इधर एक नई
हिन्दी फिल्म का राजस्थानी गीत चर्चा में है. सोनम कपूर की आनेवाली फिल्म ‘खूबसूरत’
में म्यूज़िक कम्पोज़र स्नेहा खानवलकर ने सुनिधी
चौहान और
रेसमी सतीश से एक गाना गवाया है – अंजन की सीटी में. यह गाना राजस्थान में पहले से काफी लोकप्रिय
है. अस्सी के दशक में इसे दो मिर्ज़ा बहनें रेहाना और परवीन अलग-अलग गाकर लगभग अमर
कर चुकी हैं. इस गाने की लोकप्रियता का यह आलम है कि आम तौर पर इसे लोकगीत माना
जाता है, जबकि मूलत: यह जाने माने शायर इक़राम राजस्थानी की रचना है. इक़राम साहब का
कहना है कि उन्होंने इसे अपने पिता की एक रचना से प्रेरित होकर लिखा था.
इक़राम राजस्थानी
के मूल गाने में एक ग्रामीण युवती का
चित्रण है जो शायद पहली दफा रेल में बैठी है और उस अनुभव से अभिभूत है. गाने के
पहले अंतरे में रेल के डिब्बे में चल रहे बिजली के पंखे का, दूसरे में चलती रेल के
डिब्बे की खिड़की से दिखाई देने वाले बाहर के दृश्य का, और तीसरे में टोपी वाले
टीटी का चित्रण है. गाने का चौथा और आखिरी अंतरा रेल के डिब्बे के ज़ोर के धचके से
नायिका के औंधी होकर गिर जाने के वर्णन से हास्य का सृजन कर गाने को पूर्णता
प्रदान करता है. कहना अनावश्यक है कि यह राजस्थान की एक ग्राम्य बाला के रेल-अनुभव का
रोचक और रंजक चित्रण है, और यही शायद इसकी लोकप्रियता की सबसे बड़ी वजह भी
है.
लेकिन अब नई फिल्म ‘खूबसूरत’ में जो गाना आया है, स्वाभाविक ही है कि उसकी भाव-भूमि अलग है. लगभग
साढ़े तीन दशकों में परिवर्तन तो हुए ही हैं. और अगर गाने को फिल्म में इस्तेमाल
किया जाना है तो उन परिवर्तनों पर नज़र रखना भी ज़रूरी है. तो, यह लोकप्रिय गाना फिल्म में आकर बदल गया है. मूल गाने की पंक्ति ‘अंजन की सीटी में
म्हारो मन डोलै’ अब ‘अंजन की सीटी में म्हारो बम डोलै’ के रूप में सुनाई देती है!
मन की जगह बम. बी यू एम. शुद्ध हिन्दी में कहूं तो नितम्ब! पहले मन डोलता था, अब
नितम्ब कम्पायमान होते हैं. मन में फौरन यह सवाल उठता है कि क्या पैंतीस सालों में
हममें यह बदलाव हुआ है कि गाने में मन की
जगह बम आ जाए? और इसे यों भी कह सकता हूं कि क्या हमारा वो पाठक-श्रोता जो साढ़े
तीन दशक पहले मन को समझ लेता था, अब उसकी समझ बदल कर बम तक जा पहुंची है?
इसे समझ का उत्थान कहें या पतन? और सवाल यह भी कि बदलाव श्रोता की संवेदना में हुआ
है या फिल्मकार की संवेदना में?
और बदलाव
की यह बात सिर्फ मुखड़े पर ही खत्म नहीं हो जाती है. मैंने मूल गाने के चार अंतरों
का जो परिचय दिया उसे ध्यान में रखते हुए अब ज़रा इस नए गाने का पहला अंतरा देखिये: “फक-फक
इंजन बोल रहा है, पटरी थर-थर कांपै/ कहां रुकेगी गाड़ी आकर मन ये
मेरा पूछै/ इंजन आकर जुड़ जाए मुझसे खाऊं हिचकोलै...” सुनिधी ने इसे किस तरह गाया है और सोनम ने
कैसे इस पर नृत्य किया है, इन बातों को
अगर नज़र अन्दाज़ भी कर दें तो ये शब्द ही काफी कुछ कह देते हैं. मूल गाने की
मासूमियत की जगह अब एक मांसल, बल्कि लगभग अश्लील सांकेतिकता ने ले ली है. बहुत सम्भव है कि इस गाने का प्रयोग एक आइटम
नम्बर के तौर पर हुआ हो और फिल्म बनाने वालों की निगाह टिकिट खिड़की पर रही हो,
इसलिए मूल गाने को इस तरह से बदल दिया गया हो! और हां, यह तो कहना मैं भूल ही गया
था कि मूल गाने का यह रूपांतर भी किसी और का नहीं, उन्हीं शायर का किया हुआ है.
यह गाना एक
बार फिर हमें शिद्दत से अपने बदले वक़्त का एहसास कराता है. इस बात का एहसास कराता
है कि ‘दम भर जो उधर मुंह फेरे ओ चन्दा’ , ‘फूल तुम्हें भेजा है ख़त में’ ‘छिपा लो
यूं दिल में प्यार मेरा कि जैसे मन्दिर में लौ दिये की’ जैसे गानों और
अभिव्यक्तियों का समय बीत चुका है. लेकिन क्या वाकई कोमलता का और सुरुचि का समय
बीत चुका है? क्या वाकई इश्क़ कमीना हो गया है?
क्या वाकई हम ‘पापा कहते थे
बड़ा नाम करेगा’ से चलकर ‘डैडी मुझसे बोला तू गलती है मेरी/ तुझपे जिंदगानी गिल्टी है मेरी/ साबुन
की शक्ल में बेटा तू तो निकला केवल झाग/ झाग झाग….भाग डीके
बोस भाग…….!’ तक आ
पहुंचे हैं? क्या सच्ची ‘अच्छी बातें कर ली बहुत, अब करूंगा तेरे साथ गन्दी बात..गन्दी बात!’
वाला समय आ गया है?
मन की जगह
बम सुनकर तो ऐसा ही लगता है!
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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अन्तर्गत मंगलवार, 26 अगस्त, 2014 को वक़्त के साथ बदलते इंजन की सीटी के मायने शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.