किताबों के साथ
हमारा रिश्ता बहुत अजीब है. चाहते हैं कि हमारे चारों तरफ किताबें ही किताबें हों.
बस उन्हें छूते, सूंघते, देखते
और पढ़ते हुए ज़िंदगी कट जाए! लेकिन जब किताबें इकट्ठी हो जाती हैं तो दूसरी तरह की
बेचैनी घेरने लगती है! अरे! वक़्त इतना कम है और कितना कुछ पढ़ने को शेष है! मुझ
जैसे मध्यवर्गीय लोगों का एक संकट और है और वह यह कि किताबें इकट्ठी करने वाले मन का मकान की सीमित जगह से कोई
तालमेल नहीं बैठ पाता है. और अगर पत्नी सुरुचि सम्पन्न हो तो यह कष्ट और कि
किताबें उनकी आंखों में रड़कती हैं. ख़ास तौर पर पुरानी और जीर्ण-शीर्ण किताबें!
मेरी पीढ़ी के लोगों की एक और बहुत बड़ी चिंता यह भी है कि हमारे बाद इन किताबों का
क्या होगा? अपने अनेक दिवंगत आत्मीय साहित्य रसिकों के
परिवार जन को उनकी बड़े जतन से संजोई लाइब्रेरियों के लिए फिक्र करते मैंने देखा
है.
बहरहाल, आज तो मुझे किताबों से
जुड़ी एक मज़ेदार घटना की याद आ रही है, उसी को आपसे साझा कर
रहा हूं. इस घटना को साझा करने से पहले यह
कह दूं कि जिन मित्र से इस घटना का ताल्लुक है, उनके प्रति
अवज्ञा या अवमानना का लेश मात्र भी भाव मेरे मन में नहीं है और उनकी मज़बूरी को
अच्छी तरह समझता हूं. महज़ अपने पाठकों के
चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए इसे साझा कर रहा
हूं.
दिवाली से पहले के दिन थे. ये दिन कबाड़ियों
के लिए ख़ास होते हैं. लोग अपने घरों की सफाई करते हैं, अनुपयोगी
सामान निकालते हैं और इस वजह से कबाड़ी लोगों का कारोबार उन दिनों अपने यौवन पर
होता है. वो एक छोटा-सा कस्बा था जहां हम रहते थे. कुछेक कबाड़ी जो ठेलों पर अपना
धंधा चलाते थे, मुझे भी जानते थे. जानने की वजह यह थी जब भी
उनके ठेलों पर किताबें नज़र आतीं, मैं उन्हें रोकता और उनमें
से अपने काम की किताबें छांट कर बिना मोलभाव किए खरीद लिया करता था. वे कबाड़ी कोई खास पढ़े लिखे तो थे नहीं, पर उन्हें यह
ज़रूर समझ में आता था कि यह आदमी वो किताबें खरीदता है जिन्हें कोई दूसरा
छूता तक नहीं है. मुझे इन कबाड़ियों से कई दफा बेशकीमती साहित्यिक सामग्री मिल चुकी
थी, इसलिए मैं भी उनकी
तलाश में रहता था.
तो उस दिन जब मैं अपने कॉलेज जा रहा था, ऐसे
ही एक परिचित कबाड़ी ने मुझे आवाज़ दी, और कहा कि साहब आज तो
आपके काम का बहुत सारा माल मेरे पास आया है. मैं रुका, उसने
अपना ठेला सड़क के किनारे खड़ा किया और किताबों के एक बड़े ढेर की तरफ इशारा कर मुझे
अपने पसंद की किताबें चुन लेने को आमंत्रित किया. वाकई वे उम्दा साहित्यिक किताबें
थीं. कविताओं की, कहानियों
की, लेखों की, आलोचना की. शीर्षक
देख कर एक किताब हाथ में ली, उसे खोला तो देखा भीतरी पन्ने
पर लिखा था – आदरणीय अमुक जी को सादर भेंट! और नीचे लेखक के हस्ताक्षर थे. मेरी
दिलचस्पी जागी. दूसरी किताब देखी, वही बात. तीसरी, चौथी, पांचवीं....यानि ये सारी किताबें मेरे मित्र
और सहकर्मी के यहां से आई थीं. बात मुझे समझ में आ गई. रचनाकार, विशेष रूप से युवा और उभरते हुए रचनाकार अपनी नव प्रकाशित किताबें सम्मति और
आशीर्वाद के लिए अपने वरिष्ठ रचनाकार सथियों को भेंट करते हैं. मेरे
उन मित्र को भी स्वभावत: ऐसी बहुत सारी किताबें
भेंट
में प्राप्त हुई थीं, और उन्होंने दिवाली की सफाई के
दौरान उन किताबों से इस तरह निज़ात पाई थी. जैसा मैंने कहा, हम
मध्यवर्गीय लोगों के घरों में इतनी जगह
नहीं होती कि जितनी किताबें हम चाहते हैं उन सबको सहेज कर रख सकें, ऐसे में किताबों की छंटनी एक मज़बूरी के रूप में सामने आती है.
ख़ैर! मुझे मज़ाक सूझा. दोस्तों में यह आम
बात है. मैंने कोई बीसेक किताबें उस ठेले से खरीदीं. तब वो पचास पैसे में एक किताब
देता था. दस रुपये बहुत ज़्यादा नहीं थे मज़ाक के नाम पर. किताबें घर लाया, और
जहां-जहां उनके लेखकों ने मेरे परम मित्र का नाम लिखकर अपने दस्तखत कर रखे थे,
उनके ठीक नीचे लिखा, आदरणीय अमुक जी को पुन:
सादर भेंट! और अपने हस्ताक्षर कर दिए. शाम को उनके घर गया, और
पूरी गम्भीरता और विनम्रता से उनसे कहा कि आपके लिए एक छोटी-सी भेंट लेकर हाज़िर
हुआ हूं. और यह कहकर उन किताबों का ठीक से बनाया हुआ पैकेट उनके सामने रख दिया.
उन्होंने बड़ी उत्सुकता से उस बण्डल को खोला......
और फिर?
बस! फिर क्या हुआ यह मत पूछिये!
इतना कह दूं कि बरसों बीत जाने के बाद अब
भी हमारी दोस्ती उतनी ही प्रगाढ़ है!
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लोकप्रिय दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर में 18 फरवरी, 2014 को सप्रेम मिली किताबें कबाड़ी को चढ़ी भेंट शीर्षक से प्रकाशित संस्मरण का मूल आलेख.