Tuesday, October 28, 2014

त्योहार, बाज़ार और बदलाव

यह दिवाली भी हो ली! होली नहीं, हो ली! जीवन की एकरसता को तोड़ते हैं ये पर्व-त्योहार. नई ऊर्जा का संचार करते हैं. रिश्तों को मज़बूत करते हैं. आत्मीयता का विस्तार करते हैं. करने को और भी बहुत कुछ करते हैं. और शायद हममें से हरेक के लिए इन त्योहारों का मतलब अलग-अलग होता है. दिवाली आती है तो गृहिणियां घर की साफ-सफाई में जुट जाती हैं. बच्चे खरीदे जाने वाले पटाखों और नए कपड़ों की लिस्ट तैयार करने में, और जो कमाता है या कमाती है वो यह योजना बनाने में कि सबकी इच्छाएं  कैसे पूरी की जाएंगी! मध्यम वर्ग हर साल अपनी छोटी चादर से बड़ी देह को ढांपने की कोशिश करता है और चारों तरफ का परिवेश उसके एहसासे कमतरी को और बढ़ाता जाता है. 

त्योहारों के स्वरूप और उनके मनाने के तौर तरीकों में बहुत बदलाव आया है. यह कहते हुए मैं न तो नोस्टाल्जिक होना चाहता हूं और न इस स्वर में बात करना चाहता हूं कि हाय! गुज़रा हुआ ज़माना कितना अच्छा था! बल्कि मेरा तो मानना है कि परिवर्तन सृष्टि का नियम है और हर परिवर्तन में कुछ न कुछ अच्छा निहित होता है. जो भी बदलाव होते हैं उनके पीछे समय की मांग और समय के दबाव होते हैं.

इधर त्योहारों के स्वरूप में जो बदलाव हुए हैं उनमें से दो मुझे ख़ास तौर पर आकृष्ट करते हैं. अगर मैं बहुत पीछे न भी लौटूं और मात्र दस पन्द्रह बरस पहले के समय को याद  करूं तो पाता हूं कि आज करीब-करीब सारे त्योहारों के साथ बाज़ार बहुत मज़बूती और नज़दीकी से जुड़ता जा रहा है. कुछ बरस पहले जब मैं अमरीका में था तो यह देखकर चकित होता था कि चार जुलाई को,  जो वहां का स्वाधीनता  दिवस है, इन्डिपेंडेंस डे सेल की बड़ी धूम धाम होती है. अब मैं पाता हूं कि हमारा हर त्योहार हमसे ज़्यादा हमारे बाज़ार के लिए उत्सव बन कर आता है. इससे भी अधिक यह कि बाज़ार अपने लिए नए-नए उत्सव भी गढ़ने लगा है. इधर हर साल कई ऐसे मुहूर्त निकलने लगे हैं जिनमें खरीददारी करना बहुत शुभ बताया जाता है. सोचता हूं कि कुछ बरस पहले ये मुहूर्त क्यों नहीं होते थे!

कहना अनावश्यक है कि यह सब बाज़ार का खेल  है. और जब मैं बाज़ार की बात करता हूं तो अनायास मुझे प्रख्यात लेखक जैनेन्द्र कुमार का एक लेख याद आ जाता है – बाज़ार दर्शन. इस लेख में जैनेन्द्र बड़े पते की बात कहते हैं. वे कहते हैं कि बाज़ार में एक जादू है जो आंख की राह काम करता है. वह रूप का जादू है. लेकिन जैसे चुम्बक का जादू लोहे पर ही चलता है वैसे ही इस जादू की भी एक मर्यादा है.  जेब भरी और मन खाली हो तो जादू का असर खूब होता है. जेब खाली पर मन भरा न हो तो भी जादू चल जाएगा. और इसलिए जैनेन्द्र जी इस जादू की एक काट भी बताते हैं. वे सलाह देते हैं कि बाज़ार जाओ तो मन खाली न हो. यानि मन अगर खाली हो तो बाज़ार न जाओ. समझाने के लिए वे यह उदाहरण देते हैं कि लू में बिना पानी पिए बाहर निकलने से रोका जाता है. यानि मन भरा हो तो फिर उसपर बाज़ार का जादू  नहीं चलेगा.  आदर्श स्थिति तो यही है कि बाज़ार अपना काम करे और हम उसका उतना ही प्रभाव अपने  पर होने दें जितना हमारे लिए आवश्यक है. तो क्यों न के एल सहगल साहब के गाए उस नग़्मे  को याद करें जिसमें वे कहते हैं कि  दुनिया में हूं दुनिया का तलबगार नहीं हूं....बाज़ार से गुज़रा हूं खरीददार नहीं हूं...

इधर त्योहारों को लेकर जो दूसरी बात मुझे बहुत महत्व की लगती है वो यह कि लोग इनके मनाने के तौर-तरीकों पर खुल कर विचार विमर्श करने लगे हैं. परम्परा के नाम पर होने वाले बहुत सारे रस्मो-रिवाज़ पर सवाल उठाए जाने लगे हैं और यह अनुरोध किए जाने लगे हैं कि उत्सव के नाम पर संसाधनों की बर्बादी न की जाए या औरों  को असुविधा में न डाला जाए. कुर्बानी, दिखावा, प्रदूषण, पानी की बर्बादी आदि के मुद्दे उठने लगे हैं.  यह हमारे समाज के परिपक्व होते जाने के लक्षण हैं और इनका स्वागत किया जाना चाहिए. मुझे इस बात में कोई हर्ज़ नहीं लगता कि बहुत सारे लोग परम्परा के निर्वहन के नाम पर जो चला आ रहा है उसे पुरज़ोर तरीके से उचित ठहराते हैं और उसमें किसी भी तरह के बदलाव का घोर विरोध करते हैं. जिस तरह बदलाव की चाहना करने वालों को अपनी बात कहने का हक है उसी तरह उससे असहमत होने वालों की बात भी सुनी जानी चाहिए. और सुनी भी जाती है.



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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 28 अक्टोबर, 2014 को इसी शीर्षक से प्रकाशित  आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, October 14, 2014

आत्म प्रचार के समय में इण्टरव्यू न देने वाला एक लेखक

कहा जाता है कि हमारा समय आत्म प्रचार का समय है. जो दिखता है वो बिकता है से भी आगे, जो बोलता है वो बिकता है के अनगिनत उदाहरण हम अपने चारों तरफ देखते  हैं. और जब आप बोलते हैं, अनवरत बोलते हैं तो भला किसे इतनी फुर्सत है कि यह जांचे कि आपके बोले में दूध कितना है और पानी कितना! आप तो बस बोलते रहिये. जीवन के तमाम क्षेत्रों में यह हो रहा है. साहित्य और कलाओं का क्षेत्र भी इस प्रवृत्ति से अछूता नहीं है. साहित्य में तो किताबों के लोकार्पण के आयोजन इस प्रवृत्ति के बेहतरीन उदाहरण के रूप में देखे जा सकते हैं. और लोकार्पण से भी थोड़ा पीछे चलें तो आजकल तो अपने खर्चे से छपवाई गई किताबों की जैसी बाढ़ आई हुई है वह भी आत्म प्रचार की ही एक और छवि प्रस्तुत करती है. पहले आप अपनी जेब से दस-बीस हज़ार खर्च कर एक किताब छपवा लें, फिर अपनी हैसियत के अनुसार खर्चा कर भव्य या भव्यातिभव्य लोकार्पण समारोह आयोजित कर लें, जिसमें आपके दोस्त लोग आपको अपनी भाषा का न भूतो न भविष्यति लेखक साबित कर दें, और फिर जैसे-तैसे करके कुछ पत्र-पत्रिकाओं में अपनी किताब की प्रशंसा, जिसे समीक्षा कहा जाता है, प्रकाशित करवा लें. हो गए आप महान लेखक. इस पर भी मन न भरे तो प्रचार का एक और माध्यम आपके पास है – फेसबुक. हर रोज़ किसी महान लेखक के हाथ में अपनी किताब देकर फोटो पोस्ट करते रहें, लोगों को लगेगा कि सारी दुनिया सिर्फ और सिर्फ आपकी ही किताब पढ़ रही है.

पता नहीं संचार  माध्यमों को लेखक की कितनी ज़रूरत होती है, लेखकों को तो संचार माध्यमों की चिरौरी करते हमने खूब देखा है. संचार माध्यमों से जुड़े लोगों को यशाकांक्षी लेखकगण जिस तरह भाव देते हैं उससे उनकी नीयत बहुत साफ हो जाती है. और इन माध्यमों में जो लोग हैं, वे भी इस  बात को भली-भांति समझते हैं इसलिए  नाकाबिले बर्दाश्त हरकतें तक कर जाते हैं. कुछ  बरस पहले ऐसे ही एक मंज़र का प्रत्यक्षदर्शी होने का मौका मुझे अनायास मिल गया. हिन्दी के जाने-माने कथाकार राजेन्द्र यादव किसी आयोजन में भाग लेने जयपुर आए हुए थे. कार्यक्रम शुरु होने में कुछ विलम्ब था और वे पहली पंक्ति में बैठे थे. मैं उनसे कुछ गपशप कर रहा था. तभी एक सुकन्या खट-खट करती हुई आई और कॉन्वेण्टी लहज़े में अपना  परिचय देने के बाद उनसे कुछ सवाल जवाब करने की अनुमति चाही. राजेन्द्र जी ने सहर्ष अनुमति दी तो पहला सवाल उसने उनसे यह पूछा कि आपका नाम क्या है! राजेन्द्र जी ने शायद सवाल सुना नहीं, लेकिन मैंने उस कन्या से कहा कि ये राजेन्द्र  यादव हैं. मेरा खयाल था कि इस नाम को सुनकर उसे बहुत कुछ याद आ जाएगा. लेकिन मुझे उस कन्या की महानता का अन्दाज़ नहीं था. उसने दूसरा सवाल फिर राजेन्द्र जी से ही पूछा – क्या आप भी लिखते हैं? राजेन्द्र जी ने मुस्कुराते  हुए गर्दन हिलाई तो उसने तुरंत तीसरा  सवाल दागा- आप क्या लिखते हैं? मुझे लगा कि अब ज़रूर राजेन्द्र जी उखड़ जाएंगे, और शायद वे उखड़ भी गए होते, अगर उसी क्षण मंच से उन्हें बुला न लिया गया होता.

ऐसे ही एक प्रसंग का साक्षी रहने का सौभाग्य मुझे और मिला था. मैं दूरदर्शन केन्द्र पर अपनी एक रिकॉर्डिंग के लिए गया हुआ था. स्टूडियो खाली होने में कुछ देर थी तो प्रतीक्षा कक्ष में जा बैठा. एक अफसरनुमा सज्जन और एक सुमुखी वहां पहले से बिराजे हुए थे. शायद  उन्हें मेरी उपस्थिति नागवार गुज़री, लेकिन कहते भी क्या? मैं चोर आंखों-कानों  से उनकी बातचीत देख सुन रहा था. जो बात समझ में आई वो यह कि वे सज्जन किसी विभाग के उच्चाधिकारी थे और बतौर लेखक अपना साक्षात्कार रिकॉर्ड करवाने आए थे. उस भद्र महिला को उनका साक्षात्कार लेना था. जो बात सबसे रोचक थी वह यह कि वे सज्जन एक स्क्रिप्ट अपने साथ लाए थे और उस महिला को यह सिखा पढ़ा रहे थे कि वे क्या सवाल पूछेंगी और सज्जन क्या जवाब देंगे. यानि ‘ये रहे आपके सवाल और ये रहे मेरे जवाब’  वाला मामला था!


लेकिन इस सारे परिदृश्य के बीच यह जानना एक अलग तरह के गर्व की अनुभूति कराता  है कि हमारे ही समय में कम से कम एक लेखक तो ऐसा हुआ है जो न तो कभी किसी भी माध्यम को कोई इण्टरव्यू देता था और न अपने फैन्स से मिलना पसन्द करता था. अलबत्ता साधारण जन से मिलने और बतियाने में उन्हें कोई गुरेज़ नहीं था, बशर्ते वे भी बिना टेप रिकॉर्डर नोटबुक वगैरह पत्रकारी उपकरणों के उनके पास जाएं. जानते हैं कौन थे यह लेखक? आर के नारायण! वे ही आर के जिन्हें हम मालगुड़ी डे’ज़ और द गाइड के लेखक के रूप में जानते हैं!

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में  मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 14 अक्टोबर, 2014 को  आत्मप्रचार के समय में भी नहीं दिया इण्टरव्यू शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.             

Tuesday, October 7, 2014

बेहतर कलाकार से पहले बेहतर इंसान

बॉलीवुड की चकाचौंध और ‘कुछ हटके  के नाम पर वही का वही करने वालों से भरी दुनिया में जो थोड़े-से नाम अपनी मौलिकता के लिए जाने जाते हैं विशाल भारद्वाज उनमें से एक है. विशाल ने अपनी दो फिल्मों ‘मक़बूल’ और ‘ओमकारा’ में अपने अनूठे अन्दाज़ में शेक्सपियर के अमर नाटकों क्रमश: मैकबेथ और ऑथेलो को भारतीय परिवेश के पैराहन में पेश कर खासी नामवरी हासिल की, और अब उन्हीं विशाल भारद्वाज ने शेक्सपियर के एक और,  और  कदाचित सर्वाधिक लोकप्रिय  नाटक हैमलेट पर एक फिल्म बनाई है – ‘हैदर’. होने और न होने के, टू बी ओर नॉट टू बी के  द्वन्द्व से जूझते नायक की इस  कालजयी महागाथा को विशाल भारद्वाज डेनमार्क से कश्मीर ले आए हैं और उसके  द्वन्द्व को आतंकवाद के साये में जी रहे 1995 के कश्मीर में कुछ इस तरह से चित्रित किया है कि सिने कला के कद्रदां उसकी तारीफ किए बग़ैर नहीं रह सके हैं.  विशाल भारद्वाज ने यह करने के लिए एक जाने-माने पत्रकार बशारत पीर की भी मदद ली है.  लेकिन  जब भी किसी जानी-मानी साहित्यिक कृति पर कोई फिल्म बनती है तो स्वाभाविक तौर पर कृति और फिल्म की तुलना होने लगती है और बहुतों को लगता है कि साहित्य के साथ न्याय नहीं हो सका है. ऐसा ‘हैदर’ के सन्दर्भ में भी है. लेकिन जो लोग किसी फिल्म को एक स्वतंत्र कृति के रूप में देखने के पक्षधर हैं वे इसे एक क्लासिक फिल्म घोषित कर रहे हैं. बहरहाल, हर कलाकृति की तरह किसी संज़ीदा फिल्म को अगर कुछ लोग पसन्द करते हैं तो कुछ नापसन्द भी करते हैं और सबके अपने-अपने तर्क भी होते हैं.

लेकिन मैं आज इस फिल्म की चर्चा नहीं करना चाह रहा हूं. विशाल भारद्वाज ने अपने कलाकारों से कितना उम्दा काम कराया है, इस बात की भी चर्चा नहीं कर रहा हूं.  मैं बात करना चाह रहा हूं विशाल भारद्वाज और उनकी गायिका पत्नी रेखा भारद्वाज की. और इनकी भी नहीं, इनकी संवेदनशीलता की. और यह बात करने के लिए मुझे विशाल और रेखा के अलावा एक और शख्स का ज़िक्र करना होगा. गुलज़ार के काम में रुचि रखने वालों के लिए पवन झा का नाम क़तई अनजाना नहीं है. पवन जयपुर में रहते हैं और सूचना प्रौद्योगिकी के माहिरों के बीच उनका नाम विशेष सम्मान के साथ लिया जाता है. इस क्षेत्र में उनके नाम के साथ जो अनेक बड़ी कामयाबियां जुड़ी हुई हैं उनका ज़िक्र करने की कोई ज़रूरत अभी नहीं है. इन्हीं पवन झा ने गुलज़ार के लिए एक वेबसाइट तब बनाई थी जब कम्प्यूटर हममें से ज़्यादातर लोगों के लिए बहुत दूर की चीज़ था. और ये ही पवन हिन्दी फिल्म संगीत में इतना गहरा दखल रखते हैं कि इस विधा के ज्ञानी  इन्हें एन्साइक्लोपीडिया ऑफ हिन्दी फिल्म म्यूज़िक कहने में भी संकोच नहीं करते हैं. पवन बहुत लम्बे समय तक बीबीसी पर हिन्दी फिल्म संगीत की समीक्षा भी करते रहे हैं, यदा-कदा अब भी करते हैं. और ये ही पवन, आजकल रक्त कैंसर की चपेट में आकर अपनी गतिविधियों को सीमित  रखने को मज़बूर हैं.

तो इन्हीं पवन झा ने भी ‘हैदर’  की चर्चा पढ़ी-सुनी और हिन्दी फिल्म संगीत के एक अन्य रसिक कौस्तुभ पिंगले की फेसबुक वॉल पर किसी चर्चा के बीच यह लिख दिया कि वे भी बहुत चाहते हैं कि ‘हैदर’ देखें, लेकिन उनके चिकित्सक ने कीमोथैरेपी के बाद के दुष्प्रभावों से उन्हें बचाये रखने के लिहाज़ से सिनेमा हॉल जैसी  किसी भी सार्वजनिक जगह पर जाने की मनाही कर रखी है. वैसे स्वाभाविक रूप से पवन झा अपनी बीमारी की चर्चा से बचते हैं, लेकिन चर्चा का सिलसिला कुछ ऐसा बना कि अनायास वे यह लिख गए. इसमें कोई ख़ास बात भी नहीं थी. ऐसी चर्चाएं चलती रहती हैं.   

खास बात तो इसके बाद हुई. वह ख़ास बात जिसने मुझे भी यह लिखने के लिए मज़बूर कर दिया. संयोग से  पवन झा की यह पोस्ट विशाल भारद्वाज की निगाहों से भी गुज़री और उन्होंने और रेखा भारद्वाज ने, फौरन ही पवन के लिए जयपुर में ‘हैदर’ का एक एक्सक्लूसिव शो रखवा दिया. आज जब हम अपने चारों तरफ बड़े लोगों के छोटेपन के अनेक वृत्तांत देखते-पढ़ते-सुनते हैं, विशाल और रेखा का यह बड़प्पन मेरे दिल को छू गया. मेरे मन में तुरंत यह बात आई कि एक अच्छा इंसान ही एक अच्छा सर्जक भी हो सकता है. मैंने ‘हैदर’  फिल्म अभी  नहीं देखी है. देखने पर यह ज़रूरी नहीं है कि वह मुझे भी पसन्द आए. बहुतों को नहीं आई है. लेकिन विशाल और रेखा ने यह जो किया है उसकी वजह से मेरी निगाह में उनका क़द बहुत बड़ा  हो गया है!
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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर में मंगलवार दिनांक 07 अक्टोबर, 2014 को एफबी पोस्ट से हुई हैदर की स्पेशल स्क्रीनिंग शीर्षक से प्रकाशित लेख का मूल पाठ.