ी धन राशि  नहीं है. नीरज जी ने कहा कि अगर सच्चे कविता सुनने वाले मिलें तो वे बिना पैसे लिये भी उन्हें अपनी कविताएं सुनाने को तैयार हैं. उनके इस प्रस्ताव को मैंने तुरंत लपक  लिया और उन्हें अपने कॉलेज में काव्य पाठ के लिए ले गया. विद्यार्थियों से मैंने कहा कि नीरज जी बिना एक भी पैसा लिए हमारे यहां केवल इसलिए आए हैं कि हम उनसे सिर्फ और सिर्फ कविताएं सुनना चाहते हैं,  इसलिए आप उनसे कोई फरमाइश न करें. जो वे सुनाना चाहें वह सब उन्हें सुनाने दें. और आज मैं इस बात को याद करके चमत्कृत होता हूं कि नीरज जी ने लगभग दो घण्टे अपनी बेहतरीन  कविताएं सुनाईं, और मेरे विद्यार्थियों ने पूरी तल्लीनता और मुग्ध भाव से उन्हें सुना. इसके बाद मैंने ही नीरज जी  से अनुरोध किया कि हमारे विद्यार्थियों ने इतने मन से आपको सुना है, अब अगर आप इनकी पसन्द के दो एक गीत भी सुना दें तो बहुत मेहरबानी होगी. और नीरज जी की उदारता कि उन्होंने विद्यार्थियों की फरमाइश पर अपने सारे लोकप्रिय फिल्मी गीत भी एक-एक करके सुना दिए !  लेकिन उस दिन मुझे महसूस हुआ कि ‘छुपे रुस्तम हैं हम क़यामत की नज़र रखते हैं’ और ‘ओ मेरी शर्मीली’  जैसे गाने लिखने और सुनाने वाले नीरज के भीतर एक कवि उदास और इस इंतज़ार में बैठा है कि कोई आए और उससे कुछ सुनने की इच्छा ज़ाहिर करे! शायद यही हाल आज के बहुत सारे लोकप्रिय कलाकारों का भी है. लेकिन उनकी सुनता कौन है?

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अन्तर्गत मंगलवार, दिनांक 05 अगस्त 2014 को हर आदमी में  छिपे होते हैं दस-बीस आदमी शीर्षक से प्रकाशित लेख का मूल पाठ.