Tuesday, March 25, 2014

सलाम कीजिए...आली जनाब आए हैं!

कमलेश्वर के उपन्यास काली आंधीपर आधारित आंधी फिल्म में गुलज़ार साहब का लिखा हुआ एक गीत था: 'सलाम कीजिए..आली जनाब आए हैं. ये पाँच सालों का देने हिसाब आए हैं..'इन दिनों चारों तरफ़ इन्हीं  आली जनाबों की धूम है. लेकिन एक फर्क़ है. फर्क़ यह है कि आजकल आली जनाब अपने पांच सालों का हिसाब देने की बजाय दूसरों के पांच सालों का हिसाब मांगने में ज़्यादा रुचि लेते हैं. वैसे इससे कोई ज़्यादा फर्क़ नहीं पड़ता. ये लोग आपस में ही एक दूसरे को इतना बेपर्दा किए दे रहे हैं कि हिसाब देने न देने की कोई अहमियत नहीं रह गई है. इन सबके बारे में जान कर बेचारा मतदाता शायर खलिश बडौदरा की तरह सोच रहा है: ऐसे-वैसे कैसे-कैसे हो गए/ कैसे-कैसे ऐसे-वैसे हो गए! 

चुनाव के दिनों में जो कुछ भी होता है वो सब हो रहा है. जनता या देश की सेवा के लिए अपनी भूली-बिसरी ललक का यकायक याद आ जाना, टिकिटों  के लिए मारा-मारी, रूठना-मनाना, एक से दूसरे दल में आना-जाना, एक चुनाव क्षेत्र की भरपूर सेवा कर लेने के बाद दूसरे चुनाव क्षेत्र का रुख करना, कहीं टिकिट लेने के लिए तो कहीं टिकिट न लेने के लिए अजीबो-गरीब तर्क देना, अपनी कमीज़ को दूसरों की  कमीज़ से उजला बताना, अपने दागों को अच्छा साबित करना सब कुछ हो रहा है.

इनमें से हरेक अपनी जीत के प्रति पूरी तरह आश्वस्त है, या कम से कम आश्वस्त होने का दिखावा  कर रहा है, ताकि माहौल  बना रहे. टिकिट मिल जाने के बाद अपने समर्थकों के साथ जुलूस में जाकर नामांकन पत्र  दाखिल किए जाएंगे और उसके बाद पूरी विनम्रता से मतदाता को एहसास कराया जाएगा कि पितु मातु सहायक स्वामी सखाजो भी हो तुम्हीं हो. तुम्हीं  मेरे मंदिर, तुम्हीं  देवता हो. कम से कम वोटिंग मशीन पर बटन दबाने तक तो हो ही. बाद की बाद में देखी जाएगी. फिर तुम कहां, हम कहां! ढूंढते रह जाओगे!

यह सब पिछले चुनावों में भी हुआ था, उससे पिछले में भी, उससे भी पिछले में भी, और इंशाअल्लाह आगे भी होता रहेगा. और इस सबके बीच हमारा जनतंत्र परिपक्व होता रहेगा, आगे बढ़ता रहेगा, मज़बूत होता रहेगा. हम सब भी इन  सबका भरपूर आनंद लेते हैं. जब हम लोग छोटे थे तब राजनीतिक दलों वाले बिल्ले वगैरह बांटा करते थे और हम बच्चे बड़ी हसरत भरी निगाहों से दाताओं को ताका करते थे. अब जीवन स्तर ऊंचा उठ गया है, उनका भी और हमारा भी. आज बच्चे, कम आय वालों की बस्तियों के बच्चे  तक,  बिल्लों जैसी तुच्छ  चीज़ों के लिए नहीं भागते हैं. निर्वाचन विभाग ने उम्मीदवारों द्वारा किए जाने वाले खर्च की सीमा यों ही तो नहीं बढ़ाई है. चुनाव बहुत तेज़ी से हाई टेक हुए हैं. हाई टेक भी और हाई प्रोफाइल भी. अब उम्मीदवार मतदाता के दर पर आने की जहमत भी कम ही उठाते हैं. इसकी जगह बड़ी सभाओं, उनके लाइव टेलीकास्टों और सोशल मीडिया के भरपूर प्रयोग ने ले ली है. प्रचार के तरीके अधिक परिष्कृत और अधिक अप्रत्यक्ष होते जा रहे हैं. इन तमाम बातों का असर यह ज़रूर हो रहा है कि अब कम साधन सम्पन्न उम्मीदवार या दल के लिए चुनाव  जीतना तो दूर, लड़ना भी दुश्वार होता जा रहा है. बात सब आम की करते हैं, लेकिन होते ख़ास हैं. वो दिन हवा हुए जब लोग साइकिल पर घूम कर या ज़्यादा से ज़्यादा किसी जर्जर जीप पर सवार  होकर चुनाव जीत लिया करते थे. अब नेता तो  दूर रहा, कार्यकर्ता भी इन विनम्र  साधनों से काफी ऊपर उठ चुका है.

बदलाव पर आप चाहे जितना रोना-धोना कर लें, या शालीन भाषा में कहें तो विमर्श कर लें, वो होकर रहता है. उसे रोक पाना नामुमकिन होता है. लेकिन इन तमाम  बदलावों के बीच एक बात अभी भी जस की तस है, और वो है नेता और जनता का रिश्ता. आपने मरहूम अहमद फ़राज़ साहब की ये ग़ज़ल ज़रूर सुनी होगी. तमाम नामचीन गायकों ने इसे गाया है. एक दफ़ा फिर इस ग़ज़ल के चंद अशआरों को सुनिये और सुनते हुए महबूब की बजाय अपने लीडर का तसव्वुर कीजिए. शायद कुछ मज़ा आए:

रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ
, फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ

पहले से मरासिम[1] न सही, फिर भी कभी तो
रस्मो-रहे-दुनिया ही निभाने के लिए आ

किस-किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझसे ख़फ़ा है, तो ज़माने के लिए आ 

अब तक दिले-ख़ुशफ़हम[2] को हैं तुझसे उमीदें
ये आख़िरी शम्ऐं भी बुझाने के लिए आ

जैसे तुम्हें आते हैं न आने के बहाने 
ऐसे ही किसी रोज़ न जाने के लिए आ



[1] मेल-जोल
[2] शीघ्र बात समझ जाने वाला दिल
●●●

जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत 25 मार्च, 2014 को प्रकाशित आलेख का मूल पाठ! 

Tuesday, March 18, 2014

तुम क्या जानो क्या हाल कर दिया था तुमने हमारा

हम सबको इस तरह के अनुभव होते ही रहते हैं. किसी की तनिक-सी उदासीनता, या लापरवाही, या ग़ैर ज़िम्मेदारी – आप जो भी चाहे नाम दे लें उसे, दूसरों के लिए बहुत बड़ी परेशानी का सबब बन जाती है. ऐसा नहीं है कि ऐसी  ग़लती सिर्फ दूसरों से ही होती है, मुझसे  कभी हुई ही नहीं. मुझसे भी शायद अनेक दफ़ा ऐसी चूक हुई होगी, और मेरे अनजाने में उसे दूसरों ने भुगता होगा. इसीलिए आज  किसी और की एक चूक की चर्चा आपसे कर रहा  हूं.

उस दिन अस्पताल गया तो किसी और ही काम से था, लेकिन लगा कि अपना बीपी भी लगे हाथों चैक करवा लूं. डॉक्टर साहब से दुआ-सलाम थी. उन्होंने बीपी चैक करके  कहा कि बेहतर होगा मैं अपना ईसीजी करवा लूं. न सिर्फ कहा, ईसीजी करने वाले टैक्नीशियन को बुला मुझे उनके हवाले भी कर दिया. तब मैं जयपुर के नज़दीक, कोटपुतली  के स्नातकोत्तर  कॉलेज में उपाचार्य था. कुछ ही दिनों  पहले सिरोही से पदोन्नति पर वहां पहुंचा था. संयोगवश टैक्नीशियन महोदय उसी कॉलोनी में रहते थे जिसमें मैं रहता था, और मुझे पहचानते थे. उन्होंने तसल्ली से मेरा ईसीजी किया और उसका प्रिण्ट आउट मुझे देकर डॉक्टर साहब के पास भेज दिया.

ईसीजी की उस रपट को देखते ही डॉक्टर साहब की मुख मुद्रा गम्भीर हो गई. उन्होंने सलाह दी कि मुझे फौरन जयपुर जाकर एस एम एस अस्पताल में खुद को दिखाना चाहिए. मैंने पूछा कि क्या कोई ख़ास चिंता की बात है, तो वे मेरे सवाल  को टाल गए. मुझे कुछ ही देर बाद एक शादी में शमिल होने के लिए सिरोही जाने के लिए कोटपुतली से निकलना  था. घर आया. मुंह ज़रूर ही लटका हुआ होगा. पत्नी ने पूछा कि क्या बात है, तो मैंने कोई जवाब नहीं दिया. उन्होंने भी  स्थिति की गम्भीरता समझ ज़्यादा ज़ोर नहीं दिया. अपने पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार हम लोग कोटपुतली से निकल कर अगली सुबह सिरोही पहुंच गए. मैं रास्ते भर अनमना बना रहा. स्वाभाविक ही है कि मेरे अनमनेपन का असर पत्नी पर भी पड़ा. शादी में जाने का उत्साह और उल्लास हवा हो चुका था.

नहा धोकर सिरोही के सरकारी अस्पताल पहुंचा, जहां मेरे एक अत्यंत आत्मीय डॉक्टर सामने ही मिल गए. उदासी शायद मेरे चेहरे पर चिपकी हुई थी. उन्होंने वजह पूछी तो मैंने ईसीजी की रपट आगे कर दी. उन्होंने एक नज़र उस पर डालते ही पूछा कि “अग्रवाल साहब, यह किसकी रिपोर्ट उठा लाए?”  जब मैंने कहा कि यह तो मेरी ही रिपोर्ट है, तो उन्होंने अविश्वास  भरी नज़र से मुझे देखा, जैसे कह रहे हों, क्यों मज़ाक करते हो? मैंने फिर से उन्हें कहा कि यह मेरी ही रिपोर्ट  है, कल ही मैंने अपना ईसीजी करवाया है और इसी के  आधार पर डॉक्टर साहब ने मुझे राज्य के सबसे बड़े अस्पताल चले जाने की अर्जेण्ट सलाह दी है.

मेरे मित्र डॉक्टर साहब को शायद उस रिपोर्ट पर क़तई विश्वास नहीं हो रहा था. असल में कोतपुतली जाने से पहले मैं उनके नियमित सम्पर्क में था और मेरे स्वास्थ्य की स्थिति  से वे भली-भांति परिचित थे. उन्होंने पहले मेरा बीपी चैक किया और फिर मुझे एक बार और ईसीजी करवा लेने के लिए कहा. मैं बड़ी उलझन में था कि मामला आखिर क्या है! लेकिन अपने यहां इस बात का कोई रिवाज़ नहीं है डॉक्टर, चाहे वो आपका कितना ही नज़दीकी क्यों न हो, आपके मर्ज़ के बारे में आपसे खुलकर  बात करे. बहरहाल, मैंने एक बार फिर अपना ईसीजी करवाया और उसकी रिपोर्ट लेकर डॉक्टर साहब के पास पहुंचा. एक नज़र उस पर डालते ही वे मुझसे बोले, “देखो, मैंने कहा था ना कि वो रिपोर्ट आपकी हो ही नहीं सकती! आप एकदम ठीक हैं!” उन्होंने मुझे एक बार फिर आश्वस्त किया कि मैं तनिक भी चिंता न करूं, सब कुछ ठीक है, और फिर मुझे चाय पिला कर  विदा किया.

माहौल बदल चुका था. खुशी-खुशी घर  आया, पत्नी को सारा किस्सा बताया राहत की खूब लम्बी सांस ली, बहुत मज़े से शादी का लुत्फ लिया, और फिर हम दोनों कोटपुतली लौट गए.
यह संयोग ही था, कि अगले दिन जैसे ही मैं घर से कॉलेज जाने के लिए निकला, सामने वे तकनीशियन महोदय मिल  गए. मैंने शिकायत भरे लहज़े में उनसे कहा कि आपने मेरा कैसा ईसीजी किया.......मेरी तो जान ही निकाल दी! पहले तो उन्होंने मुझसे पूरा वाकया सुना, और फिर बड़े बेपरवाह लहज़े में बोले, “हां, सर, हमारी वो मशीन थोड़ी खराब है. कई बार वो ग़लत रिपोर्ट  दे देती है.” यानि उन्हें अपनी मशीन के चाल चलन की जानकारी थी.

मुझे समझ में नहीं आया कि मैं उनसे क्या कहूं? उनकी मासूमियत लाजवाब थी. होती भी क्यों नहीं? उन्हें क्या पता कि मैं इस बीच कितने विकट मानसिक तनाव से गुज़र चुका था!

●●●


जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै  में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत मंगलवार, 18 मार्च 2014 को 'खराब मशीन की ईसीजी ने बढ़ा दी धड़कन' शीर्षक से प्रकाशित लेख का मूल पाठ 

Tuesday, March 11, 2014

अच्छे काम की तारीफ़ भी की जानी चाहिए!

कुछ विभागों के बारे में इतना ज़्यादा  नकारात्मक पढ़ने सुनने को मिल चुका होता है कि हम यह मानने को तैयार ही नहीं होते हैं कि ये विभाग कोई सही और  अच्छा काम भी करते हैं! ऐसे विभागों की अगर कोई सूची बनाई जाए तो पुलिस विभाग का नाम उसमें काफी ऊपर आएगा. लेकिन अगर कोई कहे कि पुलिस के बारे में जो बातें बार-बार कही-सुनी जाती हैं, वे पूरी तरह सच नहीं है, और पुलिस ईमानदारी से काम करती है, तो भला कौन विश्वास करेगा? मैं भी नहीं करता, अगर मुझे एक ख़ास अनुभव नहीं हुआ होता. और उस अनुभव ने पुलिस के बारे में मेरी धारणा को एकदम बदल दिया.

बात ज़्यादा पुरानी नहीं हुई है. हम लोग जयपुर में अपना घर बंद करके छह महीनों के लिए अमरीका गए थे. पड़ोसी बहुत अच्छे हैं, इसलिए किसी को घर पर सुलाया नहीं, उन्हीं को कह कर चले गए कि वे घर का ध्यान रखें! साढ़े चार महीने सकुशल निकल गए. अचानक एक दिन जयपुर से अमरीका फोन आया कि हमारे घर  में चोरी हो गई है और घर का कुण्डा ताला टूटा पड़ा है.  घबराहट स्वाभाविक थी. पहले तो अपने  एक  स्थानीय रिश्तेदार से कहा कि वो जाकर घर सम्हाले, टूटा कुण्डा ताला वगैरह  बदलवा दे, और फिर सूरत में रह रहे बेटे से कहा कि वो एक दफा जयपुर आ जाए और घर को सम्हाल कर पुलिस में रपट वगैरह  लिखवा दे. और ये सारे काम हो गए.

कोई पंद्रह बीस दिन बाद हमारे पड़ोसियों ने बेटे को फोन करके कहा कि वो पुलिस से सम्पर्क करे, और जब उसने पुलिस से सम्पर्क किया तो उसे बताया गया कि हमारे घर में चोरी करने वाले को पकड़ लिया गया है और उससे काफी सामान बरामद हुआ है. आगे जो हुआ उसे संक्षेप में कहूं तो मात्र इतना कि हमारा चोरी गया सामान करीब-करीब पूरा मिल गया, और वो भी यथा कार्यक्रम अपना अमरीका प्रवास पूरा करके हमारे भारत  लौटने  के बाद. तब तक वो सामान पुलिस के पास सुरक्षित पड़ा रहा, कोई अमानत में खयानत नहीं हुई. हां, अदालती औपचारिकताएं हमें पूरी करनी पड़ीं, और उनमें कुछ अलग तरह के अनुभव भी हुए,  लेकिन  उनकी चर्चा यहां अप्रासंगिक होगी. 

दिलचस्प और प्रशंसनीय बात यह है कि पुलिस ने हमारे यहां चोरी करने वाले उस चोर को पकड़ा कैसे? हुआ यह कि पुलिस की नियमित गतिविधि के तहत एक चोर पकड़ा गया और उसके पास से काफी सारा माल बरामद हुआ. पुलिस उस चोर से यह नहीं जान सकी कि उसने कहां-कहां चोरी की थी. पुलिस चाहती तो आसानी से उस माल को हजम कर सकती थी, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया. उसने उस माल के मालिक का पता लगाने की भरपूर  कोशिश की. जो माल पुलिस को उससे बरामद हुआ, उसमें एक टू-इन-वन यानि रेडियो कम कैसेट रिकॉर्डर भी था, जिस पर किसी रेडियो रिपेयरिंग शॉप का लेबल लगा था. पुलिस उस टू-इन-वन को लेकर उस शॉप पर पहुंची और वहां से पता लगा कि यह टू इन वन अमुक जगह रहने वाले किसी व्यक्ति का था. जब पुलिस उस व्यक्ति को  तलाश करती वहां पहुंची तो बताया गया कि वह व्यक्ति तो वहां से अमुक कॉलोनी में रहने चला गया है. उसी बरामद हुए सामान में एक कीमती कैमरा भी था जिसमें एक आधी काम में ली हुई फोटो फिल्म भी थी. पुलिस ने उस फिल्म को धुलवाया तो उसमें किसी बच्चे की बर्थ डे पार्टी की कुछ तस्वीरें मिलीं. पुलिस उन तस्वीरों को लेकर हमारे घर वाली कॉलोनी में आई और वो तस्वीरें जब हमारे पड़ोसियों को दिखाई गईं तो उन्होंने तुरंत बता दिया कि वे हमारे पोते के जन्म दिन की तस्वीरें हैं. तो इस तरह उस रेडियो रिपेयरिंग शॉप और कैमरे की फिल्म के माध्यम से पुलिस ने यह पता लगाया कि बरामद हुआ यह सामान हमारा   है.

यह पूरा वृत्तांत लिखने का मेरा मकसद यही बताना है कि जिस पुलिस को कोसने का कोई मौका हम नहीं छोड़ते हैं, वो भी काम करती है लेकिन उसके काम की कोई तारीफ़  नहीं करता. मुझे यह कहना भी ज़रूरी लग रहा है कि मेरे घर हुई इस चोरी के मामले में पुलिस ने जो भी किया वो अपनी पहल पर किया, न कि मेरे किसी दबाव या प्रभाव के कारण. एक नागरिक के रूप में मुझे लगता है कि जो लोग हमारी सेवा के लिए नियोजित हैं, उनके मूल्यांकन में बेवजह अनुदार और नकारात्मक होकर हम उन्हें हतोत्साहित ही करते हैं. अगर उनके प्रति हम अपना रुख सकारात्मक बनाएं तो निश्चय ही वे और अधिक उत्साह  के साथ हमारी सेवा करेंगे.

●●●

लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत 11 मार्च 2014 को कभी-कभी पुलिस भी होती है तारीफ की हक़दार शीर्षक से प्रकाशित कड़ी का मूल पाठ. 

Thursday, March 6, 2014

यह योग्यता हममें भरपूर मात्रा में है!

पिछले दिनों एक सरकारी विभाग के अनुभव की अपनी व्यथा-कथा सोशल मीडिया के मंच पर साझा की तो बहुत सारे मित्रों ने भी अपने वैसे ही अनुभव साझा कर दिए. लगा कि  बस ज़ख्म को कुरेद भर देने की देर थी. वैसे अपने यहां सरकारी दफ़्तरों  में कमोबेश एक-सा हाल है. अगर कभी कहीं सुगमता से काम हो जाए तो विश्वास ही नहीं होता है. आप किसी दफ़्तर में किसी भी काम के लिए चले जाएं,  पहला जवाब तो यही मिलेगा कि यह काम नहीं हो सकता. बल्कि उससे भी पहले यह होगा कि अगर आप सुबह पहुंचे हैं तो बताया जाएगा कि यह काम शाम को होता है और शाम को पहुंचे हैं तो आपको सुबह आना चाहिए था. अगर किसी चमत्कार से आप सही सुबह या सही शाम पहुंच भी गए हों तो जो सज्जन आपका काम करने के लिए नियुक्त हैं वे छुट्टी पर/दौरे पर/मीटिंग में होंगे, इसलिए आपको कलआना होगा. एंड यू नो, टुमारो नेवर कम्स!

काम करवाने की प्रक्रिया भी आसान नहीं होती है. एक आवेदन पत्र लिखिए, उसके साथ आवश्यक दस्तावेजों की राजपत्रित अधिकारी द्वारा सत्यापित करवाई हुई फोटो प्रतियां नत्थी कीजिए, उस आवेदन पत्र पर दफ्तर के बड़े साहब से मार्किंग करवाइये, फीस जमा करवाइये, और फिर आवेदन पत्र जमा करवाइये. शायद ही कभी ऐसा हो कि आपको बताया जाए कि कल आपका काम हो जाएगा, और हो जाए! लगाते रहिये चक्कर! तंग आकर बड़े साहब से मिलना चाहेंगे तो या तो वे चेम्बर में नहीं होंगे (दौरे पर या  मीटिंग में कौन जाएगा?) और अगर हुए तो उनका पी ए आपको उनसे मिलने नहीं देगा.

इससे मुझे याद आया कि कुछ बरस पहले जब मैं अपने विभाग के एक बड़े पद पर आसीन हुआ और वहां आने वाले लोगों को सहज रूप से सुलभ होने लगा तो सबसे पहली शिकायत मेरे पी ए साहब को ही हुई. पहले तो उन्होंने मुझे सदाशयतापूर्ण सलाह दी कि मैं इस तरह आसानी से लोगों से न मिला करूं और जब मैंने उनकी सलाह नहीं मानी तो उन्होंने इधर-  उधर कहना शुरु किया कि ये साहब तो दफ्तर का अनुशासन ही ख़त्म किए दे रहे हैं!

जब बात सरकारी काम काज की चल  ही निकली है तो लगे हाथों अपना एक और मज़ेदार अनुभव आपसे साझा कर लूं. हुआ यह कि मेरी बेटी ने,  जिस शहर में वो पढ़ रही थी वहां एक मोपेड खरीदी. परिवहन विभाग के एक अजीबो गरीब नियम के अनुसार  उसका रजिस्ट्रेशन उसी शहर में हो सकता था जहां के आप मूल निवासी हों. और हमारा यह मूल निवास बेटी की पढ़ाई वाले उस शहर से 200 किलोमीटर दूर था. मेरे शहर के डीटीओ (ज़िला परिवहन अधिकारी) से मेरी अच्छी जान पहचान थी, सो मैं उनके पास सारे कागज़ात लेकर पहुंचा कि वे उस वाहन का रजिस्ट्रेशन कर दें. उन्होंने बड़ी आत्मीयता से मुझे बिठाया, चाय पिलाई और फिर मेरे कागज़ देखकर पूछा कि वाहन कहां है? मैंने बताया कि वाहन तो वहीं है जहां से उसे खरीदा गया है. उन्होंने बहुत ही सहजता से कहा कि बस आप दो मिनिट के लिए वो वाहन  यहां ले आइये, मैं फौरन रजिस्ट्रेशन कर दूंगा, ज़रा भी देर नहीं लगाऊंगा. मेरे सारे अनुरोध उनकी  सरकारी नियमों से बंधी कर्तव्यपरायणता के आगे निष्फल रहे. मुंह लटका कर बाहर निकल ही रहा था कि मेरा एक पड़ोसी  मिल गया. दुआ सलाम के बाद उसने मुझसे वहां आने की वजह पूछी, और मैंने अपनी पूरी राम कहानी उसे सुना दी. वो वहीं मुझे एक ट्रांसपोर्ट एजेण्ट के पास ले गया, जो संयोग से मेरा भी परिचित था. उसने कहा कि यह तो कोई काम ही नहीं है. आसानी से हो जाता, लेकिन आप क्योंकि साहब के पास चले गए थे और मामला उनके ध्यान में आ चुका है, इसलिए थोड़ा खर्चा होगा. जितना खर्चा उसने बताया वो 200 किलोमीटर दूर से वाहन लाने ले जाने से तो कम ही था. मैंने हामी भरी, कागज़ात उसे सौंपे, और अगले दिन उसके बताए समय पर जब पहुंचा तो वाहन के रजिस्ट्रेशन के कागज़ात तैयार थे. एक बार तो मेरा मन हुआ कि अपने उन डीटीओ मित्र के पास जाऊं और पूछूं  कि कल जो काम नियम  विरुद्ध था, आज वही काम उन्हीं के हस्ताक्षरों से कैसे हो गया, लेकिन फिर सोचा मेरा चाहे कुछ न बिगड़े, उस एजेण्ट को परेशानी हो सकती है, और यह सोचकर सीधा अपने घर चला आया.

इतने बरस बहुत सारे सरकारी दफ्तरों  की  धूल फांककर मुझे एक ही बात समझ में आई है और वह यह कि काम की प्रक्रिया को जटिल बनाने में, लोगों की परेशानियों में वृद्धि  करने में और आपको ग़लत तरीकों से काम  करवाने के लिए मज़बूर करने में हमारी सरकारी मशीनरी का कोई जवाब नहीं है.

●●●

लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे  साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर  में  मंगलवार दिनांक 05 मार्च, 2014 को 'सरकारी दफ्तर...और काम कल होने का फेर' शीर्षक से प्रकाशित आलेख का मूल पाठ!