साहित्य की दुनिया में किसी नव प्रकाशित
पुस्तक के लोकार्पण का अवसर लगभग उसी तरह का होता है जैसे विवाह के बाद नव दम्पती
का स्वागत समारोह, या किसी परिवार में हुए शिशु जन्म पर किसी भी बहाने से होने
वाला कोई उत्सव या किसी के नए घर में जाने पर होने वाला गृह प्रवेश या अंग्रेज़ी
परम्परा में हाउस वार्मिंग पार्टी. मक़सद सभी जगह करीब-करीब एक-सा होता है. अपने
निकटस्थ लोगों को सूचना देना और साथ-साथ अपने उल्लास में सहभागी बनाना. जिस तरह
पारिवारिक आयोजनों में निकटस्थ की परिधि बड़ी होती जा रही है वैसा ही साहित्यिक आयोजनों में
भी होता जा रहा है. कई बार लगता है कि
पारिवारिक आयोजन भी जन सम्पर्क प्रयासों में तब्दील होते जा रहे हैं. साफ नज़र आता
है कि आयोजन इन मक़सदों की पूर्ति के साथ-साथ अपनी व्यापक पहुंच और अपने वैभव का
दिखावा करने के लिए भी किया गया है.
किसी की कोई नई किताब प्रकाशित होती है और
वह उसकी ख़बर देते हुए इस खुशी को आपसे साझा करना चाह रहा है इससे बहुत ज़्यादा आजकल
नज़र आने लगा है. रचनाकार इन बातों के अलावा यह प्रदर्शित करने में भी कोई संकोच
नहीं करता है कि उसकी जान-पहचान किन बड़े राजनेताओं और धन कुबेरों से है और वो अपनी
खुशी के लिए कितना ज़्यादा खर्च कर डालने की हैसियत रखता है. लगभग अनपढ़ और कई दफ़ा
तो इस बात की सगर्व सार्वजनिक घोषणा भी करने वाले नेताओं की उपस्थिति से गद्गद
लेखक जब किसी पंच सितारा आरामगाह में अपनी किताब का लोकार्पण करवाता है तो मंज़र
काबिले-दीद होता है. लेकिन यह उसकी अपनी समझ और प्राथमिकता की बात है.
मुझे हाल
ही में एक अपेक्षाकृत नए लेखक की किताब के लोकार्पण समारोह में शामिल होने
का मौका मिला. मैं लेखक या उसके लेखन से परिचित नहीं था लेकिन कुछ मित्रों का
आग्रह था सो चला गया. वक्ताओं की बहुत लम्बी सूची थी. कई तो बाहर से और काफी दूर
से भी बुलाए गए थे. कहना अनावश्यक है कि साहित्य की दुनिया में उनका अच्छा नाम भी
था. ज़ाहिर है कि लेखक ने उन सब को बुलाने और उनके आवास-भोजन आदि पर काफी पैसा खर्च
किया होगा. प्रकाशक तो आम तौर पर करते नहीं हैं. स्थानीय रचनाकारों और साहित्य प्रेमियों की भी उपस्थिति काफी अच्छी
थी. यह सब देखकर मुझे तो अच्छा लगा. जंगल
में मोर नाच रहा है तो उसे देखने वाले भी तो होने चाहिएं. न हो तो जुटाये जाएं!
इसमें क्या हर्ज़ है?
तो आयोजन शुरु हुआ, किताब को लोकार्पित
किया गया और फिर वक्तागण ने एक-एक करके उस किताब की खूबियां बतानी शुरु कीं. संयोग
से, वह किताब मैं पहले ही पढ़ चुका था,
इसलिए वक्तागण जो कह रहे थे उसका अपनी तरह से मूल्यांकन भी करता जा रहा था. हर वक्ता उस किताब की उन्मुक्त सराहना कर रहा
था और यह अस्वाभाविक भी नहीं है. आखिर आप जब किसी के नवजात शिशु को देखने जाते हैं
तो कहते हैं ना कि ‘बच्चा बड़ा प्यारा है’, या किसी शादी में जाते हैं तो ‘जोड़ी
बहुत खूबसूरत है’ कहते हैं या किसी के गृह
प्रवेश पर जाते हैं तो घर के नक्शे की, उसकी रंग योजना की और अगर हो तो उसके
इण्टीरियर की तारीफ में कुछ न कुछ कहते ही हैं! मौका भी है, दस्तूर भी वाली बात!
और मुझे लगता है कि किसी किताब के
लोकार्पण समारोह में की गई टिप्पणियों को इसी भाव से लिया जाना चाहिए. अगर नहीं
लेंगे तो जब उस किताब को वाकई पढ़ेंगे तो बहुत मुमकिन है कि आपको ज़ोर का झटका ज़ोर
से ही लगे. तो इस किताब की भी तारीफ होती रही और मैं और मेरे पास बैठे एक मित्र एक
दूसरे को देख-देखकर और समझ-समझ कर हौले-हौले मुस्कुराते रहे. सब कुछ ठीक चल रहा था. कार्यक्रम अपने समापन की
तरफ बढ़ रहा था.
अब बारी आई अध्यक्ष जी के बोलने की. एक
जाने-माने साहित्यकार और प्रभावशाली वक्ता. खड़े हुए और दो-चार औपचारिक बातों के
बाद एक-एक करके अब तक हुई तारीफों की
बखिया उधेड़ने लगे. जो वे कह रहे थे
उसमें ग़लत कुछ भी नहीं था. जिन कमियों का उन्होंने ज़िक्र किया, वे सब उस
किताब में थी. लेकिन यह भी उतना ही सही है कि अब तक के वक्ताओं ने जो तारीफें की
थी वे भी मिथ्या नहीं थी. बस बात इतनी थी कि पहले वाले वक्ताओं ने किताब की
कमज़ोरियों को छिपाते हुए उसके उजले पक्षों को उजागर किया था और अध्यक्ष जी ने उन
छिपाई हुई बातों पर से भी पर्दा हट दिया
था. कार्यक्रम तो सम्पन्न हो गया, लेकिन
मैं अब भी सोच रहा हूं कि ऐसे मौकों पर क्या कहा
जाना चाहिए और क्या नहीं?
-------
जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत 17 जून, 2014 को जब अध्यक्ष जी उखेड़ने लगे तारीफों की बखिया शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.
No comments:
Post a Comment