अपनी कामकाज़ी ज़िन्दगी के करीब 36 बरस कॉलेजों
में गुज़ारे तो स्वाभाविक ही है कि अपनी स्मृतियों के पिटारे में ज़्यादा माल भी
वहीं का है. जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो पाता हूं कि उस ज़िन्दगी में काफी कुछ ऐसा
था जिसे अपने पाठकों से साझा करूंगा तो उनके चेहरों पर भी मुस्कान आ जाएगी. मैंने
अपने इस सुदीर्घ अध्यापन काल में अपने विद्यार्थियों से काफी कुछ सीखा है. कभी
अपनी तरफ़ से सीखा तो कभी उन्होंने आगे बढ़कर
सिखाया. याद आता है कि अपनी नौकरी के शायद पहले या दूसरे बरस में जब मैं
उसकी किसी शरारत पर अपने एक विद्यार्थी को बहुत ही शालीन और मुलायम लहज़े में
‘डांट’ चुका (और ज़ाहिर है कि वह डांट निष्फल रही) तो कक्षा से बाहर निकलते समय
मेरे एक अन्य विद्यार्थी ने मुझे सलाह दी कि अगर मुझे किसी को डांटना है तो अपनी
आवाज़ को तेज़ और लहज़े को कड़ा रखना होगा. उसने कहा कि अगर आप इसी मुलायम लहज़े में
डांटेंगे तो कोई असर नहीं होगा. बाद में इसी तरह बहुत सारी अन्य ट्रिक्स ऑफ द
ट्रेड सीखने को मिलीं.
लेकिन आज मुझे एक अन्य प्रकार का प्रसंग आपसे
बांटने का मन हो रहा है. उन दिनों कॉलेजों में विद्यार्थियों के लिखे को प्रकाशित
करने के लिए महाविद्यालय पत्रिकाएं निकालने का रिवाज़ था, और करीब-करीब हर
महाविद्यालय कम से एक एक वार्षिक पत्रिका तो ज़रूर ही प्रकाशित करता था. कम से कम
इसलिए कहा कि बहुत सारे महाविद्यालय इसके अलावा मासिक, त्रैमासिक आदि पत्रिकाएं भी निकालते थे. अब आहिस्ता-आहिस्ता ऐसी तमाम
गतिविधियां और परम्पराएं नष्ट हो चुकी हैं. हो सकता है कि उनकी जगह नई गतिविधियों
ने ले ली हो. तो मेरे उस कॉलेज में भी एक
वार्षिक पत्रिका निकलनी थी और उसका सम्पादक मुझे बनाया गया था. मैंने नोटिस बोर्ड
पर सूचना लगवा दी कि अपनी रचनाएं प्रकाशित करवाने के इच्छुक विद्यार्थी अमुक तिथि तक मुझे अपनी रचनाएं दे
दें. मेरा आग्रह इस बात पर रहता था कि हम
विद्यार्थियों की मौलिक रचनाएं प्रकाशित करें. कई अन्य सम्पादक तथाकथित संकलित रचनाओं वाली पत्रिकाएं भी निकाला करते थे. मौलिकता के मेरे आग्रह को लेकर
कई बार विद्यार्थियों से छोटी-मोटी बहस भी हो जाती थी. लेकिन मैं अपने सोच पर कायम
रहने की भरसक कोशिश करता था.
काफी सारी रचनाएं आ चुकी थीं. एक दिन एक
विद्यार्थी एक पन्ना लेकर मेरे पास आया और
बोला कि “सर! यह मेरी शायरी है, इसे
पत्रिका में प्रकाशित कर दीजिए.” सामान्यत: तो मैं रचनाएं लेकर अपने पास रख लेता
था और बाद में उन्हें देखकर गुणावगुण के आधार पर उनको प्रकाशित करने न करने का
निर्णय करता था लेकिन उस दिन न जाने क्यों
मेरा इरादा बदल गया. मैंने एक नज़र उस विद्यार्थी के दिए पन्ने पर डाली तो पाया कि अरे! यह तो मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़ल है. सोचा,
अगर यह कहूंगा कि यह ‘शायरी’ तुम्हारी मौलिक रचना नहीं है तो विद्यार्थी को बुरा
लगेगा, इसलिए मैंने अपनी बात कहने के लिए ज़रा घुमावदार रास्ता चुना. गम्भीरता ओढ़ते हुए मैंने उस पन्ने
की चन्द लाइनें पढ़ीं और फिर उससे बोला कि यह तो बहुत अच्छी रचना है. विद्यार्थी प्रसन्न हुआ. मैंने उससे पूछा कि यह किस विधा की रचना है? उस विद्यार्थी को
मेरा विधा शब्द समझ में नहीं आया, तो मैंने अपनी बात को सरल करते हुए पूछा कि यह
ग़ज़ल है, नज़्म है, या रूबाई है? विद्यार्थी
ने पूरे आत्म विश्वास से मुझ अज्ञानी को ज्ञानवान बनाते हुए कहा – “सर, मैंने कहा
ना कि यह शायरी है!” मैंने भी जैसे उसकी
बात को समझते हुए कहा कि “अच्छा, अच्छा!
यह शायरी है. मुझे तो उर्दू आती नहीं है, इसलिए यह बात मालूम नहीं थी.” फिर मैंने उस ‘शायरी’ के एक कठिन शब्द का अर्थ
उससे जानना चाहा जिस पर उस महान
विद्यार्थी का जवाब बहुत ही शानदार था. बोला, “सर! शायर ऐसे कोई शब्दों को लेकर
थोड़े ही शायरी करता है. उसके मन में जब खयाल
आते हैं तो शब्द अपने आप कागज़ पर उतर आते हैं!” अब उससे किसी और शब्द का अर्थ पूछने का कोई मतलब
ही नहीं था. मैंने एक बार फिर उसकी महान शायरी की (जो वाकई महान थी! आखिर मिर्ज़ा ग़ालिब की जो थी) तारीफ की
और उससे पूछा कि क्या उसने और भी ऐसी शायरी लिखी है? मैंने उससे अपनी यह इच्छा
ज़ाहिर की कि अगर उसने लिखी हो तो मैं उन्हें भी प्रकाशित करंना चाहूंगा. वो
विद्यार्थी वाकई बहुत महान था! बोला: “सर! अभी तो यह एक ही लिखी है! जब और खयाल
आएंगे तो और लिखूंगा!” मैं उस महान विद्यार्थी और बड़े शायर के सामने नत मस्तक होने
के सिवा और कर भी क्या सकता था? हां, इतना और बताता चलूं कि मैं कई बरस उस कॉलेज
में रहा, और शायद फिर कभी उस विद्यार्थी को वैसे महान खयाल नहीं आए!
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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत 13 मई 2014 को छात्रों से सीखी ट्रिक्स ऑफ द ट्रेड शीर्षक से प्रकाशित संस्मरण का मूल आलेख.