Tuesday, June 24, 2014

अच्छी भी है हमारी दुनिया!

हिंदी के अमर कथाकार प्रेमचंद के सुपुत्र और खुद एक बड़े रचनाकार स्वर्गीय अमृत राय अखबारों को द मॉर्निंग डिप्रेसर कहा करते थे. मुझे नहीं पता कि अगर अमृत राय आज जीवित होते तो आज के अखबारों को वे क्या नाम देना पसंद करतेक्योंकि उनके समय से आज तक आते-आते हालात बदतर हुए हैं. लेकिन कभी-कभी इस बुरे समय में ये अखबार ऐसी कोई ख़बर भी दे देते हैं कि मन एकदम उल्लसित हो उठता है. अभी उस दिन जब चेन्नई की यह ख़बर पढ़ी तो मुझे लगा कि दुनिया उतनी भी ख़राब नहीं है जितनी हम मान लेते हैं. हो सकता है यह ख़बर आपकी निगाहों से न गुज़री हो. मैं बता दूं? चेन्नई के फोर्टिस मलार हॉस्पिटल में मुम्बई की एक 21 वर्षीया कॉलेज छात्रा ज़िंदगी और मौत के बीच झूल रही थी. हृदय का प्रत्यारोपण होना था, और डोनर का यह हृदय चेन्नई सेण्ट्रल के नज़दीक के जनरल हॉस्पिटल से उस अस्पताल में पहुंचाने का ज़िम्मा था एक एम्बुलेंस ड्राइवर सी. काथिर का. एक-एक पल कीमती था. एक पल का विलम्ब, और सब बेकार.

और सलाम उस ड्राइवर काथिर को जिसने चेन्नई के भारी ट्रैफिक के बीच महज़ 13 मिनिट में 12 किलोमीटर का यह फासला तै करके उस लड़की की जान बचाने का असम्भव लगने वाला चमत्कार कर दिखाया.  काथिर का मानना है कि किसी की ज़िंदगी बचाने का यह अवसर उसे भगवान की देन है. काथिर पहले भी चार बार ऐसा कर चुके हैं. लेकिन इस बार उन्होंने जो अजूबा कर दिखाया उसमें चेन्नई के प्रशासन का भी बहुत बड़ा योगदान रहा. चेन्नई प्रशासन ने उस मार्ग की सारी लाल बत्तियों को बंद कर एक ग्रीन कॉरिडोर रचा ताकि दान में मिला हृदय निर्बाध और अविलम्ब पहुंचाया जा सके. भारत में ग्रीन कॉरिडोर की अवधारणा भले ही नई लगे, पश्चिमी देशों में एम्बुलेंस को ग्रीन कॉरिडोर ही मिलते हैं. मैंने अमरीका में देखा-जाना था कि एम्बुलेंस में ही इस तरह की तकनीकी व्यवस्था होती है कि उसके आते ही हर लाल  लाइट हरी होती चलती है और एम्बुलेंस को कहीं भी रुकना नहीं पड़ता है. लेकिन बात केवल तकनीकी व्यवस्था की नहीं है. लोग भी एम्बुलेंस को रास्ता देते हैं. हमारे यहां तो यही ड्राइवर काथिर बता रहे थे कि बहुत दफा उन्हें ऐसे लोग भी मिलते हैं जो एम्बुलेंस को मिले रास्ते का लाभ उठा अपने वाहन को भी निकाल ले जाने की फिराक़ में रहते हैं और इस तरह एम्बुलेंस के लिए मुसीबत पैदा करते हैं. हम रोज़ ही लोगों को एम्बुलेंस की प्राथमिकता की अनदेखी करते देखते हैं. लेकिन मुझे लगता है कि अगर प्रशासन भी एम्बुलेंस के महत्व को समझ उसे प्राथमिकता देने लगे तो लोगों के बर्ताव में भी सुधार हो सकता है. आखिर हम वी आई पीज़  को भी तो प्राथमिकता देते हैं.

यह अच्छी ख़बर इतनी ही नहीं थी. इस ख़बर का दूसरा हिस्सा और भी महत्वपूर्ण है. मुम्बई की इस छात्रा को दान में प्रत्यारोपण के लिए जो हृदय मिला वो एक 27 वर्षीय इलेक्ट्रिकल इंजीनियर  का था जिसका निधन एक सड़क दुर्घटना में हुआ था. उसके हृदय को दान करने का फैसला किया उसकी  मां ने. मां ने इसलिए कि उसके पिता तो बहुत पहले ही उसे छोड़ कर दूसरे लोक में जा चुके थे. मां एक गांव में हेल्थ नर्स का काम करके अपना परिवार चलाती है. अंग दान की बात उनके लिए अनजानी नहीं थी, और वो खुद सोचा करती थी कि अगर उन्हें  कभी कुछ हुआ तो वे ज़रूर अपना अंग दान कर किसी की जान बचाने का पुण्य अर्जित करेंगी. लेकिन यह तो उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उन्हें अपने ही बेटे के अंग का दान करने की अनुमति देनी पड़ेगी. जिस ग्रीफ काउंसलर को उनसे इस बाबत बात करनी थी, खुद उनके लिए यह बहुत मुश्क़िल दायित्व था. आखिर कैसे किसी मां से यह कहा जाए कि वे अपने हाल ही में मृत बेटे के अंग को किसी और के लिए काम में लेने की इजाज़त दे दें? लेकिन  उस ग्रीफ काउंसलर प्रकाश का कहना है कि उस बहादुर मां ने न केवल अपनी स्वीकृति दी, यह भी कहा कि उन्हें अपने उस बेटे पर गर्व है जिसकी वजह  से किसी की जान  बच पा   रही है.

तो ये दो सकारात्मक ख़बरें भी अख़बार ने ही दी हैं. असल में हमारे  चारों तरफ़ काफी कुछ अच्छा भी घटित होता है, लेकिन रिवायत कुछ ऐसी बन गई है कि उसकी चर्चा कम होती है और जो अप्रिय तथा अवांछित  घटित होता है वो तुरंत सुर्खियों में आकर हम तक पहुंच जाता है.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर में मंगलवार, दिनांक 24 जून, 2014 को अच्छी भी है हमारे आस-पास की दुनिया शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

1 comment:

Rahul Hemraj said...

सलाम है उस माँ को, उस ड्राइवर को. यह सच है की हमें ऐसी उत्तेजित करने वाली ख़बरों की लत लग गई है. आपका अंदाजे बयाँ भी कोई कम खूबसूरत और प्रेरणास्पद नहीं.