Tuesday, May 27, 2014

अनेकता में एकता का देश हमारा

हम सबने अपनी अपनी पाठ्य पुस्तकों में भारत की अनेकता में एकता की बातें पढ़ी हैं, लेकिन इसका सही अनुभव तो अपने जाने-पहचाने प्रदेश से बाहर निकलने पर ही होता है.   खान-पान, बोली-चाली, पहनावा, रीति रिवाज़, जीवन जीने का ढंग – सब कुछ तो अलग मिलता है आपको. खुद मुझे इस बात की बहुत तीव्र अनुभूति अपनी हाल की ऊटी-कुन्नूर की एक छोटी-सी यात्रा में हुई. ऊटी के लिए यहां बैंगलोर में सुबह जल्दी घर से निकले और इस महानगर की सीमा से बाहर आते ही जैसी गंध नथुनों में भरने  लगी, जैसे पेड़ पौधे फूल पत्तियां दिखाई देने लगे, जैसे चेहरे और पहनावे  नज़र आने लगे, वे सब मेरे वास्ते नए थे.  और जैसे  इतना ही काफी न हो, सुमित्रानंदन पंत के शब्दों में कहूं तो यह प्रकृति परिवेश पल-पल बदल रहा था. जैसे पेड़ पौधे अभी देखे, कुछ ही देर बाद उनसे एकदम अलग पेड़ पौधे मिल रहे थे. दक्षिण की एक सुपरिचित श्रंखला के रेस्तरां में नाश्ते के लिए रुके तो वहां वो कुछ भी नहीं था जो आम तौर पर हम नाश्ते में लेने के आदी हैं. बल्कि वो भी नहीं, जिसे हम ‘साउथ इण्डियन फूड’ के नाम से जानते हैं. अलबत्ता उससे मिलता-जुलता ज़रूर. कुछ और आगे जाने पर बच्चों की फरमाइश पर एक विदेशी श्रंखला वाले रेस्तरां में रुके तो वहां सब कुछ स्टैंडर्ड था. यानि कश्मीर से कन्याकुमारी तक, बल्कि देश से बाहर भी   उनकी श्रंखला में वही के वही उत्पाद आप पा सकते हैं. असल में भारतीय जीवन शैली और पाश्चात्य जीवन शैली का यही तो बहुत बड़ा फर्क़ है – कि हम अपनी विविधता  के साथ जीने का आनंद लेते हैं जबकि वे दुनिया की सारी विविधता को कुचल कर एकरस कर देना चाहते हैं.

हम लोग पहले कुन्नूर गए.  कुन्नूर और उसके आसपास देखने को खूब है और हमें यह भी बहुत अच्छा लगा कि कुन्नूर अभी  उस भीड़-भाड़ और अस्त व्यस्तता से काफी हद तक बचा हुआ है जिसके शिकार हमारे ज़्यादातर पर्यटन केन्द्र हो चुके हैं. असल में इस बात का त्रासद एहसास तो हमें अपनी  इस यात्रा के तीसरे दिन ऊटी पहुंच कर हुआ. एक तो रविवार और फिर वहां चल रहे ग्रीष्मकालीन फेस्टिवल के दौरान पुष्प प्रदर्शनी का आखिरी दिन. पूरा कस्बा गाड़ियों और पर्यटकों के अन्य छोटे-बड़े वाहनों से खचाखच भरा हुआ. पैदल चलने वालों के वास्ते तो कोई जगह ही नहीं. और गाड़ियां भी चल नहीं रहीं, रेंग रही. हमने भी जाने किस कुबेला में ऊटी के सर्वोच्च शिखर डोड़ाबेट्टा जाने का फैसला कर लिया. कोई दस किलोमीटर का सफर तीन घण्टों में तै कर जब हम इस शिखर पर पहुंचे तो वहां देखने को नरमुण्ड और सुनने को छोटी-मोटी चीज़ें बेचने वालों की आवाज़ों के सिवा और कुछ नहीं था. पार्किंग की मारा-मारी, भयंकर गन्दगी. लगा कि जितनी जल्दी यहां से भाग  निकलें, अच्छा रहे. और वही किया भी. डेढ घण्टे में नीचे आए और पेट पूजा के लिए रेस्तरां खोजने लगे तो फिर जगजीत की गाई वो गज़ल गुनगुनाने को मज़बूर होना पड़ा – हर तरफ बेशुमार आदमी. जैसे तैसे खाना खाया, ऊटी से भागे और बीस-तीस किलोमीटर दूर आकर चैन की एक लम्बी सांस ली.

तमाम खूबसूरत  विविधताओं का मज़ा कुछ चीज़ें किरकिरा करती हैं, और हर जगह करती हैं. हमारे सारे पर्यटन केन्द्र वहां आने वालों की बढ़ती जा रही भीड़ से त्रस्त हैं और जिन लोगों पर  उनकी देखरेख का दायित्व है वे इस त्रास को कम करने के लिए कुछ भी करते दिखाई नहीं दे रहे हैं. परिणाम  यह कि पर्यटन स्थल सुख चैन की बजाय अशांति और आपाधापी दे रहे हैं. आप किसी भी पर्यटन स्थल पर चले जाएं, सफाई नाम की चीज़ आपको ढूंढे से भी नहीं मिलेगी. पीने  का पानी तो अब  सुलभ कराना बन्द ही कर दिया गया है (बोतल खरीदिये और प्यास बुझाइये!) साफ सुथरे शौचालय भी मुश्क़िल से मिलते हैं. क्या पर्यटन का काम करने वालों को पर्यटकों की इस ज़रूरत का कोई अनुमान नहीं होता है?

इधर दक्षिण में एक और बात  का बड़ी शिद्दत से एहसास हुआ. यहां आपको सब जगह तमाम निर्देश और सूचनाएं यहां की प्रांतीय भाषाओं  में लिखी मिलती हैं. प्रांतीय भाषाओं के प्रोत्साहन की बात अपनी जगह ठीक हो सकती है, लेकिन इससे अन्य भाषा भाषियों को  जिन कठिनाइयों से रूबरू होना पड़ता है उनके बारे में भी ज़रूर सोचा जाना चाहिए. बहुत सारी जगहों पर एक-सा कुछ लिखा हुआ देखकर जब मैंने एक स्थानीय से जानना चाहा कि यह क्या लिखा हुआ है तो उसने बताया कि ‘फूल तोड़ना मना है!’  क्या यही बात  छवि के माध्यम से नहीं कही जा सकती थी?  
इन पर्यटन स्थलों पर घूमते हुए मुझे अपने देखे विदेशी पर्यटन स्थल भी याद आते रहे. वहां हर पर्यटन स्थल पर उससे जुड़े स्मृति चिह्न, जैसे की रिंग, गिलास, नेल कटर,  चाय के कोस्टर, टी शर्ट, टोपियां, वगैरह ज़रूर मिलते हैं और जिन्हें बतौर यादगार पर्यटक खरीदकर अपने साथ ले जाते हैं. हमारे यहां ऐसा क्यों नहीं हो सकता? इसमें तो सरकार को भी कुछ नहीं करना है! हर पर्यटन स्थल पर वहां की प्रामाणिक जानकारी देने वाला खूब साहित्य (प्राय: निशुल्क) मिल जाता है. क्या हमारे यहां इस दिशा में कोई कुछ नहीं कर सकता? और आखिरी बात यह कि अब जबकि हार हाथ में मोबाइल है, और  उसमें स्टिल और वीडियो  दोनों तरह के कैमरे हैं, फोटोग्राफी वर्जित है या कैमरा शुल्क इतने रुपये का क्या मतलब है?

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत 27 मई, 2014 को किंचित संशोधित रूप में जब मुश्क़िलों ने किरकिरा किया सफर का मज़ा शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, May 20, 2014

स्वस्थ समाज और मज़बूत लोकतंत्र के लिए

देश में चुनाव सम्पन्न हो गए और नई सरकार की तस्वीर साफ हो गई है. इस बार के चुनाव कई मामलों में बेहद अनूठे रहे. वैसे तो हर बार यही कहा जाता है कि परिणाम  अप्रत्याशित रहे हैं, लेकिन इस बार के परिणाम ज़्यादा ही  अप्रत्याशित रहे हैं. इतने एक पक्षीय फैसलों की तो घोर से घोर समर्थकों ने भी आशा नहीं की थी. निश्चय ही यह उम्मीद की जानी चाहिए कि नई सरकार बिना किसी दबाव और समझौतों के काम करेगी, आम जन के जीवन को बेहतर बनाने के लिए कार्य करेगी और जनाकांक्षाओं पर खरी उतरेगी.

इस बार के चुनावी माहौल में दो बातें बहुत ख़ास रही हैं. इन चुनावों में जितनी कटुता देखने को मिली, और एक दूसरे के प्रति जितनी  ख़राब भाषा का प्रयोग किया गया वैसा अब तक कभी नहीं हुआ था. वैसे इस बार के चुनावों को लोगों के अनुपम हास्य बोध के लिए भी याद किया जाना चाहिए. अपने चहेते नेताओं और दलों के पक्ष का समर्थन करने के लिए विरोधियों को लेकर जैसे-जैसे लतीफे,  प्रसंग, कार्टून वगैरह  रचे गए वैसे और उतनी मात्रा में शायद ही पहले कभी रचे गए हों. लेकिन यहां भी अधिकतर यह प्रवृत्ति देखने को मिली कि हम तो सबका कैसा भी मखौल उड़ा सकते हैं लेकिन हमारी तरफ देखने की कोई ज़ुर्रत भी न करे! अब जब चुनाव सम्पन्न हो चुके हैं, यह उम्मीद की जानी चाहिए कि इस सब अप्रिय बातों को भुला दिया जाएगा और पूरी सद्भावना और सदाशयता के साथ काम किया और करने दिया जाएगा.

दूसरी बात जो ग़ौर तलब है वह यह कि इन चुनावों में पहली बार पर सोशल मीडिया, विशेष रूप से फेसबुक, ट्विट्टर,  वाट्सएप्प आदि  का इतने बड़े पैमाने इस्तेमाल हुआ. वैसे तो इस इस्तेमाल की पदचाप हाल ही में सम्पन्न हुए विधान सभा चुनावों में भी  काफी साफ सुनाई दी थी और एक नए जन्मे दल के लिए कहा गया था कि उसने इस माध्यम का बहुत सशक्त प्रयोग किया है, लेकिन इस संसदीय चुनाव में यह प्रयोग और बड़े पैमाने पर हुआ. लगभग सभी  राजनीतिक दलों ने बहुत योजनाबद्ध रूप से इन माध्यमों को अपने पक्ष  में इस्तेमाल किया और  इस कुशलता के साथ किया कि वे अपने समर्थकों को भावनात्मक रूप से अपने साथ इस हद तक जोड़ने में कामयाब रहे कि राजनीतिक पक्षधरता और संलग्नता निजी और पारिवारिक सम्बन्धों तक पर भारी पड़ गई. मैं कल ही यहां यहां बैंगलोर में एक ख़बर पढ़ रहा था कि दो परिपक्व और खासे शिक्षित युवाओं में बरसों पुरानी  गहरी दोस्ती सिर्फ इसी बात पर टूट गई कि उनमें से एक किसी एक राजनीतिक दल का कट्टर समर्थन कर रहा था. हम लोग जो फेसबुक पर सक्रिय हैं, उन्होंने भी यह बात लक्षित की है कि इस चुनाव के दौरान ‘अनफ्रेण्ड’ करने का कारोबार कुछ ज़्यादा ही चला है.

निश्चय ही इस पूरे सिलसिले में अपने राजनीतिक विचार के प्रति हमारी गहरी संलग्नता के साथ ही दूसरे के विचार और उसकी भावनाओं के प्रति असहिष्णुता की भूमिका को नज़र अन्दाज़ नहीं किया जा सकता है. अलग राजनीतिक विचारों का होना अस्वाभाविक और असामान्य बात नहीं है. यह तो प्रजातंत्र का मूल है. विचार वैभिन्य जितना देश या समाज में हो सकता है, उतना ही परिवार और दोस्तों के  बीच  भी हो सकता है. हम अलग-अलग विचार और पसन्द नापसन्द रखकर भी साथ रह सकते हैं, और प्रेम से रह सकते हैं – इस बात पर ज़ोर देने की बेहद ज़रूरत इन चुनावों ने महसूस कराई है. असल में, अब तक यह बात कि हमारा मत किसको जाएगा, गोपनीय रहती आई है और इस वजह से बहुत सारे टकरावों से भी हम बचे  रहे हैं. राजनीतिक दलों के प्रचारक अपना काम  करते रहे और मतदाता अमन चैन की ज़िन्दगी जीता रहा. लेकिन इस बार, कदाचित पहली बार, सोशल मीडिया पर लोगों ने अपनी पसन्द  खुलकर बताई और न सिर्फ यह किया, बल्कि जिनकी पसन्द उनसे भिन्न थी, उन पर तमाम तरह के उचित-अनुचित, सही ग़लत  प्रहार भी किए. एक तरह से आम मतदाता भी पार्टी का प्रचारक बन कर उभरा.  सारी खुराफत की जड़ यही बात  थी. अब इसके मूल में बहुत सारी बातें हो सकती हैं. हो सकता है ऐसा इसलिए हुआ हो कि देश का एक बड़ा वर्ग परिवर्तन के लिए व्याकुल था और वह उससे कम के लिए क़तई प्रस्तुत नहीं था. और भी बहुत  कुछ इसके मूल  में हो सकता है, जिसका विश्लेषण यहां प्रासंगिक नहीं होगा. लेकिन अब, जबकि वह परिवर्तन  हो चुका है, यह बहुत ज़रूरी है कि इस दौर की तमाम कटुताओं को खुले मन से विस्मृत कर दिया जाए, और न सिर्फ इतना बल्कि यह भी सोचा जाए कि भविष्य में इससे कैसे बचा जाएगा. चुनाव फिर होंगे, हर पाँच  बरस में होंगे. फिर हम किसी के पक्ष में और किसी के प्रतिपक्ष में होंगे. लेकिन हमारी पारस्परिक सद्भावना कभी आहत न हो, हमारे विचारों के कारण हमारे निजी और पारिवारिक रिश्ते तनिक भी क्षतिग्रस्त न हों, इसका ध्यान  ज़रूर रखा जाना चाहिए. यह बात एक मज़बूत  लोकतंत्र के लिए जितनी ज़रूरी है उतनी ही ज़रूरी एक स्वस्थ और परिपक्व समाज के लिए भी है.

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत 20 मई, 2014 को आम मतदाता बनकर उभरा पार्टी प्रचारक शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ. 

Tuesday, May 13, 2014

मैंने सर झुकाया उसके सामने!

अपनी कामकाज़ी ज़िन्दगी के करीब 36 बरस कॉलेजों में गुज़ारे तो स्वाभाविक ही है कि अपनी स्मृतियों के पिटारे में ज़्यादा माल भी वहीं का है. जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो पाता हूं कि उस ज़िन्दगी में काफी कुछ ऐसा था जिसे अपने पाठकों से साझा करूंगा तो उनके चेहरों पर भी मुस्कान आ जाएगी. मैंने अपने इस सुदीर्घ अध्यापन काल में अपने विद्यार्थियों से काफी कुछ सीखा है. कभी अपनी तरफ़ से सीखा तो कभी उन्होंने आगे बढ़कर  सिखाया. याद आता है कि अपनी नौकरी के शायद पहले या दूसरे बरस में जब मैं उसकी किसी शरारत पर अपने एक विद्यार्थी को बहुत ही शालीन और मुलायम लहज़े में ‘डांट’ चुका (और ज़ाहिर है कि वह डांट निष्फल रही) तो कक्षा से बाहर निकलते समय मेरे एक अन्य विद्यार्थी ने मुझे सलाह दी कि अगर मुझे किसी को डांटना है तो अपनी आवाज़ को तेज़ और लहज़े को कड़ा रखना होगा. उसने कहा कि अगर आप इसी मुलायम लहज़े में डांटेंगे तो कोई असर नहीं होगा. बाद में इसी तरह बहुत सारी अन्य ट्रिक्स ऑफ द ट्रेड सीखने को मिलीं.

लेकिन आज मुझे एक अन्य प्रकार का प्रसंग आपसे बांटने का मन हो रहा है. उन दिनों कॉलेजों में विद्यार्थियों के लिखे को प्रकाशित करने के लिए महाविद्यालय पत्रिकाएं निकालने का रिवाज़ था, और करीब-करीब हर महाविद्यालय कम से एक एक वार्षिक पत्रिका तो ज़रूर ही प्रकाशित करता था. कम से कम इसलिए कहा कि बहुत सारे महाविद्यालय इसके अलावा मासिक, त्रैमासिक आदि पत्रिकाएं  भी निकालते थे. अब आहिस्ता-आहिस्ता ऐसी तमाम गतिविधियां और परम्पराएं नष्ट हो चुकी हैं. हो सकता है कि उनकी जगह नई गतिविधियों ने ले ली  हो. तो मेरे उस कॉलेज में भी एक वार्षिक पत्रिका निकलनी थी और उसका सम्पादक मुझे बनाया गया था. मैंने नोटिस बोर्ड पर सूचना लगवा दी कि अपनी रचनाएं प्रकाशित करवाने के इच्छुक  विद्यार्थी अमुक तिथि तक मुझे अपनी रचनाएं दे दें. मेरा आग्रह इस बात  पर रहता था कि हम विद्यार्थियों की मौलिक रचनाएं प्रकाशित करें. कई अन्य सम्पादक तथाकथित  संकलित रचनाओं वाली पत्रिकाएं भी  निकाला करते थे. मौलिकता के मेरे आग्रह को लेकर कई बार विद्यार्थियों से छोटी-मोटी बहस भी हो जाती थी. लेकिन मैं अपने सोच पर कायम रहने की भरसक कोशिश करता था.

काफी सारी रचनाएं आ चुकी थीं. एक दिन एक विद्यार्थी एक पन्ना  लेकर मेरे पास आया और बोला कि  “सर! यह मेरी शायरी है, इसे पत्रिका में प्रकाशित कर दीजिए.”  सामान्यत: तो मैं रचनाएं लेकर अपने पास रख लेता था और बाद में उन्हें देखकर गुणावगुण के आधार पर उनको प्रकाशित करने न करने का निर्णय  करता था लेकिन उस दिन न जाने क्यों मेरा इरादा बदल गया. मैंने एक नज़र उस विद्यार्थी के दिए पन्ने  पर डाली तो पाया  कि अरे! यह तो मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़ल है. सोचा, अगर यह कहूंगा कि यह ‘शायरी’ तुम्हारी मौलिक रचना नहीं है तो विद्यार्थी को बुरा लगेगा, इसलिए मैंने अपनी बात कहने के लिए ज़रा घुमावदार  रास्ता चुना. गम्भीरता ओढ़ते हुए मैंने उस पन्ने की चन्द लाइनें पढ़ीं और फिर उससे बोला कि यह तो बहुत अच्छी रचना है.  विद्यार्थी प्रसन्न हुआ. मैंने उससे पूछा  कि यह किस विधा की रचना है? उस विद्यार्थी को मेरा विधा शब्द समझ में नहीं आया, तो मैंने अपनी बात को सरल करते हुए पूछा कि यह ग़ज़ल है, नज़्म है, या रूबाई है?  विद्यार्थी ने पूरे आत्म विश्वास से मुझ अज्ञानी को ज्ञानवान बनाते हुए कहा – “सर, मैंने कहा ना कि यह शायरी है!”  मैंने भी जैसे उसकी बात को समझते हुए  कहा कि “अच्छा, अच्छा! यह शायरी है. मुझे तो उर्दू आती नहीं है, इसलिए यह बात मालूम नहीं थी.”  फिर मैंने उस ‘शायरी’ के एक कठिन शब्द का अर्थ उससे जानना चाहा  जिस पर उस महान विद्यार्थी का जवाब बहुत ही शानदार था. बोला, “सर! शायर ऐसे कोई शब्दों को लेकर थोड़े ही शायरी करता  है. उसके मन में जब खयाल आते हैं तो शब्द अपने आप कागज़ पर उतर आते हैं!”  अब उससे किसी और शब्द का अर्थ पूछने का कोई मतलब ही नहीं था. मैंने एक बार फिर उसकी महान शायरी की (जो वाकई  महान थी! आखिर मिर्ज़ा ग़ालिब की जो थी) तारीफ की और उससे पूछा कि क्या उसने और भी ऐसी शायरी लिखी है? मैंने उससे अपनी यह इच्छा ज़ाहिर की कि अगर उसने लिखी हो तो मैं उन्हें भी प्रकाशित करंना चाहूंगा. वो विद्यार्थी वाकई बहुत महान था! बोला: “सर! अभी तो यह एक ही लिखी है! जब और खयाल आएंगे तो और लिखूंगा!” मैं उस महान विद्यार्थी और बड़े शायर के सामने नत मस्तक होने के सिवा और कर भी क्या सकता था? हां, इतना और बताता चलूं कि मैं कई बरस उस कॉलेज में रहा, और शायद फिर कभी उस विद्यार्थी को वैसे महान खयाल नहीं आए!

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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत 13 मई 2014 को छात्रों से सीखी ट्रिक्स ऑफ द ट्रेड शीर्षक से प्रकाशित संस्मरण का मूल आलेख.         

Tuesday, May 6, 2014

जब ज़िंदगी इतनी इंस्टैण्ट नहीं थी!

कुछ सुविधाओं और चीज़ों के हम इतने अधिक अभ्यस्त हो जाते  हैं कि यह खयाल तक नहीं आता कि जब ये हमें सुलभ नहीं थी तब हमारी ज़िंदगी कैसे चलती थी, और वो ज़िंदगी बेहतर थी या बदतर थी!  अब दूर संचार को ही लीजिए. अब मोबाइल हमारी ज़िंदगी से इतना एकाकार हो चुका है कि इसके बिना हम अपने आप को अधूरा समझने  लगे हैं. अगर आप किसी बस या ट्रेन में सफ़र कर रहे हों और कोई स्टेशन आने वाला हो, तब का मंज़र याद कीजिए. मोबाइल की घण्टियां (बल्कि किसम किस्म की रिंग टोन्स) आपको चेता देती हैं कि अब कोई स्टेशन आने वाला है. या तो आपका हम सफर अपने किसी मित्र-परिजन को बता रहा होता है कि उसकी मंज़िल आने ही वाली है या फिर वो प्रतीक्षारत अपने किसी परिजन को अपने जल्दी ही पहुंचने का सुसमाचार दे रहा होता है.

लेकिन बहुत पुरानी बात नहीं है जब हम सब इस सुविधा के बिना भी जी रहे थे. और न सिर्फ जी रहे थे, मज़ेदार अनुभव भी कर रहे थे. मैं एक कस्बाई  कॉलेज में हिंदी पढ़ाता था.  मेरे कॉलेज का हिंदी विभाग बहुत सक्रिय था. हम लोग अक्सर कोई न कोई आयोजन करते रहते थे. प्रांत का हिंदी का शायद ही कोई बड़ा लेखक हो जिसका सान्निध्य उन दिनों हमारे विभाग को न मिला हो. तो हुआ यह कि हमने पास के एक बड़े शहर के एक नामी रचनाकार को अपने यहां काव्य पाठ और व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया. वो चिट्ठियों के आदान-प्रदान वाला ज़माना था. टेलीफोन धीरे-धीरे अपनी जगह बना रहा था और मोबाइल की तो कोई पदचाप भी सुनाई नहीं दे रही थी. चिट्ठियों के आदान प्रदान से उनका कार्यक्रम तै हो गया. कस्बा छोटा था, होटल संस्कृति तब चलन में नहीं थी. तय किया गया कि उन्हें बस से उतार कर साथियों में से किसी के घर ले जाएंगे ताकि वे फ्रेशहोना चाहें तो हो लें, फिर कॉलेज ले जाकर उनका कार्यक्रम करा लेंगे और उसके बाद किसी के घर पर सब लोग एक साथ भोजन करेंगे और उसके बाद उन्हें उनकी सुविधानुसार किसी बस में बिठा कर विदा कर देंगे.

बस स्टैण्ड दूर था, उससे पहले एक चौराहा था जहां ज़्यादातर सवारियां उतरती थी, और वो चौराहा हमारे उस साथी के घर (और कॉलेज)  के भी निकट था, जहां उन्हें पहले ले जाना तै हुआ था. हम चार साथी उस चौराहे पर खड़े हो गए कि बस आएगी तब अपने अतिथि को वहीं उतार लेंगे. एक-एक करके तीन बसें वहां से गुज़र गईं, लेकिन हमारे अतिथि नज़र नहीं आए. उनके पहुंचने का सम्भावित समय भी बीत चुका  था. सोचा किसी मज़बूरी के चलते वे नहीं आ पाए हैं. निराश मन कॉलेज गए, कार्यक्रम स्थगित किया और अपने इतर कामों में व्यस्त हो गए.

तीसरे दिन डाक से उन साहित्यकार महोदय का पत्र आया. बहुत संयत भाषा में, लेकिन शब्दों के पीछे से उनकी नाराज़गी झांक रही थी. पत्र उन्होंने शायद लिखा भी अपनी नाराज़गी के इज़हार के लिए ही था. जो कुछ उन्होंने लिखा उसका सार यह था कि जिस बस से उन्होंने आने की सूचना दी थी, उस बस से वे हमारे कस्बे में पहुंचे, बस स्टैण्ड पर जब बस रुकी तो खिड़की में से झांक कर देखा कि वहां हममें से कोई है या नहीं! उन्हें हममें से कोई वहां दिखाई नहीं दिया. वे बस से उतरे, और क्योंकि उसी वक़्त एक बस वापस उनके बड़े शहर जाने को तैयार खड़ी थी, उसमें बैठ कर वे अपने शहर लौट गए. उन्होंने हमसे कोई शिकायत नहीं की. यह उनका बड़प्पन था.

आज पीछे मुड़कर इस घटना को याद करता हूं तो उनकी खुद्दारी के प्रति माथा झुक जाता है. उन्हें लगा होगा कि जिन लोगों में इतनी भी तमीज़ नहीं है कि अपने मेहमान के स्वागत के लिए पहुंचें, उनके यहां क्या जाना! बेशक, इसमें हमारी कोई ग़लती नहीं थी. बसों की भीड़भाड़ में और लोगों के चढ़ने-उतरने की आपाधापी में न उन्होंने हमें देखा और न हमने उन्हें! लेकिन उन्होंने अपने पत्र में एक भी कठोर शब्द नहीं लिखा. यह कोई मामूली बात नहीं है. लेकिन अगर आज की तरह  मोबाइल चलन में होता तो निश्चय ही यह घटना घटित नहीं हुई होती. थोड़ी-सी देर उनका इंतज़ार  करने के बाद हम लोग जाने कितनी दफ़ा उनके मोबाइल को ज़हमत दे चुके होते! और इसके बावज़ूद भी अगर कोई चूक हो गई होती, और उसके बाद उनसे बात हुई होती तो शायद उन्होंने भी हमसे अपनी नाराज़गी व्यक्त की होती, और हमने भी कुछ न कुछ ज़रूर कहा होता  जिससे बदमज़गी पैदा हुई होती.  सोच-समझकर अपने आप को व्यक्त करने की जो सुविधा चिट्ठी में है वो भला मोबाइल की तात्कालिकता में कहां? अपनी तात्कालिकता में मोबाइल पर तो हम उनसे नाराज़ हुए होते और वे हमसे! लेकिन अपने घर पहुंच कर चिट्ठी लिखते हुए वे अपनी नाराज़गी पर काबू पा चुके होंगे.
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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में दिनांक 06 मई, 2014 को मेरे साप्ताहिक  कॉलम कुछ इधर कुछ उधर  के अंतर्गत 'तब ज़िंदगी इतनी इंस्टैण्ट नहीं थी' शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.