Tuesday, January 7, 2014

बेवजह तारीफ़ कौन करता है?

दिल्ली में भी नई सरकार बन गई. राजस्थान में बन ही चुकी है. केन्द्र में भी बन जाएगी. जैसे ही कोई नई सल्तनत गद्दीनशीन  होती है, उसे मुबारक़बाद  देने वालों और उसकी शान में कसीदे पढ़ने वालों  की कतार  लग जाती है. यह स्वाभाविक भी है और एक हद तक उचित भी. आखिर किसी भी नए की सफलता की कामना की ही जानी चाहिए. लेकिन जो लोग कतारबद्ध   होकर मुबारक़बाद  पेश करते और गुणगान करते हैं, क्या वे वाकई  अपनी शुभकामना ही दे रहे होते हैं, या उनका कोई हिडन एजेण्डा भी होता है?

मुझे बरसों पहले अपने एक पुराने विद्यार्थी से हुए संवाद की याद आ  रही है. छात्र जीवन से ही साहित्य में उसकी रुचि थी. आहिस्ता-आहिस्ता स्थानीय अखबारों में और फिर छोटी-मोटी पत्रिकाओं में उसकी कविताएं नज़र आने लगी थीं. अब तो खैर उसका शुमार प्रांत के वरिष्ठ कवियों में होता है.

बात उस समय की है जब राजस्थान  साहित्य अकादमी ने अपनी मुख पत्रिका के लिए हर छह महीने में सम्पादक बदलने की एक विलक्षण योजना चलाई थी. मैंने लक्ष्य किया कि जैसे ही किसी नए सम्पादक के सम्पादन वाला पहला अंक आता, उससे अगले ही अंक में उस पर अनिवार्यत: एक प्रतिक्रिया मेरे इस सुयोग्य पूर्व शिष्य की भी ज़रूर छपती. प्रतिक्रिया यही होती कि आपने आते ही इस पत्रिका का कायाकल्प  कर दिया है. प्रतिक्रिया की ध्वनि यह होती कि इससे पहले जो पत्रिका रसातल तक जा पहुंची थी, आपने अपने सम्पादन के पहले ही अंक में उसे आसमान पर ले जाकर टाँग  दिया है. मज़े की बात यह कि हर संपादक खुशी-खुशी इस तरह के पत्र को प्रकाशित भी कर देता. 

लगातार तीन अंकों में एक-सी प्रतिक्रिया देखकर मैं थोड़ा आश्चर्यचकित था. और संयोग यह हुआ कि उन्हीं दिनों उस पूर्व शिष्य और तत्कालीन युवा कवि से मिलने का कोई अवसर भी आ गया. मैंने कुछ विनोद भाव से उसकी एक-सी प्रतिक्रिया के बारे में पूछ लिया. उसने बेहद ईमानदारी और सहज भाव से जो बताया, उसका सार यह है कि गुरुजी, मैं तो हर सम्पादक को यह लिखता हूं कि आप महान हैं, और आपने इस पत्रिका को अभूतपूर्व  ऊंचाइयों तक पहुंचाया है.  और यह लिखने के साथ ही यह भी लिख देता हूं कि मेरी कुछ कविताएं प्रकाशनार्थ संलग्न है. आम तौर पर तो सम्पादक जी मेरी उन कविताओं को तुरंत प्रकाशित कर देते हैं.... 

यहीं मैंने उसे टोका और पूछा  कि अगर कोई सम्पादक तुम्हारा पत्र तो प्रकाशित कर दे, कविताएं न करे  तो?  

उसने बहुत ईमानदारी से कहा, हां, कभी-कभी ऐसा भी होता है. तब  मैं प्रशंसा का ऐसा ही एक पत्र और लिखता  हूं. प्रशंसा की मात्रा थोड़ी और बढ़ा देता हूं, और लगे हाथों पिछले सम्पादक की थोड़ी आलोचना भी कर देता हूं. मेरा यह फॉर्मूला काम कर जाता है. कविताएं छप जाती हैं. 

अब उसकी बातों में मुझे मज़ा आने लगा था. मैंने पूछा, “कोई सम्पादक बहुत ही ढीठ हो और प्रशंसा  की हेवी डोज़ का भी उसपर कोई असर न हो तो फिर क्या करते हो?”  

मुझे यह जानकर बड़ा गर्व हुआ  कि मेरा वह शिष्य अब अपनी रचनाओं को प्रकाशित करने की कला में पारंगत  हो चुका था. उसने कहा, गुरुजी, मेरे पास इसका भी इलाज है. मैंने पूछा, वह क्या है? तो उसने बताया, “फिर मैं सम्पादक को एक पत्र और लिखता हूं. और उसमें लिखता हूं कि जब से आपने इस पत्रिका का सम्पादन दायित्व  सम्हाला है, इसका स्तर निरंतर नीचे गिरता जा रहा है. अगर आपने जल्दी ही कुछ कदम नहीं उठाए तो यह पत्रिका एकदम कूड़ा हो जाएगी, और कबाड़ी भी इसे लेने से मना कर देंगे. आपकी इस पत्रिका से मेरा पुराना रिश्ता रहा है इसलिए मैं इसके स्तर को लेकर बहुत चिंतित हूं. पत्रिका के गिरते स्तर को सम्हालने के लिए अपनी कुछ कविताएं आपकी भेज रहा हूं..... और मेरा यह नुस्खा अब तक तो नाकामयाब  नहीं रहा है.”  

मैं उसकी सूझ-बूझ का कायल हो चुका था. कविताएं वो भले ही कैसी भी लिखता हो, यह समझ उसमें पर्याप्त थी कि उन्हें छपवाया कैसे जाए!

आज जब नई बनी सरकारों के अपना  काम शुरु करने से पहले ही उनका प्रशस्तिगान करने वालों की आवाज़ें सुनता हूं तो मुझे अपने उस विद्यार्थी की याद आ जाती है.  हो सकता है  कि इन प्रशस्तिगायकों में से बहुत सारे ऐसे हों जिन्हें किसी सरकार से कोई स्वार्थ न साधना  हो और  महज़ सद्भावना के वशीभूत हो ही वे ऐसा कर रहे हों;  लेकिन यह भी बहुत पक्की बात है कि अधिकांश  कीर्तनकार मेरे उस विद्यार्थी की सोच से सहमति रखने वाले ही होंगे.


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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत दिनांक 07  जनवरी 2014 को प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.  

7 comments:

पूर्णिमा वर्मन said...

सहमत, कीर्तनकार सब ऐसे ही होते हैं। किसी को किसी मुगालते में रहने की जरूरत नहीं।

Unknown said...

Ur observations & experience r true.

Kalam said...

badhiya he.

वाणी गीत said...

तो ऐसे छपती है कवितायेँ। आज से प्रशस्तिगायन प्रारम्भ :)

Govind mathur said...

चापलूसी और प्रशंसा से कौन खुश नहीं होता, ये जानते हुए भी की जो प्रशंसा की जा रही वह शुद्ध चाटुकारिता है फिर भी चाटुकार को कृतार्थ कर ही देता है. आज हर क्षेत्र में चाटुकार ही आगे है. जो चाटुकारिता नहीं करता, खरा बोलता है उसे कोई नहीं पूछता है. ऐसा व्यक्ति केवल अपनी प्रतिभा से ही आगे आ सकता है.

Dr. Lakshmi Sharma said...

बेवजह तारीफ करता कौन है,
तुम ही कहो अमां मियां अब हम पे मरता कौन है.....
बहुत बहुत बढिया लिखा है आप ने ...और ये तारीफ बेवजह के खाते में दर्ज़ हो......

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

सरकारें तो क्‍या, समाज ही ऐसे संपादक चला रहे हैं