कुछ सुविधाओं और चीज़ों के हम इतने अधिक
अभ्यस्त हो जाते हैं कि यह खयाल तक नहीं
आता कि जब ये हमें सुलभ नहीं थी तब हमारी ज़िंदगी कैसे चलती थी, और वो ज़िंदगी बेहतर थी या बदतर थी! अब दूर संचार को ही लीजिए. अब मोबाइल हमारी
ज़िंदगी से इतना एकाकार हो चुका है कि इसके बिना हम अपने आप को अधूरा समझने लगे हैं. अगर आप किसी बस या ट्रेन में सफ़र कर
रहे हों और कोई स्टेशन आने वाला हो, तब का मंज़र याद
कीजिए. मोबाइल की घण्टियां (बल्कि किसम किस्म की रिंग टोन्स) आपको चेता देती हैं
कि अब कोई स्टेशन आने वाला है. या तो आपका हम सफर अपने किसी मित्र-परिजन को बता
रहा होता है कि उसकी मंज़िल आने ही वाली है या फिर वो प्रतीक्षारत अपने किसी परिजन
को अपने जल्दी ही पहुंचने का सुसमाचार दे रहा होता है.
लेकिन बहुत पुरानी बात
नहीं है जब हम सब इस सुविधा के बिना भी जी रहे थे. और न सिर्फ जी रहे थे, मज़ेदार
अनुभव भी कर रहे थे. मैं एक कस्बाई कॉलेज
में हिंदी पढ़ाता था. मेरे कॉलेज का हिंदी
विभाग बहुत सक्रिय था. हम लोग अक्सर कोई न कोई आयोजन करते रहते थे. प्रांत का
हिंदी का शायद ही कोई बड़ा लेखक हो जिसका सान्निध्य उन दिनों हमारे विभाग को न मिला
हो. तो हुआ यह कि हमने पास के एक बड़े शहर के एक नामी रचनाकार को अपने यहां काव्य
पाठ और व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया. वो चिट्ठियों के आदान-प्रदान वाला ज़माना
था. टेलीफोन धीरे-धीरे अपनी जगह बना रहा था और मोबाइल की तो कोई पदचाप भी सुनाई
नहीं दे रही थी. चिट्ठियों के आदान प्रदान से उनका कार्यक्रम तै हो गया. कस्बा
छोटा था, होटल संस्कृति तब चलन में नहीं थी. तय किया गया कि
उन्हें बस से उतार कर साथियों में से किसी के घर ले जाएंगे ताकि वे ‘फ्रेश’ होना चाहें तो हो लें, फिर
कॉलेज ले जाकर उनका कार्यक्रम करा लेंगे और उसके बाद किसी के घर पर सब लोग एक साथ
भोजन करेंगे और उसके बाद उन्हें उनकी सुविधानुसार किसी बस में बिठा कर विदा कर
देंगे.
बस स्टैण्ड दूर था, उससे पहले
एक चौराहा था जहां ज़्यादातर सवारियां उतरती थी, और वो चौराहा
हमारे उस साथी के घर (और कॉलेज) के भी
निकट था, जहां उन्हें पहले ले जाना तै हुआ था. हम चार साथी
उस चौराहे पर खड़े हो गए कि बस आएगी तब अपने अतिथि को वहीं उतार लेंगे. एक-एक करके
तीन बसें वहां से गुज़र गईं, लेकिन हमारे अतिथि नज़र नहीं आए.
उनके पहुंचने का सम्भावित समय भी बीत चुका
था. सोचा किसी मज़बूरी के चलते वे नहीं आ पाए हैं. निराश मन कॉलेज गए,
कार्यक्रम स्थगित किया और अपने इतर कामों में व्यस्त हो गए.
तीसरे दिन डाक से उन
साहित्यकार महोदय का पत्र आया. बहुत संयत भाषा में, लेकिन शब्दों के पीछे से
उनकी नाराज़गी झांक रही थी. पत्र उन्होंने शायद लिखा भी अपनी नाराज़गी के इज़हार के
लिए ही था. जो कुछ उन्होंने लिखा उसका सार यह था कि जिस बस से उन्होंने आने की
सूचना दी थी, उस बस से वे हमारे कस्बे में पहुंचे, बस स्टैण्ड पर जब बस रुकी तो खिड़की में से झांक कर देखा कि वहां हममें से
कोई है या नहीं! उन्हें हममें से कोई वहां दिखाई नहीं दिया. वे बस से उतरे,
और क्योंकि उसी वक़्त एक बस वापस उनके बड़े शहर जाने को तैयार खड़ी थी,
उसमें बैठ कर वे अपने शहर लौट गए. उन्होंने हमसे कोई शिकायत नहीं
की. यह उनका बड़प्पन था.
आज पीछे मुड़कर इस घटना को
याद करता हूं तो उनकी खुद्दारी के प्रति माथा झुक जाता है. उन्हें लगा होगा कि जिन
लोगों में इतनी भी तमीज़ नहीं है कि अपने मेहमान के स्वागत के लिए पहुंचें, उनके यहां
क्या जाना! बेशक, इसमें हमारी कोई ग़लती नहीं थी. बसों की
भीड़भाड़ में और लोगों के चढ़ने-उतरने की आपाधापी में न उन्होंने हमें देखा और न हमने
उन्हें! लेकिन उन्होंने अपने पत्र में एक भी कठोर शब्द नहीं लिखा. यह कोई मामूली
बात नहीं है. लेकिन अगर आज की तरह मोबाइल
चलन में होता तो निश्चय ही यह घटना घटित नहीं हुई होती. थोड़ी-सी देर उनका
इंतज़ार करने के बाद हम लोग जाने कितनी दफ़ा
उनके मोबाइल को ज़हमत दे चुके होते! और इसके बावज़ूद भी अगर कोई चूक हो गई होती,
और उसके बाद उनसे बात हुई होती तो शायद उन्होंने भी हमसे अपनी
नाराज़गी व्यक्त की होती, और हमने भी कुछ न कुछ ज़रूर कहा
होता जिससे बदमज़गी पैदा हुई होती. सोच-समझकर अपने आप को व्यक्त करने की जो सुविधा
चिट्ठी में है वो भला मोबाइल की तात्कालिकता में कहां? अपनी
तात्कालिकता में मोबाइल पर तो हम उनसे नाराज़ हुए होते और वे हमसे! लेकिन अपने घर
पहुंच कर चिट्ठी लिखते हुए वे अपनी नाराज़गी पर काबू पा चुके होंगे.
●●●
लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में दिनांक 06 मई, 2014 को मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत 'तब ज़िंदगी इतनी इंस्टैण्ट नहीं थी' शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.