नाटककार कथाकार मोहन राकेश का एक मज़ेदार
लेख कभी पढ़ा और पढ़ाया था – ‘विज्ञापन युग’. लेखक ने बहुत मज़े लेकर और तत्कालीन
विज्ञापनों के अनेक उदाहरण देकर हमारे जीवन में अनचाहे घुस आए विज्ञापनों की रोचक
चर्चा की थी. जाने क्यों आज वो लेख बहुत याद आ रहा है. सोचता हूं अगर आज कोई उसी
तरह का लेख लिखना चाहे तो वो क्या-क्या लिखेगा? तब से अब तक गंगा में बहुत सारा
पानी बह चुका है. एक कला, एक व्यवसाय और एक विज्ञान के रूप में
विज्ञापन में आमूल-चूल बदलाव आ चुके हैं. पहले विज्ञापन का प्रयोग वस्तुओं को
बेचने के लिए किया जाता था, आज उसका क्षेत्र इतना विस्तृत हो गया है कि सेवा,
विचार, छवि और यहां तक कि सरकारों को बेचने के लिए भी उसका
इस्तेमाल होने लग गया है.
विज्ञापनों की माया अपरम्पार है. यह
विज्ञापनों की ही कृपा है कि बहुत सारे उत्पाद, जैसे समाचार पत्र, अपनी लागत से भी कम कीमत पर हमें मिल जाते हैं. लेकिन इसी बात का दूसरा पहलू यह
भी है और यह कम दिलचस्प भी नहीं है कि जिन विज्ञापनों से हम आम तौर पर चिढ़ते हैं उन्हीं को देखने-पढ़ने के
लिए हमें पैसा, चाहे वो कितना भी कम क्यों
ना हो, खर्च करना पड़ता है. और इससे भी अधिक रोचक बात तो यह है कि तमाम निर्माता या विक्रेता हमारी जेब से पैसे निकलवा कर हमें ही अपनी वस्तु या सेवा के गुणों से परिचित करवाते
हैं. हम सब जानते हैं कि विज्ञापनों पर होने वाला सारा खर्चा उत्पाद या सेवा की
लागत में जोड़ा जाकर उपभोक्ता से ही वसूला जाता है. सईद राही की ग़ज़ल का मिसरा याद आता है- उस शोख
ने मुझी को सुनाई मेरी ग़ज़ल. कभी-कभी मैं सोचता हूं कि अगर चीज़ों का विज्ञापन न
किया जाए तो वे कितने सस्ते में हमें
मिलने लगें! या उलट कर इस बात को सोचें कि
अगर हरी मिर्च, धनिया, प्याज और टमाटर के
भी विज्ञापन होने लग जाएं तो इनके भाव कहां तक जा पहुंचेंगे!
अगर आप यह सोच रहे हैं कि अमुक अगरबत्त्ती
सबसे अच्छी है या कुछ दिन तो गुज़ारो हमारे राज्य में जैसी बातें ही विज्ञापन की
श्रेणी में आती हैं तो आप इसके फैलाव को बहुत कम देख पा रहे हैं. असल में समय,
स्थितियों और समझ के बदलाव के साथ विज्ञापन के रूपों और तौर-तरीकों में इतना
ज़्यादा बदलाव आ गया है कि कई बार तो अपको पता ही नहीं चलता है और विज्ञापन आप पर
अपना असर डाल चुका होता है. यह बात तो
पुरानी हो गई है कि आप जिसे ख़बर समझ कर पढ़ते हैं असल में वो विज्ञापन होती है. और
यह बात भी पुरानी है कि कोई धर्मात्मा अस्पताल या धर्मशाला या मन्दिर बनवाकर अपनी
दानशीलता का विज्ञापन ही करता है. मुझे यह बात बहुत रोचक लगती है कि हमारे देश में
बहुत सारे मन्दिर एक बड़े उद्योगपति के नाम से जाने जाते हैं. खुद दानदाता का भगवान
हो जाना तो विज्ञापन की कामयाबी का बेहतरीन उदाहरण है.
इधर मैं यह बात देख रहा हूं कि बहुत निजी
माने जाने वाले पारिवारिक आयोजन भी विज्ञापन का माध्यम बनते जा रहे हैं. और ऐसा
अनायास नहीं सायास हो रहा है. किसी धनपति के घर-परिवार के किसी मांगलिक समारोह का
भव्य आयोजन उसकी सामर्थ्यानुसार उसके आनंद की अभिव्यक्ति हो सकता है लेकिन उस
आयोजन का बाकायदा प्रचार छवि निर्माण का प्रयास ही कहा जाएगा. और ऐसा भव्यता में
ही नहीं होता है, सादगी में भी होता है. देश के एक नामी चित्रकार का जूते न पहनने
का बहु प्रचारित निर्णय अंतत: उनकी विशिष्ठ छवि बनाकर उन्हें लाभान्वित करता था.
बिना दहेज शादी की बहुत सारी ख़बरें इसी बात को ध्यान में रखकर प्रसारित करवाई जाती
हैं कि इससे उन लोगों की एक बेहतर छवि आपकी स्मृति में स्थापित हो सके.
लेकिन जैसा मैंने कहा, समय के साथ
विज्ञापन अप्रत्यक्ष और घुमावदार होते जा रहे हैं. कभी एक टीवी के विज्ञापन में
दैत्य की छवि को अजूबा माना गया था और नकारात्मक विज्ञापन को एक बड़ी परिघटना के
रूप में जाना गया था लेकिन आज तो विज्ञापन की दुनिया में इतना कुछ नया घटित हो रहा
है कि अब उस तरफ हमारा ध्यान भी नहीं जाता
है. फिर भी, तमाम बदलावों के बावज़ूद विज्ञापनों की यह खासियत अभी भी बरक़रार है कि
अपनी तमाम अनिच्छाओं के बावज़ूद आप न सिर्फ
इन्हें झेलने के लिए अभिशप्त हैं, आपको आम
तौर पर इनके लिए अपनी जेब भी ढीली करनी पड़ती है. क्या पता कि वो गाना विज्ञापनों
को ध्यान में रखकर ही लिखा गया हो – अजी रूठ कर कहां जाइयेगा, जहां जाइयेगा, हमें
पाइयेगा!
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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर में दिनांक 22 जुलाई, 2014 को ज़रा सोचिए, विज्ञापन न होते तो क्या होता शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.
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