Tuesday, November 19, 2013

बूढों के लिए कोचिंग क्लास की ज़रूरत

अखबारों में प्राय: बुज़ुर्गों से दुर्व्यवहार या  उनकी उपेक्षा के समाचार पढ़ने को मिलते हैं. जहां भी दो-चार हम उम्र लोग मिलते हैं, अक्सर यही रोना रोया जाता है कि आजकल बूढ़े मां-बाप की कोई फिक्र नहीं करता है. लेकिन मेरे एक वरिष्ठ साहित्यिक मित्र अक्सर यह कहते हैं कि अगर उनके पास संसाधन हों तो वे वरिष्ठ लोगों के लिए कोचिंग क्लासेस लगाना चाहेंगे. उनका बहुत स्पष्ट विचार है कि अपनी बहुत सारी पीड़ाओं के लिए वरिष्ठ जन स्वयं उत्तरदायी हैं. 

मुझे भी लगता है कि हालात उतने बुरे तो नहीं हैं जितने मान लिए गए हैं, और यह भी कि अगर आपको कोई कष्ट न हो तो भी आपके शुभचिंतक भरसक कोशिश करते हैं कि आप महसूस  करें कि आप भयंकर कष्ट में हैं. यानि इस बात को एक सच के रूप में पंजीकृत कर लिया गया है कि नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी को फूटी आंखों भी नहीं देखना चाहती है! होता यह है कि जब  वृद्ध या वरिष्ठ लोग अपने बच्चों के साथ रहते हैं और अगर वे कभी कोई काम करते हैं, जैसे सब्ज़ी लेने चले जाते हैं या अपने पोते पोतियों को स्कूल छोड़ने लेने चले जाते हैं तो उन्हीं  के साथी ताना मारते हैं और उनके मन में यह बात बिठा देते हैं कि उनका शोषण किया जा रहा है. और इस तरह जीवन में  जिस बात का आनंद  लिया जाना चाहिए उसी को वे बतौर सज़ा या शोषण  देखने समझने लगते हैं.

क्या सारा दोष नई पीढ़ी का है? क्या  पुरानी पीढ़ी से कहीं कोई चूक नहीं हो रही है? जब मैं इस बात पर सोचता हूं तो पाता हूं कि हममें से बहुत सारे लोग इस बात को आसानी से स्वीकार नहीं कर पाते हैं कि अब हम निर्णायक नहीं रहे हैं. आप जब खुद गाड़ी चलाते हैं और जब आप गाड़ी चलाने वाले के बगल में बैठते हैं तब  में कुछ फर्क़ होता है. आप बगल में बैठकर भी चाहेंगे कि गाड़ी वैसे ही चलाई जाए जैसे आप चाहते हैं तो जो गाड़ी चला रहा है उसे असुविधा होगी. स्वस्थ बात तो यह होगी कि आप चैन से बैठें और उसे अपने विवेकानुसार गाड़ी चलाने दें. इस तरह वो भी अपना कर्तव्य निर्वहन करेगा और आप  भी यात्रा का आनंद लेंगे. लेकिन क्या ऐसा होता है? हम कभी यह मानने को तैयार ही नहीं होते हैं कि हमसे बेहतर ड्राइवर कोई और हो सकता है.

बड़ी विडम्बना यह है कि इस गतिशील जीवन में हम  स्थिरता चाहते हैं. हम चाहते हैं कि हम सदा अभिभावक बने रहें, और हमारे बच्चे भी कभी बड़े न हों! एक तरह से हम अपने पूर्वजों की संन्यास और वानप्रस्थ आश्रम वाली व्यवस्था को भी नकारने का हर सम्भव प्रयास करते हैं. बाप यह नहीं चाहता कि बेटा अपने विवेकानुसार अपना काम करे और मां यह नहीं चाहती कि बहू अपनी पसन्द और अपनी सुविधा के अनुसार घर चलाए!

पिछले कुछ बरसों में भारत में जीवन शैली में बहुत बदलाव आए हैं. आज से दस पन्द्रह बरस वाला जीवन अब विलुप्त हो गया है. आज की पीढ़ी का  खान-पान, पहनावा, लोक व्यवहार सब कुछ बदल चुका है. नए ज़माने में रह रही हमारी संतान को उसी नई जीवन-शैली के अनुरूप आचरण करना होता है. लेकिन दिक्कत यह होती है कि हमारे लिए समय ठहरा हुआ है और हम चाहते हैं कि हमारी संतान के लिए भी वो ठहरा हुआ ही रहे, जो मुमकिन नहीं है. टकराव की एक बड़ी वजह यह भी होती है. एक आदर्श स्थिति यह हो सकती है कि हम अपनी जीवन शैली को चाहे न बदलें, उन्हें यानि नई पीढ़ी  को अपनी आवश्यकताओं के अनुसार जीवन जीने की प्रसन्नतापूर्ण छूट दें.

जब अपने बुज़ुर्गों के साथ युवाओं के बर्ताव की बात होती है तो चलते-चलते  प्राय: दो-चार हाथ पश्चिम  को भी जड़ दिए जाते हैं. हम शिखर पर हैं और वो गर्त में हैं – यह भाव आम है. अब जब हमने पश्चिमी जीवन  शैली को पूरी तरह अपना लिया है, समय आ गया है कि हम यह भी देखें कि उन्होंने इस स्थिति का सामना करने के लिए अपने यहां क्या सुरक्षा प्रबन्ध किए हैं! कभी हमारे यहां संयुक्त परिवार प्रथा थी जो परिवार में सभी को– बुज़ुर्गों को और बच्चों को भी-  पर्याप्त सुरक्षा देती थी. अब बहुत सारे कारणों  से संयुक्त परिवार लगभग खत्म हो गए हैं. ऐसे में हमें वैकल्पिक व्यवस्थाएं तो करनी ही होंगी. अगर हमने कामकाजी माताओं के शिशुओं के लिए डे केयर सेण्टर या क्रेश (Creche) जैसी सुविधाओं को स्वीकार किया है तो रिटायरमेण्ट होम्स और वृद्धाश्रमों (कोई सम्मानजनक नाम भी हो सकता है) को भी खुले मन से स्वीकार करने को तैयार रहना चाहिए. अगर बीते ज़माने में वानप्रस्थ की कल्पना थी तो आज वृद्धाश्रम क्यों स्वीकार्य नहीं हो सकता?  जीवन अपनी गति से चलेगा. बदलना तो हम को ही होगा.
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लोकप्रिय अपराह्न दैनिक न्यूज़ टुडै में प्रकाशित मेरे साप्ताहिक कॉलम कुछ इधर कुछ उधर के अंतर्गत 19 नवम्बर, 2013 को प्रकाशित आलेख का मूल पाठ.