Tuesday, November 26, 2013

चुनावी ड्यूटियों के मज़ेदार अनुभव

राजनीतिक दलों, उम्मीदवारों और आम जनता के लिए चुनाव का चाहे जो मतलब हो, अधिकांश  सरकारी कर्मचारियों के लिए तो चुनावी ड्यूटी एक बहुत बड़े संकट का पर्याय होती है. तीन-चार दिन घर से बाहर, किसी अजनबी और सुविधा विहीन जगह पर रहना और एक ऐसे महत्वपूर्ण दायित्व का निर्वहन करना जिसमें किसी छोटी  से छोटी चूक की बहुत बड़ी सज़ा अवश्यम्भावी हो,  भला किसको रास आ सकता है? शायद यही वजह है कि हर चुनाव के समय सरकारी कर्मचारी इन ड्यूटियों से मुक्ति पाने के लिए तमाम तरह के जुगाड़ करते देखे जाते हैं. लेकिन फिर भी ड्यूटी तो करनी ही  होती  है, लोग करते भी हैं, और उसके मज़े भी लेते हैं.

अपनी तीन दशक लम्बी  नौकरी में मैंने नगरपालिका से लगाकर लोक सभा तक के तमाम चुनाव करवाए हैं. कॉलेज के चुनाव तो खैर करवाए ही हैं और अब बिना किसी संकोच के कह सकता हूं कि जिसने कॉलेज के चुनाव करवा लिए वो कहीं के भी चुनाव को दांये-बांये हाथ का नहीं, हाथ की एक उँगली का खेल समझ सकता है. हमने भी इसी भाव से तमाम चुनाव करवाए और खूब मज़े लेकर करवाए. अब पीछे मुड़ कर देखता हूं तो याद आता है कि हमें चुनाव का सबसे रोचक हिस्सा उसका प्रशिक्षण लगता था. प्रशिक्षण का दायित्व आम तौर पर प्रशासन वाले लोगों का होता था और हम कॉलेज शिक्षा  वालों और प्रशासन के बीच छत्तीस  का रिश्ता  जग जाहिर है. यह प्रशिक्षण कार्यक्रम हमें उन लोगों की खिंचाई का अवसर देता था.

पढ़ाने लिखाने वालों में किताबों को चाट जाने का शौक तो होता ही है. हमारे कुछ साथी भी चुनाव की मार्ग दर्शिका को लगभग घोट कर पी जाया करते थे. और उसके बाद वे प्रशिक्षण कार्यक्रम में प्रशिक्षण देने वालों से वो वो बारीक सवाल करते कि  उनसे जवाब देने नहीं बनता. एक बार हुआ यह कि जो सज्जन प्रशिक्षण दे रहे थे, उनके पास हमारी शंका का कोई तर्कपूर्ण समाधान नहीं था. लेकिन वे अपनी कमी तो भला कैसे स्वीकार करते! तो उन्होंने बड़े आत्मविश्वास के साथ हमारे प्रश्नकर्ता साथी को कहा कि अगर वैसी स्थिति आए तो आपको अपना कॉमन सेंस इस्तेमाल करना चाहिए. उनका उत्तर अपनी जगह सही था,  और हम सब करते भी यही हैं. लेकिन यहां तो बात मज़े लेने की थी ना! सवाल करने वाले हमारे साथी अपनी जगह से उठे, दो कदम आगे बढ़े, इधर-उधर देखा और बोले, “वो तो हम कर ही लेंगे, लेकिन आप तो यह बताइये कि इस बारे में ऑफिशियल प्रावधान क्या है?” और जैसे ही उन्होंने अपनी बात पूरी की, हममें से भी बहुत सारे लोग उनकी हां में हां मिलाते हुए उठ खड़े हुए. कलक्टर महोदय ने जैसे-तैसे बात को सम्भाल कर मामले का पटाक्षेप किया. 

अपनी नौकरी के उत्तर काल में जब अपनी वरिष्ठता के चलते मुझे ज़ोनल मजिस्ट्रेट के रूप में चुनाव ड्यूटी करने का मौका मिलने लगा  तो एक साथी ने एक मज़ेदार पाठ पढ़ाया. ड्यूटी के बाद हमको एक प्रतिवेदन भरना होता है जिसमें यह बताना होता है कि अपने दायित्व निर्वहन के दौरान हमें किन-किन परेशानियों से रू- ब- रू होना पड़ा और हमने उन स्थितियों में क्या किया. हम लोग आम तौर पर ‘कोई परेशानी नहीं आई’ लिखकर काम चलाते रहे. लेकिन एक मित्र ने, शायद अपने अर्जित अनुभव के आधार पर हमें सलाह दी कि हम ऐसा कभी नहीं लिखें. उन्होंने कहा कि हम ऐसा कुछ लिखें कि  वहां दो या अधिक गुटों के बीच पारस्परिक तनाव की वजह से स्थिति काफी विकट हो गई थी, लेकिन ‘अधोहस्ताक्षरकर्ता’ ने अपनी सूझ-बूझ का इस्तेमाल कर स्थिति को  सम्हाल लिया. ज़ाहिर है कि ऐसी  इबारत बिना किसी प्रमाण के लिखी जा सकती है. और इससे सम्बद्ध अधिकारी अप्रत्यक्ष रूप से बहुत दक्ष भी घोषित हो जाता है.   

एक और प्रसंग याद आता है. चुनाव करवा कर जब लौटते हैं तो स्वाभाविक है कि सारे लोग बहुत हैरान-परेशान और थके-मांदे होते हैं. चुनाव की सामग्री  और मत पेटियां वगैरह जमा करवाना शायद सबसे कठिन काम होता है. भीड़भाड़, धक्का-मुक्की और हरेक को ‘पहले मैं’ की जल्दी. प्रशासनिक अमले की अपनी दिक्कतें होती हैं. हम लोग भी रात नौ-साढ़े नौ बजे चुनाव करवा कर लौटे थे और अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे. तभी हमारे एक वरिष्ठ साथी भी मतदान सम्पन्न करवा कर लौटे. देखा कि सामान जमा करवाने में काफी देर लगने वाली है, तो सीधे उच्चाधिकारियों के पास पहुंचे  और बोले कि देखिये, मुझे रात को दिखाई नहीं देता है, इसलिए मैं तो घर जा रहा हूं. जब आपको सुविधा हो अपनी सामग्री मेरे घर से मंगवा लेना. उनका इतना कहना था कि जैसे पूरे अमले में बिजली दौड़ गई. सभी जानते हैं कि अगर एक भी मत  पेटी जमा होने से रह जाए तो कैसा हड़कम्प मचता है! अफसरों ने अतिरिक्त व्यवस्था  करके सबसे पहला उनका सामान जमा किया, और वे हम सबको हिकारत की नज़रों से देखते हुए विजयी  भाव से प्रस्थान कर गए.

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जयपुर से प्रकाशित लोकप्रिय अपराह्न दैनिक 'न्यूज़ टुडै' में आज दिनांक 26 नवम्बर, 2013 को प्रकाशित हुए मेरे साप्ताहिक कॉलम 'कुछ इधर कुछ उधर' के अंतर्गत प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.